खुद को आईने में देखे न्यायपालिका

भारतीय संविधान के मुताबिक उच्चतम न्यायालय को ही संविधान की व्याख्या एवं निर्वचन का अंतिम अधिकार प्राप्त है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 24 Jul 2017 01:44 AM (IST) Updated:Mon, 24 Jul 2017 01:59 AM (IST)
खुद को आईने में देखे न्यायपालिका
खुद को आईने में देखे न्यायपालिका

विजय कुमार चौधरी

20 जुलाई, 2017 को समाचार-पत्रों में दो खबरें प्रमुखता से प्रकाशित हुईं। पहली खबर संसद की कार्यवाही से संबंधित थी जिसमें केंद्रीय कानून राज्य मंत्री पीपी चौधरी ने संसद में एक प्रश्न के उत्तर में सूचना दी कि उच्चतर न्यायालयों की कार्यवाही की ऑडियो एवं वीडियो रिकॉर्डिंग (श्रव्य एवं दृश्य अभिलेकन) करवाने के विषय पर उच्चतम न्यायालय सहमत नहीं है। राज्य मंत्री ने जनवरी 2014 से लेकर अब तक इस संबंध में किए गए प्रयासों से संसद को अवगत कराया। दूसरी प्रमुख खबर उच्चतम न्यायालय की कार्यवाही से जुड़ी थी जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में उच्चतम न्यायालय के नौ सदस्यीय पीठ ने निजता के अधिकार संबंधी मामले की सुनवाई करते हुए टिप्पणी दी कि निजता का अधिकार अक्षुण्ण और असीम नहीं हो सकता है। आधार कार्ड के लिए नागरिकों द्वारा प्रदान की जाने वाली सूचनाएं सार्वजनिक हो जाने से निजता के अधिकार के हनन की संभावना संबंधी मामले पर यह पीठ सुनवाई कर रही है। टिप्पणी के मुताबिक परिस्थिति विशेष में सरकार लोकहित में आवश्यकतानुसार इस अधिकार में दखल दे सकती है।
इन दोनों समाचारों पर आज की परिस्थिति के संबंध में विचार करना लाजिमी है। भारतीय संविधान के मुताबिक उच्चतम न्यायालय को ही संविधान की व्याख्या एवं निर्वचन का अंतिम अधिकार प्राप्त है। संविधान की सुरक्षा, संरक्षा एवं परिपोषण की अपेक्षा भी न्यायपालिका से की गई है। संविधान निर्माताओं ने इसी मंशा से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को मजबूती के साथ भारतीय शासन प्रणाली में स्थापित किया है। इसके साथ संविधान के प्रावधानों से असंगत किसी भी नियम अथवा कानून को निरस्त करने का अधिकार भी उच्चतम न्यायालय को प्राप्त है। भारतीय संविधान में शासकीय मामले में सरकार के सभी अंगों द्वारा जवाबदेही एवं पारदर्शिता के सिद्धांत के अनुरूप कार्य करने की अपेक्षा की गई है। इसके अलावा आजकल अंतरराष्ट्रीय मानकों पर पारदर्शिता एवं जवाबदेही किसी भी अच्छी शासन प्रणाली की अनिवार्यता बन चुकी है। सरकारों या संगठनों से अधिक भारतीय न्यायपालिका ने ही बार-बार इन दोनों विषयों के प्रति संवेदनशीलता दिखाई है। इसने पारदर्शिता एवं जवाबदेही के संबंध में सरकार के विभिन्न अंगों को समय-समय पर आवश्यक एवं स्पष्ट निर्देश दिए हैं, जिसके दूरगामी सकारात्मक परिणाम आए हैं।
फिर न्यायपालिका द्वारा खुद के संबंध में भी जवाबदेही एवं पारदर्शिता से संबंधित सिद्धांतों को लागू करना ही वांछनीय है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्तियों से संबंधित आयोग (नेशनल जुडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन) बनाम कोलेजियम प्रणाली विवाद में यह सामने आया कि उच्चतम न्यायालय का कोलेजियम ही जजों की नियुक्ति में मुख्य भूमिका निभाएगा। पूरी दुनिया से अलग यह भारतीय न्यायप्रणाली की अनोखी व्यवस्था है कि न्यायाधीश ही न्यायाधीश की नियुक्ति करते हैं। संवैधानिक प्रावधान की अगर बात करें तो अनुच्छेद 124 एवं 217 के अनुसार भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के उपरांत राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की जानी है। ‘परामर्श उपरांत’ की अवधारणा को अन्य मामलों में न्यायपालिका ने व्याख्या करते हुए कहा है कि इसमें दिया हुआ परामर्श बाध्यकारी नहीं हो सकता है, परंतु उक्त अनुच्छेद 124 एवं 217 का निर्वचन करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कोलेजियम द्वारा की गई अनुशंसा को बाध्यकारी बना दिया है।
