ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट तैयार करने वाले संगठनों का संदिग्ध अतीत कई सवाल खड़े करता है

कंसर्न वर्ल्डवाइड और वेल्टहंगरहिल्फे द्वारा प्रकाशित ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020’ रिपोर्ट के सार्वजनिक होते ही भारतीय मीडिया-खासकर अंग्रेजी मीडिया ने इसे खासा तूल दिया। क्या किसी ने इस रिपोर्ट और इसके रचनाकार संगठनों की प्रमाणिकता को जांचा या खोजबीन की?

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 28 Oct 2020 06:15 AM (IST) Updated:Wed, 28 Oct 2020 06:15 AM (IST)
ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट तैयार करने वाले संगठनों का संदिग्ध अतीत कई सवाल खड़े करता है
हंगर इंडेक्स की हकीकत अनदेखी नहीं की जा सकती।

[ बलबीर पुंज ]: हाल में कंसर्न वर्ल्डवाइड और वेल्टहंगरहिल्फे द्वारा प्रकाशित ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2020’ रिपोर्ट जारी हुई। इसके अनुसार भारत में भुखमरी की स्थिति गंभीर है और 107 देशों की सूची में उसका 94वां स्थान है। पिछले वर्ष की तुलना में इसमें कुछ सुधार हुआ है। बावजूद इसके पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और पाकिस्तान से भी भारत अभी पीछे है। इस रिपोर्ट के सार्वजनिक होते ही भारतीय मीडिया-खासकर अंग्रेजी मीडिया ने इसे खासा तूल दिया। कांग्रेस सहित विपक्षी दलों ने इसे आधार बनाकर मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। क्या किसी ने इस रिपोर्ट और इसके रचनाकार संगठनों की प्रमाणिकता को जांचा या खोजबीन की?

वेल्टहंगरहिल्फे और कंसर्न वर्ल्डवाइड की स्थापना रोमन कैथोलिक चर्च और ईसाई मिशनरियों ने की थी

वेल्टहंगरहिल्फे और कंसर्न वर्ल्डवाइड, दोनों संगठनों की उत्पत्ति 1960-70 के बीच रोमन कैथोलिक चर्च और ईसाई मिशनरियों ने की थी, जिनका भूत, वर्तमान और भविष्य ही भय और प्रलोभन के माध्यम से मतांतरण में लिप्त है। कंसर्न वर्ल्डवाइड की स्थापना आयरिश ईसाई मिशनरी के कहने पर 1968 में तब हुई थी, जब नाइजीरिया को ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्ति मिले आठ वर्ष हो चुके थे और वह भीषण गृह युद्ध की चपेट में था। इस अफ्रीकी देश में वर्ष 1914-60 के ब्रिटिश राज के दौरान ईसाइयत का प्रचार हुआ, जो अब भी जारी है। इसी तरह जर्मनी स्थित वेल्टहंगरहिल्फे की स्थापना 1962 में पूर्वी जर्मनी के तत्कालीन राष्ट्रपति और रोमन कैथोलिक चर्च के सदस्य हेनरिक लुब्के ने की थी। अभी इस संस्था का नेतृत्व मरलेह्न थिएमे के हाथों में है, जो 2003 से जर्मन ईसाई धर्म प्रचार चर्च परिषद से जुड़ी हुई हैं। चर्च के अतिरिक्त कैथोलिक बिशप कमीशन, जर्मनी के वामपंथी दल (डी-लिंक) और वाम-समर्थित व्यापारिक संघ इसके प्रमुख सदस्य हैं।

सीएए विरोधी हिंसा के षड्यंत्रकारियों को जर्मनी-बेल्जियम की चर्चों ने करोड़ों रुपये भारत भेजे थे

क्या ऐसा संभव है कि कोई विशुद्ध भारतीय संस्था किसी अन्य देश पर नकारात्मक रिपोर्ट तैयार करे और वहां का समाज (मीडिया सहित) उसका तुरंत संज्ञान लेकर उस पर भरोसा कर ले? हाल में लीगल राइट ऑब्जर्वेटरी (एलआरओ) नामक भारतीय संगठन ने खुलासा किया था कि कैसे नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) विरोधी हिंसा के षड्यंत्रकारियों की पैरवी करने के लिए जर्मनी-बेल्जियम स्थित चर्चों ने करोड़ों रुपये भारत भेजे थे। इस रिपोर्ट पर संबंधित देशों में मीडिया का संज्ञान लेना तो दूर, स्वयं अपने ही देश के अधिकांश मीडिया ने चर्चा नहीं की।

कई एनजीओ विदेशी शक्तियों के इशारों पर अर्थव्यवस्था का अहित करने में लगे हैं

नि:संदेह देश में कुछ स्वयंसेवी संगठन ऐसे हैं, जो सीमित संसाधनों के बावजूद देश के विकास में अहम भूमिका निभा रहे हैं, किंतु कई एनजीओ ऐसे भी हैं, जो पर्यावरण, सामाजिक न्याय, गरीबी, शिक्षा, महिला सशक्तीकरण, सहिष्णुता, मानवाधिकार और पशु अधिकारों की आड़ में न केवल भारत विरोधी, अपितु हमारी बहुलतावादी परंपराओं पर हमला कर रहे हैं। विदेशी शक्तियों के इशारों पर वे विकास कार्यों में रोड़े अटकाकर अर्थव्यवस्था का भी अहित करने में लगे हैं।

