शिक्षा पर और अधिक खर्च आवश्यक, दूसरे देशों की तुलना में हम शिक्षा पर अपेक्षित बजट खर्च नहीं कर रहे

उच्च शिक्षा तक सभी की पहुंच वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता और मानकों में सुधार के लिए अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। भारत ने 2035 तक 50 प्रतिशत सकल नामांकन अनुपात का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। इसके लिए जरूरी है कि उच्च शिक्षा में फेलोशिप बढ़ाई जाएं छात्रों को सस्ती दर पर एजुकेशन लोन की व्यवस्था की जाए और कौशल आधारित पाठ्यक्रमों में सब्सिडी दी जाए।

By Jagran NewsEdited By: Narender Sanwariya Publish:Thu, 18 Apr 2024 12:26 AM (IST) Updated:Thu, 18 Apr 2024 12:26 AM (IST)
शिक्षा पर और अधिक खर्च आवश्यक, दूसरे देशों की तुलना में हम शिक्षा पर अपेक्षित बजट खर्च नहीं कर रहे
शिक्षा पर और अधिक खर्च आवश्यक (File Photo)

डॉ ब्रजेश कुमार तिवारी। लंदन की उच्च शिक्षा विश्लेषण कंपनी क्वाक्वेरेली साइमंड्स यानी क्यूएस की ओर से जारी ताजा विश्व रैंकिंग में 59 भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों ने जगह बनाई है। दुनिया के उत्कृष्ट संस्थानों में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू को 20वां स्थान दिया गया है। इसे देश का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय आंका गया है। वहीं आइआइएम-अहमदाबाद व्यवसाय एवं प्रबंधन अध्ययन की श्रेणी में विश्व के शीर्ष 25 संस्थानों में से एक है। इसी तरह आइआइटी-मद्रास, दिल्ली और मुंबई ने भी दुनिया के 50 शीर्ष संस्थानों में जगह बनाई है।

जेएनयू लंबे समय से देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से रहा है। 1969 में स्थापना के वर्ष से ही यह सदैव उत्कृष्टता, रचनात्मकता और बौद्धिकता की अनवरत तलाश में रहा है। विचारों की दुनिया में जेएनयू का विशेष स्थान है। इसमें भारत और विश्व स्तर पर क्या हो रहा है, इसके बारे में खुलकर विचार रखे जाते हैं। जेएनयू ने गरीब परिवारों से आने वाले छात्रों के लिए भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करना संभव बनाया है।

इसीलिए इसे देश का सबसे सस्ता विश्वविद्यालय भी कहा जाता है। भारतीय ज्ञान परंपरा को बढ़ावा देने के लिए इसने हाल में भारतीय भाषा केंद्र की शुरुआत की है। जेएनयू में सामाजिक विज्ञान, आधुनिक विज्ञान के साथ ही बदलते समय में आयुर्वेद एवं परंपरागत संगीत, आधुनिक चिकित्सा, मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी शुरू की जा चुकी है। मंत्री, नोबेल विजेता और चर्चित नौकरशाह देने का श्रेय भी जेएनयू को है।

क्यूएस रैंकिंग के अनुसार भारत दुनिया में सबसे तेजी से शोध केंद्रों का विस्तार करने वाले देशों में से भी एक है। वर्ष 2017 से 2022 के बीच देश में शोध कार्यों में 54 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है, जो न केवल वैश्विक औसत के दोगुने से अधिक है, बल्कि पश्चिमी समकक्षों से भी काफी आगे है। इसके चलते भारत अब शोध क्षेत्र में दुनिया का चौथा सबसे बड़ा देश बन गया है और इस अवधि में 13 लाख अकादमिक शोध पत्र तैयार किए गए हैं। मौजूदा गति को देखते हुए भारत शोध उत्पादकता में ब्रिटेन को पीछे छोड़ने के करीब है। यह भारतीय शिक्षा जगत के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

