पश्तूनों का पाकिस्तानी फौज के खिलाफ सड़कों पर उतर आने से आइएसआइ के लिए बड़ा झटका

पाकिस्तान की समस्या केवल आर्थिक हालात तक ही सीमित नहीं हैं। वहां असंतोष का एक ज्वालामुखी भी धधक रहा है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 20 May 2019 02:56 AM (IST) Updated:Mon, 20 May 2019 02:56 AM (IST)
पश्तूनों का पाकिस्तानी फौज के खिलाफ सड़कों पर उतर आने से आइएसआइ के लिए बड़ा झटका
पश्तूनों का पाकिस्तानी फौज के खिलाफ सड़कों पर उतर आने से आइएसआइ के लिए बड़ा झटका

[ दिव्य कुमार सोती ]: इन दिनों पाकिस्तान अपने आर्थिक संकट को लेकर चर्चा में है। उसकी समस्या केवल आर्थिक हालात तक ही सीमित नहीं हैं। वहां असंतोष का एक ज्वालामुखी भी धधक रहा है। पश्तून तहफ्फुज मूवमेंट के बैनर तले पश्तून तबका पाकिस्तानी फौज के खिलाफ संघर्षरत है जो फौज एक अर्से से उन पर जुल्म ढा रही है। इस संगठन के प्रदर्शनों में दस से साठ हजार तक की तादाद में लोग जुट रहे हैं। वैसे पंजाब को छोड़ पाकिस्तान के हर प्रदेश में दशकों से असंतोष पनपता रहा है, परंतु पश्तूनों के पाक फौज के खिलाफ आवाज उठाने के कई खास मायने हैं। ये कबीलाई पश्तून ही थे जिन्हें आगे कर पाक ने 1947 में कश्मीर पर हमला किया था। पश्तून इलाकों में ही कट्टरपंथी देवबंदी मदरसों का जाल फैलाकर पाक फौज ने तालिबानी आतंकियों की फौज खड़ी की जिनके जरिये अफगानिस्तान की सत्ता पर परोक्ष कब्जा किया। आज भी अफगानिस्तान में आतंक फैला रहे तालिबान और हक्कानी नेटवर्क जैसे संगठन इन्हीं पश्तून इलाकों से संचालित होते हैं और सीमा पार अफगानिस्तान में आतंकी हमलों को अंजाम देते हैं।

भारतीय वायु सेना ने बालाकोट में जैश के ठिकानों पर बम बरसाए, वह इलाका भी पश्तून बहुल है। ऐसे में अगर हजारों पश्तून पाक फौज के खिलाफ खुलेआम सड़को पर उतर रहे हैं तो यह आइएसआइ के जिहाद प्रोजेक्ट के लिए बड़ा झटका है। इसका कारण यह है कि पाक अफगान सीमा पर स्थित पश्तून बहुल इलाकों को आतंकी ट्रेनिंग का गढ़ बनाने के पीछे पाक फौज का मकसद केवल अफगानिस्तान में तालिबान के जरिये अपना प्रभुत्व स्थापित करना भर नहीं था। आइएसआइ ने हमेशा यहां कट्टरपंथ की आड़ में अपना हित साधना चाहा। पश्तून समाज परंपरागत रूप से एक कबीलाई है जिसके अपने अलग कायदे-कानून हैं। वे हमेशा बाहरी दखल का प्रतिरोध करते रहे हैं। अंग्र्रेज भी यहां अपने तौर-तरीके थोपने में सफल नहीं रहे। नतीजतन जब पाकिस्तान बनने का मौका आया तो मुस्लिम बहुल होने के नाते ये इलाका पाक में शामिल तो हुआ, परंतु जमीनी स्तर पर पाकिस्तान सरकार और फौज का दखल सीमित ही रहा।

वर्ष 1971 में पाकिस्तान के विघटन के बाद पाक नेताओं और फौज को पश्तून इलाकों में भी पूर्वी पाकिस्तान और बलूचिस्तान की ही तरह अलगाववाद का डर सताने लगा था। ऐसे में जब अफगानिस्तान में सोवियत संघ से लड़ने के लिए अमेरिका और पाकिस्तान ने मुजाहिदीन को भेजना शुरू किया तो पश्तून बहुल इलाकों में आइएसआइ के संरक्षण में इस्लामी कट्टरपंथ को बढ़ावा दिया गया ताकि कबीलाई और क्षेत्रीय पहचान धूमिल पड़ जाए और उस पर इस्लामी पहचान हावी हो जाए। बहुत हद तक यही हुआ भी। न्यूयॉर्क में 9/11 हमले के बाद जब अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान और अल कायदा पर हमला किया तो इन आतंकियों ने खैबर पख्तूनख्वा में शरण ली। अमेरिका ने पाकिस्तान पर इन आतंकियों पर कार्रवाई करने के लिए दबाव डाला तो पाक फौज इस इलाके में पहुंच गई और दिखावे के लिए इन आतंकियों पर कार्रवाई भी की। इस काम के लिए अमेरिका से अरबों डॉलर लिए गए।

