सबसे बड़ा चुनाव सुधार

हमें चुनावों से आगे जाना होगा, हमें चुनावों द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक शैली पर काम करने वाली सरकारों से सुशासन और विकास की नई अपेक्षाएं करनी होंगी।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Fri, 17 Jun 2016 12:55 AM (IST) Updated:Fri, 17 Jun 2016 01:34 AM (IST)
सबसे बड़ा चुनाव सुधार

भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहने में हम सभी गौरवान्वित होते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अभी आठ जून को अमेरिकी संसद के संयुक्त अधिवेशन में इसका उल्लेख किया। लेकिन क्या बड़ा लोकतंत्र होना ही गौरव की बात है? क्या हमें एक अच्छा लोकतंत्र होने का प्रयास नहीं करना चाहिए? ज्यादातर लोग इसी बात से खुश हो जाते हैं कि स्वतंत्रता के बाद से हमारे यहां बराबर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव होते रहे हैं। चुनाव-आयोग, केंद्रीय सरकार, राज्य-सरकारें, प्रशासन और जनता सभी को इस पर गौरव होना स्वाभाविक है। लेकिन हमें यह समझना होगा कि चुनाव लोकतंत्र की धड़कन तो है, उसके जीवंत होने का प्रमाण तो है, पर उसके स्वस्थ, संपन्न और गुणवत्तापूर्ण होने का प्रमाण नहीं। चुनाव को लोकतंत्र का पर्याय नहीं कहा जा सकता। हमें चुनावों से आगे जाना होगा, हमें चुनावों द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक शैली पर काम करने वाली सरकारों से सुशासन और विकास की नई अपेक्षाएं करनी होंगी। हमें ऐसी सरकारों से यह दरकार होगी कि वे देश में एक नई राजनीतिक-संस्कृति के माध्यम से दक्ष, प्रभावी और मितव्ययी प्रशासन स्थापित करें जो पारदर्शी, स्वच्छ एवं संवेदनशील हो।

इसी संदर्भ में देश में लोकसभा, विधानसभाओं, नगरपालिकाओं और पंचायतों का चुनाव एक साथ करने का सुझाव महत्वपूर्ण हो जाता है। वैसे तो चुनाव-सुधारों की चर्चा प्राय: होती रहती है, लेकिन हाल में संसदीय-समिति ने दिसंबर 2015 में अपने प्रतिवेदन में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की सिफारिश की थी। इस पर विधि-मंत्रालय ने चुनाव आयोग से राय मांगी। आयोग ने मई के प्रथम सप्ताह में इस पर अपनी सहमति दे दी। गौरतलब है कि विगत लोकसभा चुनावों में भाजपा ने भी इसे अपने घोषणापत्र में रखा था और मार्च 2016 में मोदी ने भाजपा की बैठक में देश में सभी चुनावों को एक साथ कराने की हिमायत भी की। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी इस विचार के समर्थक रहे हैं और 28 मई 2010 के अपने ब्लॉग में उन्होंने यह भी लिखा कि कुछ समय पूर्व एक रात्रि भोज के दौरान इस मुद्दे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी भी एक साथ चुनावों के विचार से सहमत दिखे। संविधान लागू होने के बाद चार बार (1951, 1957, 1962, 1967) लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए। लेकिन 1967 में आठ राज्यों-बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मद्रास (तमिलनाडु) और केरल में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनने से संपूर्ण संघीय ढांचे पर कांग्रेस का एकछत्र वर्चस्व खत्म होने की शुरुआत हो गई। गैर-कांग्रेसी सरकारों को भंग करके उन राज्यों में मध्यावधि चुनाव कराए गए। तबसे लेकर आज तक एक साथ चुनावों का चक्र बन नहीं पाया जिससे हर समय देश में कहीं न कहीं चुनाव चलता ही रहता है।