तमाम भारतीय एनजीओ को अमेरिकी-यूरोपीय ईसाई संगठनों से सेवा’ के नाम पर चंदा मिलता है

तमाम भारतीय एनजीओ को विभिन्न अमेरिकी-यूरोपीय ईसाई संगठनों (चर्च सहित) से ‘सेवा’ के नाम पर चंदा मिलता है। सच तो यह है कि इन संगठनों के लिए ‘सेवा’ का एकमात्र अर्थ मतांतरण है। चूंकि अमेरिका और यूरोपीय देशों का मूल चरित्र सदियों पहले ईसाई बहुल हो चुका है तो वहां ‘सेवा’ का कोई अर्थ नहीं है। अब भारतीय समाज के जो लोग उन्हीं संगठनों की ‘विशेष उद्देश्य से प्रेरित’ रिपोर्ट में लिखे एक-एक शब्द को ब्रह्मवाक्य मान रहे हैं, वे वास्तव में ‘बौद्धिक दासता’ से जकड़े हुए हैं। ऐसे लोग हीनभावना से ग्रस्त हैं।

चर्च प्रेरित एनजीओ की भुखमरी रिपोर्ट

क्या चर्च प्रेरित एनजीओ की भुखमरी संबंधी रिपोर्ट और भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त एनजीओ के खिलाफ मोदी सरकार की कार्रवाई में कोई संबंध है? सरकार ने करीब 16,500 एनजीओ का पंजीकरण रद किया है। इसके बाद विदेशी चंदे में करीब 40 फीसद कमी आई। इस कार्रवाई की गंभीरता का अंदाजा इससे भी लगा सकते हैं कि 2016-19 के बीच विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) के तहत पंजीकृत एनजीओ को 58,000 करोड़ रुपये का विदेशी अनुदान मिला। इन कथित स्वयंसेवी संगठनों का वैश्विक संजाल कितना गहरा है, इसका उत्तर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बाखलेट के वक्तव्य से मिलता है। एफसीआरए संशोधन विधेयक पर बाखलेट कहती हैं, ‘अस्पष्ट रूप से परिभाषित कानून तेजी से मानवाधिकारों की आवाजों को दबाने के लिए उपयोग किए जा रहे हैं।’ इस पर प्रतिक्रिया में भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा, ‘कानून बनाना निश्चित तौर पर एक संप्रभु विशेषाधिकार होता है। उसे तोड़ने वाले को मानवाधिकार के बहाने बख्शा नहीं जा सकता। इस संस्था से अधिक जानकारी वाले दृष्टिकोण की अपेक्षा थी।’

एमनेस्टी पर देश में एफसीआरए उल्लंघन का मामला चल रहा है

अब बाखलेट के भारत विरोधी वक्तव्य का कालक्रम ऐसे समझिए कि उनसे पहले विवादित ब्रिटिश ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ भारत में अपना संचालन रोक चुका है तो ब्रिटिश चर्च द्वारा संरक्षित धर्मार्थ संस्था ऑक्सफैम ने एफसीआरए संशोधनों पर प्रतिकूल प्रतिक्रिया दी है। एमनेस्टी पर जहां देश में गंभीर एफसीआरए उल्लंघन का मामला चल रहा है तो ऑक्सफैम की सच्चाई उसके क्रियाकलापों में छिपी है। उसके पदाधिकारी और कर्मचारी 2010 में भूकंप का शिकार हुए कैरेबियाई देश हैती में चंदे के पैसे अपनी वासना शांत करने पर लुटा चुके हैं। मानवता पर कलंक लगाते इस घटनाक्रम की ब्रिटिश संसद भी निंदा कर चुकी है। अब दोहरे चरित्र की पराकाष्ठा देखिए।

संगठनों के मुखौटे अलग-अलग हो सकते हैं, किंतु एजेंडा एक है

जिन भारतीय पासपोर्टधारकों ने ब्रिटिश गैर-सरकारी संगठन ‘थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन’ द्वारा 2018 में मात्र 548 लोगों से फोन पर बात करके तैयार रिपोर्ट पर तुरंत विश्वास कर लिया था, जिसमें भारत को महिलाओं के लिए विश्व का सबसे खतरनाक देश घोषित कर दिया था, उनका मुंह ऑक्सफैम की करतूत पर आज तक नहीं खुला। इसके लिए वह चिंतन जिम्मेदार है, जो मानसिक रूप से गुलाम होने के कारण जाने-अनजाने में उन शक्तियों का सहयोगी हो जाता है, जिनका एकमात्र लक्ष्य भारत को खंडित करना है। बहुलतावाद और सनातन संस्कृति से घृणा करने वाले इन संगठनों के मुखौटे अलग-अलग हो सकते हैं, किंतु एजेंडा एक है। इस पृष्ठभूमि में पूर्वाग्रह से ग्रसित ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ जैसी रिपोर्ट को अकाट्य मानने वाले क्या अपने गिरेबान में झाकेंगे?

( लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

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