मी टू मामले में कानून सहारा तो दे सकता है, मगर किसी की सोच नहीं बदल सकता

निर्भया के बाद नए दुष्कर्म कानून के बारे में कहा गया था कि इससे लोग डरेंगे, लेकिन हुआ उल्टा ही। कानून सहारा तो दे सकता है, मगर किसी की सोच नहीं बदल सकता

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 10 Oct 2018 11:52 PM (IST) Updated:Thu, 11 Oct 2018 05:00 AM (IST)
मी टू मामले में कानून सहारा तो दे सकता है, मगर किसी की सोच नहीं बदल सकता
मी टू मामले में कानून सहारा तो दे सकता है, मगर किसी की सोच नहीं बदल सकता

[ क्षमा शर्मा ]: इन दिनों हमारा मीडिया और खासकर अंग्रेजी मीडिया मी टू यानी यौन शोषण के मामलों को लेकर खासा उत्साहित है। बीते कुछ दिनों से जारी इस बहस को मी टू स्टॉर्म कहा जा रहा है। पुरुष वर्चस्ववादी माने जाने वाले फिल्म उद्योग के बारे में कहा जाता है कि वहां लड़कियों को काम के बहाने तरह-तरह से शोषित किया जाता है। अब तक वे बोल नहीं पाती थीं। ऋचा चड्ढा ने पिछले साल मी टू के बारे में कहा था कि अगर कोई मेरे काम और पेंशन की गारंटी ले तो मैं इस पर बोलने को तैयार हूं। स्वरा भास्कर ने कहा था कि लोग अक्सर इशारों में पूछते हैं कि मैं रोल के लिए क्या-कर सकती हूं और मैं साफ कह देती हूं कि मैं सेक्स नहीं कर सकती। हालांकि एक तबका यह भी कहता है कि फिल्म उद्योग में काम करने की यह प्राथमिक शर्त है कि महिलाएं मर्दों को कितने सेक्सुअल फेवर्स दे सकती हैं। परजानिया कुरैशी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि अगर मैं सेक्स के लिए मना करूंगी तो कौन मेरे पास आएगा?

इसी तरह वर्षों पहले दक्षिण भारत की अभिनेत्री सानिया ने एक साक्षात्कार में कहा कहा था कि मैं हर पुरुष के पास जाने को तैयार हूं। दक्षिण की ही एक और मशहूर अभिनेत्री भारती ने कहा था कि जिन सितारों ने मुझसे सेक्सुअल फेवर मांगे उन्हें मैंने कभी मना नहीं किया। निर्देशक राजकंवर ने कहा था कि जब लड़कियां स्क्रीन टेस्ट आदि में पास हो जाती हैं तो उनसे देहदान की मांग की जाती है। यानी अगर फिल्मों में काम करना है तो सेक्सुअल फेवर एक अनिवार्य शर्त की तरह है, लेकिन अब मीडिया का एक हिस्सा इसे कुछ इस तरह पेश कर रहा है जैसे उसे पहली बार इन बातों के बारे में पता चल रहा है।

रामगोपाल वर्मा अरसा पहले ही यह स्वीकारोक्ति कर चुके हैं उन्हें किसी से इसके लिए कहने में कोई शर्म नहीं आती। फिल्मी दुनिया की बहुत सी सच्चाइयां हैं जिन्हें शोभा डे ने अपनी किताबों में लिखा है। खुशवंत सिंह ने एक पुस्तक में आइएस जौहर के बारे में लिखा है कि वह एक महिला के पास लगातार जाते थे। एक दिन वह महिला घर में नहीं थी तो उसकी नौकरानी को अपना शिकार बनाया। जिस महिला के पास जौहर जाते थे, बाद में वह एक बड़ी स्टार बनी।

कभी सलमान खान ने बताया था कि वह अपने साथ काम करने वाली अभिनेत्रियों के साथ क्या-क्या कर चुके हैं? अभी तक औरतें तमाम कारणों से इन बातों को छिपाती रही हैं, लेकिन अब यौन उत्पीड़न और दुष्कर्म कानून ने उन्हें इतनी ताकत दी है कि वे बोल रही हैं। हालांकि इन कानूनों के दुरुपयोग की खबरें भी अक्सर आती रहती हैं। अपने प्रति हुए अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना अच्छी बात है। और जिसे तूफान कहा जा रहा है वह अब रुकने वाला भी नहीं है।

