JNU Students Protest: जानिए आखिर क्यों देश का यह नामीगिरामी विश्वविद्यालय अपनी गरिमा खोता जा रहा

JNU Students Protest छात्रों का यह आंदोलन भले ही कुछ घंटों तक बेहद उग्र बना रहा लेकिन आम आदमी या जनसामान्य की ओर से इसे किसी तरह का समर्थन मिलता हुआ नहीं प्रतीत हुआ।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Wed, 20 Nov 2019 12:56 PM (IST) Updated:Thu, 21 Nov 2019 08:43 AM (IST)
JNU Students Protest: जानिए आखिर क्यों देश का यह नामीगिरामी विश्वविद्यालय अपनी गरिमा खोता जा रहा
JNU Students Protest: जानिए आखिर क्यों देश का यह नामीगिरामी विश्वविद्यालय अपनी गरिमा खोता जा रहा

[उमेश चतुर्वेदी]। JNU Students Protest: फीस बढ़ोतरी के मुद्दे पर आक्रामक हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलन से देश के एक वर्ग ने बड़ी उम्मीदें पाल रखी हैं। लगातार दो आम चुनावों में जिन राजनीतिक धाराओं का जनाधार निरंतर कम हुआ है, उन्हें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलन से आस हो गई है। उन राजनीतिक धाराओं को लगता है कि इस आंदोलन की आग वर्ष 1974 के गुजरात छात्र आंदोलन या फिर 1980 के दशक के असम के छात्र आंदोलन की तरह देश भर में फैल जाएगी, जो भारतीय राजनीति के बदलाव का वाहक बनेगी।

चाहे आंदोलन छोटा हो या बड़ा, लोकतांत्रिक समाज में उनसे परिवर्तन की लहर देखने की आदत विकसित हो गई है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि सोमवार यानी 18 नवंबर को संसद सत्र की शुरुआत के दिन जिस तरह राजधानी दिल्ली छात्र आंदोलन की चपेट में रही, क्या वह आंदोलन भी देश में राजनीतिक बदलाव का वाहक बनेगा? सोशल मीडिया पर चल रही बहसों और सूचनाओं की जो आक्रामक बाढ़ है, वह भी कुछ ऐसा ही अहसास दे रही है।

आंदोलन की सफलता जनभरोसा पर टिकी होती है

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र आंदोलन से चाहे जितनी भी उम्मीदें पाली गई हों, उनमें से एकाध अपवादों को छोड़ दें तो यह आंदोलन परसेप्शन यानी दृष्टिबोध खो चुका है। इस आंदोलन को लेकर जनसहानुभूति नहीं है। इस आंदोलन को लेकर लोगों की सोच कुछ अलहदा ही है। इस आंदोलन को लेकर आम लोगों के बीच कोई स्पंदन नहीं है। लोकतांत्रिक समाज में किसी भी आंदोलन की सफलता उसके प्रति जनभरोसा पर टिकी होती है। लेकिन यह आंदोलन लोगों के बीच अपने प्रति कोई भरोसा हासिल ही नहीं कर पाया है। अगर इसे आंदोलन के नजरिये से देखें तो इस आंदोलन का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर क्या वजह रही कि कथित फीस बढ़ोतरी को वापस लेने की मांग के बावजूद यह आंदोलन लोगों की सहानुभूति हासिल नहीं कर पाया है? इस पर विचार करने से पहले अतीत के कुछ छात्र आंदोलनों की चर्चा की जानी चाहिए।

व्यापक जनसरोकार की चिंताएं

जब भी दुनिया के किसी कोने में छात्र आंदोलन होता है, वर्ष 1789 के फ्रांस के छात्र आंदोलन की चर्चा जरूर होती है, जिसने फ्रांस में राजनीतिक बदलाव की भूमिका निभाई थी। मई 1968 का फ्रांस का छात्र आंदोलन भी कुछ ऐसा ही था, जब देश का मजदूर तबका और छात्र एक हो गए थे। दोनों ही आंदोलनों के मूल में फीस की बढ़ोतरी से ज्यादा व्यापक जनसरोकार की चिंताएं थीं। वर्ष 1968 के फ्रांस के आंदोलन के पीछे मजदूर तबके के बीच दुनिया की अर्थनीति में आ रहे बदलावों से खदबदा रही सोच थी। इसी बीच फ्रांस में पाठ्यक्रम में बदलाव लाने की कोशिश हुई। इसके विरोध में सबसे पहले छात्र सड़कों पर उतरे, उसके बाद मजदूरों ने उन्हें साथ दिया और देखते ही देखते दो लाख लोग पेरिस की सड़कों पर उतर आए थे।