साथ ही वैश्विक शिक्षा परिदृश्य में भारत की बढ़ती प्रमुखता को भी दर्शाता है। आज इजरायल ने भी यह दिखा दिया है कि एक छोटा राष्ट्र होने के बावजूद अनुसंधान एवं विकास में निवेश को प्राथमिकता देकर सतत विकास हासिल किया जा सकता है। एक मजबूत अर्थव्यवस्था बनने के लिए देश के पास दीर्घकालिक और सार्थक स्तर पर ज्ञान प्रणाली की आवश्यकता होती है, जो उसे शक्ति प्रदान करती है। देश में जितनी बौद्धिक संपदा सृजित होगी, उतने ही बड़े पैमाने पर रोजगार भी सृजित होंगे। जो राष्ट्र अनुसंधान एवं विकास में निवेश करने में विफल रहता है, वह आर्थिक अस्थिरता में फंसता रहता है।

अनुसंधान एवं विकास ही बेहतर जीवन के द्वार खोलता है। इसे देखते हुए भारत में पिछले साल राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन का गठन हुआ था। देश में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक भारतीय सभ्यता एवं भारतीय ज्ञान परंपरा ने प्राचीन समय से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को एक मजबूत आधार दिया है। आर्यभट्ट और श्रीनिवासन रामानुजन जैसे प्रतिभाशाली लोगों ने पूरे संसार को एक नई राह दिखाई। सवाल यह उठता है कि शोध की इतनी योग्यता रखने वाला देश इतने कम घरेलू नवप्रवर्तन क्यों पैदा करता है? शायद इसका उत्तर यही है कि हमने अनुसंधान एवं विकास पर उतना ध्यान नहीं दिया, जितना अन्य देशों ने दिया।

जहां चीन, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों ने शिक्षा पर बहुत अधिक खर्च किया, वहीं हम आज तक उचित बजट की बाट जोह रहे हैं। अनुसंधान एवं विकास पर भारत का खर्च सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 0.6 प्रतिशत है और विश्व औसत 1.8 प्रतिशत से काफी नीचे है। इसमें निजी क्षेत्र का योगदान उनके सकल व्यय का 40 प्रतिशत से कम है, जबकि उन्नत देशों में यह आंकड़ा 75 प्रतिशत से अधिक है। यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार इससे उबरने के लिए नवीन पहल कर रही है।

डिजिटल विश्वविद्यालय और गति शक्ति विश्वविद्यालय ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनने जा रहे हैं। इन नए प्रयासों के चलते ही विश्व बौद्धिक संपदा संगठन द्वारा जारी ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स, 2023 में भारत 132 देशों की सूची में 40वें स्थान पर आया है। 2015 में यह 81वें स्थान पर था, जो एक बड़ा सुधार है। इन उपलब्धियों के साथ ही देश की शिक्षा के समक्ष कुछ अन्य चुनौतियां भी हैं, जिनका समाधान किया जाना समय की मांग है।

उच्च शिक्षा तक सभी की पहुंच, वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता और मानकों में सुधार के लिए अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। भारत ने 2035 तक 50 प्रतिशत सकल नामांकन अनुपात का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। इसके लिए जरूरी है कि उच्च शिक्षा में फेलोशिप बढ़ाई जाएं, छात्रों को सस्ती दर पर एजुकेशन लोन की व्यवस्था की जाए और कौशल आधारित पाठ्यक्रमों में सब्सिडी दी जाए, जिससे यह विश्व रैंकिंग लगातार बढ़ती रहे।

इसके अलावा रेवड़ी के दायरे में आने वाली विभिन्न योजनाओं का पैसा भी शिक्षा क्षेत्र में लगाना समय की मांग है। भारत के पास नवाचार का वैश्विक चालक बनने के लिए आवश्यक सभी सामग्रियां, एक मजबूत बाजार क्षमता, असाधारण प्रतिभाएं और मितव्ययी नवाचार की एक संपन्न संस्कृति है। जरूरत है तो उचित बजट एवं प्रतिभाओं के सही मार्गदर्शन की। यह काम शिक्षा पर अपेक्षित बजट खर्च करके ही किया जा सकता है।

(लेखक जेएनयू के अटल स्कूल आफ मैनेजमेंट में प्रोफेसर हैं)

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