एक साथ चुनाव करने का विचार तो अच्छा है, लेकिन उसमें अनेक बाधाएं हैं जिन्हें दूर करने के बारे में राष्ट्रीय सहमति जरूरी होगी। सबसे बड़ी बाधा संवैधानिक है। संविधान ने हमें लोकतंत्र का संसदीय-मॉडल दिया जिसमें यद्यपि लोकसभा और विधानसभाएं पांच वषो्र्रं के लिए चुनी जाती हैं, लेकिन अनु. 85 (2) ब के अनुसार राष्ट्रपति लोकसभा को और अनु. 174 (2) ब के अंतर्गत राज्यपाल विधानसभा को पांच वर्ष के पूर्व भी भंग कर सकते हैं। अनु. 356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है और विधानसभाओं को आपातकाल की स्थिति में उनके कार्यकाल के पूर्व भी भंग किया जा सकता है। अनु. 352 के तहत युद्ध, वाह्य-आक्रमण और सशस्त्र-विद्रोह की स्थिति में राष्ट्रीय-आपात लगाकर लोकसभा के कार्यकाल को पांच-वर्ष के आगे बढ़ाया भी जा सकता है। इसके अतिरिक्त अनु. 2 के अंतर्गत संसद किसी नए राज्य को भारतीय संघ में शामिल कर सकती है और अनु. 3 द्वारा कोई नया राज्य बना सकती है, जिनके चुनाव अलग से कराने पड़ सकते हैं। यदि नगरपालिकाओं और पंचायतों के चुनाव भी संसद और विधानसभाओं के साथ कराने का सुझाव भी जोड़ दिया जाए तो संविधान के भाग 9 अनु. 243 में भी कई संशोधन करने पड़ेंगे। ऐसे संवैधानिक संशोधनों में आधे राज्यों की सहमति भी आवश्यक होगी।

ज्यादातर यूरोपीय देशों ने संसद के निर्वाचित सदन के स्थायित्व का मॉडल अपनाया है और इंग्लैंड, जहां से हमने अपने संविधान का मॉडल लिया, वहां भी कॉमन सभा का कार्यकाल निश्चित करना सोचा जा रहा है। इस पूरी योजना में संसद द्वारा सरकार (कार्यपालिका) हटाने पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा, बल्कि सरकार (कार्यपालिका) द्वारा संसद और विधानसभाओं को हटाने पर प्रतिबंध लग जाएगा। लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भारत में ऐसा हो पाना संभव नहीं लगता। लेकिन एक साथ चुनाव कराने के फायदे बहुत हैं। एक, पूरे देश में केवल एक ही मतदाता सूची होगी। अभी लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों की अलग-अलग मतदाता सूचियां है। अक्सर मतदाता का नाम एक सूची में होता है, लेकिन दूसरी सूची में नहीं होता, जिससे वह मतदान से वंचित हो जाता है। दो, देश को प्रतिवर्ष चुनाव से राहत मिलेगी और सरकारों व जनता को पांच वर्ष तक अपने-अपने काम पर ध्यान देने का अवसर मिलेगा। तीन, रोज-रोज के चुनावों से विकास कार्य प्रभावित होते हैं। कहीं मॉडल-कोड ऑफ कंडक्ट के कारण विकास रुकता है तो कहीं नौकरशाह चुनावों का बहाना बनाकर विकास कार्यों से बचते हैं।

चार, देश में चुनावों में हिंसा रोकना एक बड़ी चुनौती होती है, जिसमें पुलिस, अर्ध-सैनिक बल और कभी-कभी सेना भी बुलानी पड़ती है। यदि पांच साल के बाद चुनाव हों तो उनको भी बड़ी राहत मिलेगी। पांच, रोज-रोज के चुनावों में सबसे ज्यादा नुकसान स्कूल-कॉलेज के बच्चों का होता है, उनकी पढ़ाई में व्यवधान आता है। प्राइमरी स्कूल के शिक्षक तो अक्सर मतदाता सूची बनाने से लेकर चुनाव में मतगणना तक सभी कार्यों के लिए बाध्य किए जाते हैं, जो देश के भावी-कर्णधारों के साथ एक खिलवाड़ है। और इसके अलावा देश की विविधता के चलते चुनावों में सांप्रदायिक सद्भाव बिगडऩे और जातीय-उन्माद बढऩे की भी संभावना बहुत बढ़ जाती है, जो सरकारों के लिए सिरदर्द और समाज के लिए अभिशाप बन जाती है। यदि वास्तव में संसद, चुनाव आयोग, राजनीतिक दल और जनता इस सुझाव पर संजीदगी से विचार करें तो पूरे देश में सभी संवैधानिक संस्थाओं के चुनाव एक साथ जरूर कराए जा सकते हैं। इससे भारतीय लोकतंत्र न केवल विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाएगा, बल्कि संभवत: वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र बनने की दिशा में एक मजबूत कदम भी बढ़ाएगा।

[ लेखक डॉ. एके वर्मा, सेंटर फॉर द स्टडी आफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं ]

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