इसी तरह से 1789 की छात्र क्रांति के पीछे तत्कालीन राजा की निरंकुश शासन व्यवस्था थी जिसके प्रतिकार के लिए पूरा फ्रांसीसी समाज छटपटा रहा था। इसे अभिव्यक्ति छात्रों के आंदोलन ने दी और देखते ही देखते व्यापक जनसरोकार से जुड़ा वह आंदोलन फ्रांस की क्रांति का प्रतीक बन गया। इसके बाद पूरी जनता छात्रों के समर्थन में सड़कों पर उतर आई। इसके बाद का इतिहास सर्वविदित है। फ्रांस में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था और संवैधानिक सुधारों की राह प्रशस्त हुई।

बलिया से शुरू हुई बगावत

भारत में छात्र आंदोलन की बात करें तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में बलिया नाम का जिला है। इस जिले के नाम वर्ष 1942 में ही आजादी हासिल करने का तमगा हासिल है। करीब हफ्तेभर की उस आजादी की पटकथा छात्रों ने ही लिखी थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि इस आंदोलन को चरम पर पहुंचाने में छात्रों की पहल ने बड़ी भूमिका निभाई थी। मुंबई में गांधी के ‘करो या मरो’ का आह्वान और ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा देने के बाद बौखलाई अंग्रेज सरकार ने कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था। इसकी खबर जब बलिया पहुंची तो उन दिनों छात्र नेता रहे तारकेश्वर पांडेय के नेतृत्व में 11 अगस्त को व्यापक हड़ताल बुलाई गई। छात्रों की इस हड़ताल को व्यापक समर्थन मिला था। इधर इस हड़ताल को खत्म कराने के लिए बलिया के तत्कालीन एसडीएम नेदरसोल ने लोगों पर जगह-जगह लाठीचार्ज किया था।

लेकिन आंदोलन आगे लगातार बढ़ता रहा। हालांकि तब तक जनता अत्याचार सहती रही। इसी दौरान 18 अगस्त को जिले के पूर्वी छोर पर स्थित बैरिया थाने पर तिरंगा फहराते वक्त कई नाबालिग छात्रों को पुलिस की गोलियों ने छलनी कर दिया, तो इस घटना के बाद बगावत हो गई। उसके बाद जो हुआ, वह इतिहास की पुस्तकों में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो चुका है। छात्रों की शहादत को बलिया पचा नहीं पाया और उससे उठे शोलों ने अंग्रेजी शासन को ध्वस्त कर दिया। उस आंदोलन को लोगों का समर्थन इसलिए हासिल था, क्योंकि वे छात्र जनता से जुटे थे। उनका व्यापक जनसमुदाय से सीधा नाता था।

आंदोलन को धार देने में बड़ी भूमिका

वर्ष 1974 के छात्र आंदोलन की जो आग फैली, उसकी आंच में 1977 में इंदिरा गांधी की सरकार झुलस गई। आजाद भारत के इतिहास में कांग्रेस को सत्ता से हटाने के आंदोलन का आधार वह छात्र आंदोलन ही था। बेशक गुजरात में यह आंदोलन मेस में खाने की गड़बड़ी के विरोध में शुरू हुआ था। लेकिन बिहार आते-आते यह आंदोलन व्यापक जनभावनाओं का प्रतीक बन चुका था। इंदिरा सरकार की तानाशाही, बाढ़ और सुखाड़ से जूझते बिहार की बिलबिला रही जनता का दर्द भी इस आंदोलन का आधार बन गया। भ्रष्टाचार की कहानियों ने इस आंदोलन को धार देने में बड़ी भूमिका निभाई, क्योंकि तब के छात्र सिर्फ अपनी फीस बढ़ोतरी के विरोध में नहीं जुटे थे, बल्कि व्यापक जनसरोकारों से जुड़े हुए थे। 1980 के दशक में असम का छात्र आंदोलन तब तक कामयाब नहीं हो सकता था, जब तक उसे व्यापक जनसमर्थन नहीं मिल पाता। असम के लोगों का उस आंदोलन को समर्थन इसलिए मिला, क्योंकि वह आंदोलन भी जनता की नब्ज से जुड़ा था।