इसके बावजूद तालिबान और हक्कानी नेटवर्क जैसे गुट मजबूत होते रहे और अफगानिस्तान में एक के बाद एक बड़े हमलों को अंजाम देते रहे। इन संगठनों पर कार्रवाई के नाम पर पाक खुफिया एजेंसियों ने हजारों निर्दोष पश्तूनों का अपहरण किया जो अब तक लापता हैं। इन अत्याचारों और मानवाधिकार उल्लंघनों के खिलाफ ही पश्तून तहफ्फुज आंदोलन की शुरुआत हुई जो अब जोर पकड़ता जा रहा है। इसके प्रदर्शनों में हजारों लोग इकट्ठे होकर पाक फौज के खिलाफ ‘ये जो दहशतगर्दी है, इसके पीछे वर्दी है’ जैसे नारे लगा रहे हैं। इसके कारण पाक फौज की काफी फजीहत हो रही है और जनरल गुस्से और झुंझलाहट से भरे हैं। हाल ही में जब पाक फौज के प्रवक्ता आसिफ गफूर से पत्रकारों ने पश्तूनों के लापता होने को लेकर सवाल पूछे तो उन्होंने बौखलाहट में जवाब दिया कि मोहब्बत और जंग में सब जायज है। मतलब साफ है कि पश्तूनों के एक तबके द्वारा आतंकवादी संगठनों को पालने-पोसने की अपनी नीति के विरोध को पाक फौज जंग के बराबर समझती है।

आजकल अमेरिका अफगानिस्तान से निकलने की जुगत में है और इसलिए तालिबान से बातचीत में लगा है। ऐसे में पाक फौज को लगता है कि अफगानिस्तान में सत्ता में दखल बस उसे मिलने ही वाला है, ऐसे में तालिबान के बेस के तौर पर इस्तेमाल हो रहे खैबर पख्तूनख्वा में फौज और आतंकवाद का विरोध उसके लिए बड़ा सिरदर्द है। लिहाजा अब पाक फौज पश्तून तहफ्फुज आंदोलन को विदेशी ताकतों से जोड़ने में लगी है। फिलहाल उसके पास ऐसा कोई सुबूत तो है नहीं। ऐसे में उसके प्रवक्ता किसी राजनीतिक दल के नेता की तरह पश्तून तहफ्फुज मूवमेंट के नेताओं से सवाल कर रहे हैं कि वे बताएं कि उनके भारत से क्या रिश्ते हैं, अफगानिस्तान से क्या रिश्ते हैं।

पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान इसे लेकर पसोपेश में हैं, क्योंकि वह खुद पठान हैं और उनकी पार्टी ने सत्ता की सीढ़ियां खैबर पख्तूनख्वा के जरिये ही चढ़ी थी। एक तरफ खूंखार फौज है, तालिबान से उनकी पुरानी नजदीकियां हैं तो दूसरी ओर पश्तून वोट बैंक है। ऐसे में इमरान खान पहले कह रहे थे कि पश्तून तहफ्फुज के मुद्दे तो सही हैं, पर तरीका गलत है। पर अब फौज की आक्रामकता को देखकर वह भी उसकी हां में हां मिला रहे हैं। फौज पश्तून तहफ्फुज के नेताओं को खुलेआम धमकी दे रही है कि उनका समय पूरा हो गया है। पिछले महीने पश्तून तहफ्फुज के नेताओं को पाक संसद की समिति ने भी सुनवाई के लिए बुलाया था। पर फौज के दबाव और खुली धमकियों को देखते हुए किसी ठोस कार्रवाई की उम्मीद नहीं है।

अगर फौज इस मामले में जांच होने देती है तो उसका बेहद क्रूर चेहरा जनता के सामने बेनकाब हो जाएगा। फौज ने पाक मीडिया को धमकी दी है कि वह पश्तून तहफ्फुज मूवमेंट के किसी भी प्रदर्शन या प्रेस कांफ्रेंस की कवरेज न करे और पाक मीडिया ऐसा कर भी रहा है। ऐसे में फौज जल्द ही इस आंदोलन को कुचलने का प्रयास करेगी जिस स्थिति में खैबर पख्तूनख्वा में हिंसा भड़क सकती है जिसमें एक ओर आम पश्तून होंगे तो दूसरी ओर पाक फौज और तालिबानी आतंकी। भारत को इन हालात पर पैनी नजर रखनी चाहिए। जैसे प्रदर्शन आज पश्तून कर रहे हैं ऐसे ही मार्च 2012 में कराची में आजाद सिंधुदेश की मांग को लेकर हुए थे, पर तब संप्रग सरकार और भारतीय मीडिया ने उस ओर ध्यान ही नहीं दिया था। इस बार हमें वह गलती नहीं दोहरानी चाहिए।

( लेखक काउंसिल फॉर स्टे्रटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं )

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