पुन: कोलेजियम की चयन प्रक्रिया की कार्यवाही को ‘सूचना के अधिकार’ के तहत सार्वजनिक करने की जद से बाहर रखने की व्यवस्था भी उच्चतम न्यायालय ने दी है। कार्यवाही यानी विचार-विमर्श को सार्वजनिक करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। वर्ष 2009 से सूचना के अधिकार से जुड़े कार्यकर्ता एवं संगठन लगातार इस विषय को उठाते रहे हैं। सूचना के अधिकार से जुड़े मामले में लोकपाल की भूमिका निभाने वाले मुख्य सूचना आयुक्त ने भी कोलेजियम की कार्यवाही को सार्वजनिक करने के पक्ष में अपना निर्णय दिया है। बाद में उच्चतम न्यायालय ने स्वयं अपने यहां सुनवाई कर इस मामले को अपने अधीन कर लिया। उच्चतम न्यायालय के प्रशासनिक प्रभाग ने मामला दायर किया और इसके न्यायिक प्रभाग ने सुनवाई की। इन दोनों प्रभागों के अंतर को भी उच्चतम न्यायालय ने भी बखूबी परिभाषित करते हुए इस मामले को बिना उच्च न्यायालय के संज्ञान में लाए सीधे इसे अपने अधीन कर लिया है। इधर कोलेजियम के निर्देशानुसार तैयार किए जा रहे मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर में भी इससे संबंधित कोई प्रावधान नहीं करने की बात सामने आ रही है।
इसी प्रकार लगभग एक दशक से उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों द्वारा अपनी संपत्ति का ब्योरा देने की नीति के संबंध में भी ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है। इससे संबंधित मामले में वर्ष 2010 में दिल्ली उच्च न्यायालय के तीन सदस्यीय पीठ ने उच्चतर न्यायपालिका के माननीय न्यायाधीशों द्वारा अपनी परिसंपत्तियों का विवरण देने के पक्ष में अपना फैसला दिया। हालांकि बाद में उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में न्यायाधीशों द्वारा स्वैच्छिक तौर पर अपनी संपत्ति की घोषणा करने की व्यवस्था देकर इस मामले का पटाक्षेप कर दिया। ज्ञातव्य है कि बिहार जैसे प्रदेश में भी विधायिका एवं कार्यपालिका के सभी सदस्यों द्वारा अपनी संपत्ति की वार्षिक घोषणा करने का स्पष्ट प्रावधान कर दिया गया है। इस परिप्रेक्ष्य में न्यायपालिका के सदस्यों द्वारा भी अपनी परिसंपत्ति की घोषणा करना उनकी श्रेष्ठता को ही परिपुष्ट करेगा। वर्तमान समय में किसी भी शासन प्रणाली अथवा संस्था की कार्यप्रणाली के लिए पारदर्शिता एवं जवाबदेही का सिद्धांत अपरिहार्य बन चुका है। भारतीय शासन प्रणाली में विधायिका एवं कार्यपालिका के क्रियाकलाप को मुकम्मल तौर पर पारदर्शी एवं जवाबदेह बनाने के लिए देश की उच्चतर न्यायपालिका ने ही अनेक सराहनीय एवं ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं जिससे संवैधानिक प्रावधानों एवं मूल्यों की रक्षा हुई है। कई ऐसे अवसर आए हैं कि अगर न्यायपालिका हस्तक्षेप नहीं करती तो शासन-तंत्र से पारदर्शिता एवं जवाबदेही के सिद्धांत का लोप हो गया होता। इन सबके परिप्रेक्ष्य में न्यायपालिका द्वारा अपनी कार्यप्रणाली को भी इसी परिधि में रखना संवैधानिक मूल्यों एवं मर्यादाओं के अनुरूप होता। आखिर पारदर्शिता एवं जवाबदेही के सिद्धांत को मजबूती से लागू करने से विश्वसनीयता ही बढ़ती है। इस मामले में तो न्यायपालिका को ही आत्मनियामक की भूमिका निभानी होगी।
[ लेखक बिहार विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]

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