यह अच्छा है कि फिल्म जगत के साथ अन्य क्षेत्रों के भी वे लोग बेनकाब हो रहे हैैं जो यौन शोषण करते रहे हैैं। शोभा डे ने इस सिलसिले को बोतल से बाहर आया जिन्न कहा है, लेकिन जिन्न जब बाहर आता है तो जो कुछ राह में पड़ता है उसे तोड़ता-फोड़ता है। वह अच्छा-बुरा, अपराधी, निरपराध नहीं देखता। इसीलिए इस बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए कि जिसने औरतों के प्रति अपराध किया उसे ही सजा मिले।

इसी तरह यह तूफान सिर्फ अग्र्रेजीदां और ताकतवर औरतों का ही साथी न बने। गरीब औरतों को भी न्याय पाने की आशा जगाए, क्योंकि वे तो मीडिया की नजरों से बाहर ही रहती हैं। इसी के साथ जिन पुरुषों ने कुछ नहीं किया है, उन्हें मात्र शक और किसी के कहने भर से न सताया जाए। यह भी ध्यान रहे कि मीडिया ट्रायल से किसी को बदनाम तो किया जा सकता है, मगर न्याय नहीं दिलाया जा सकता। मीडिया का एक हिस्सा और खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऐसा ही करता है। अगर सेक्स से जुड़ा मामला हो तो वह उसे लगातार दिखाता है। इससे जहां किसी बात के लिए समर्थन पैदा होता है, वहीं उसकी प्रतिक्रिया में विरोध भी शुरू हो जाता है। जैसा कि हम मी टू के संदर्भ में देख भी रहे हैं।

कुछ दिन पहले जब सरकार ने औरतों के लिए छह महीने का मातृत्व अवकाश घोषित किया था तो बहुत सी छोटी-बड़ी कंपनियों ने औरतों को काम देना बंद कर दिया। उनका कहना था कि औरतों को नौकरी देकर उन्हें छह महीने वेतन समेत छुट्टी दो। फिर उनकी जगह किसी और को रखो, छह महीने उसे भी पैसे दो तो कंपनी दोहरा नुकसान क्यों झेले? इसके अलावा अगर किसी कंपनी का नाम यौन उत्पीड़न या दुष्कर्म के मामलों में बार-बार सामने आता है तो इससे उसे भारी नुकसान होता है। किसी भी कंपनी को एक ब्रांड बनने में वर्षों लग जाते हैं, लेकिन बदनामी से वह ब्रांड पलभर में बदनाम भी हो जाता है। ऐसे में कहीं मीटू के मामले में औरतों को रोजगार मिलना तो नहीं बंद हो जाएगा, क्योंकि उनके लिए नौकरी में कोई आरक्षण तो है नहीं।

ऐसे में असंगठित क्षेत्र का क्या होगा, क्योंकि हाल में एक स्टोर के मालिक ने कहा कि वह अपने यहां किसी लड़की को नहीं रखेंगे। अगर लड़की का काम ठीक नहीं हुआ तो उसे निकालने की सूरत में अगर उसने बेजा आरोप लगा दिए तो हम बेवजह मुश्किल में फंस जाएंगे। हमारे पास तो इतने पैसे भी नहीं कि कोर्ट-कचहरी कर सकें, इसलिए उन्हें रखें ही क्यों? संगठित क्षेत्रों के मुकाबले असंगठित क्षेत्रों में भारी संख्या में औरतें काम करती हैं। जो रोज का कमाती-खाती हैं। कहीं इस आंदोलन के कारण उनकी रोजी-रोटी पर न बन आए, क्योंकि किसी भी आंदोलन की चपेट में गरीब ही सबसे पहले आता है।

पढ़ी-लिखी सशक्त कहलाने वाली औरतें तो इससे बच जाएंगी, मगर गरीब औरतों का क्या होगा? क्या उन्हें किसी यौन उत्पीड़न का शिकार नहीं होना पड़ता? उनकी तो कहीं सुनवाई भी नहीं होती। यह देखा गया है कि जब-जब ऐसे मसले आते हैं तो अक्सर नया कानून बनाने की मांग की जाती है, लेकिन कानून बन भी जाए तो उससे क्या बदलता है। कानून सहारा तो दे सकता है, मगर किसी की सोच नहीं बदल सकता। निर्भया के बाद नए दुष्कर्म कानून के बारे में कहा गया था कि इससे लोग डरेंगे, लेकिन हुआ उल्टा ही। रोज ही छोटी-बच्चियों से लेकर उम्रदराज महिलाओं तक के साथ ये अपराध हो रहे हैं। इसलिए जरूरी तो सोच को बदलना है।

[ लेखिका साहित्यकार हैं ]

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