सांस्कृतिक विरासत पर गर्व

अतीत के इन सारे आंदोलनों में शिरकत करने वाले छात्र अपने को अलहदा समाज का नहीं मानते थे। वे लोगों से सीधे जुड़े रहते थे, लोगों के दुख-सुख से उनका सीधा नाता था और सबसे बड़ी बात यह कि वे अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करते थे। अतीत के इन सभी छात्र आंदोलनों में देखेंगे तो पता चलेगा कि उनका नेतृत्व जिनके हाथों में था, वे खुद को अपने समाज, संस्कृति और वैचारिकता से जुड़े मानते थे। यहीं पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का छात्र आंदोलन अलग नजर आने लगता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बगल में ही मुनिरका, बेरसराय, कटवरिया सराय, किशनगढ़ जैसी जगहें हैं, लेकिन यहां के छात्र इन इलाकों तक से खुद को जुड़ा नहीं महसूस करते।

मौजूदा छात्र आंदोलन को लेकर सोशल मीडिया पर जो भी अभियान चल रहा है, उसमें यह दिखाने की बार-बार कोशिश की जा रही है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र अपने आप में विशिष्ट हैं। ऐसा साबित करने की कोशिश की जा रही है कि वे विशेषाधिकार प्राप्त छात्र हैं। दरअसल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को एक खास विचारधारा के पोषक केंद्र के तौर पर शुरू से ही विशिष्टता बोध के साथ विकसित किया गया है। इसलिए यहां के छात्र अपने आसपास के समाज से जुड़ नहीं पाते। उल्टे सामाजिक परंपराओं, मान्यताओं को अपने कार्यों और वक्तव्यों से यहां के छात्र और प्राध्यापक खारिज करते रहे हैं।

दाखिला पाने के बाद ज्यादातर छात्रों में बदलाव 

करीब चौथाई सदी पहले से ही इस विश्वविद्यालय को लेकर जैसी धारणा बनी हुई है कि कई परंपरावादी अभिभावक अपने बच्चों को यहां पढ़ाने से या तो हिचकते रहे हैं या फिर यहां दाखिला पाने के बाद अपने बच्चों को मर्यादा में रहने की सीख देते रहे हैं। यह बात और है कि यहां दाखिला पाने के बाद ज्यादातर छात्रों में बदलाव आ ही जाता है। यह बदलाव इतना क्रांतिकारी होता है कि वह सामाजिकता से तालमेल नहीं बैठा पाता। छात्रों द्वारा केंद्र सरकार का एकतरफा अंधविरोध नरेंद्र मोदी सरकार को लेकर जिस तरह इस विश्वविद्यालय के छात्र समाज ने वर्ष 2014 के बाद एकतरफा और अंधविरोध का तरीका अख्तियार किया है, उससे इस विश्वविद्यालय को लेकर आम मान्यता यह बन गई है कि यह दुनिया भर में कमजोर हो चुके वामपंथ का आखिरी गढ़ बन गया है।

आम भारतीय को कम से कम भारतीय राष्ट्रीयता बहुत लुभाती है। लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों का एक धड़ा भारतीय राष्ट्रवादी विचारधारा को ना सिर्फ खारिज करता है, बल्कि वह कश्मीर की आजादी की पैरोकारी भी करता है। उसे संसद पर हमले के आरोपी अफजल की फांसी की सजा गलत लगती है। वह ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का नारा लगाने से भी नहीं हिचकता। उसे आजादी की मांग करने से कोई हिचक नहीं है। भारतीय सिपाहियों की शहादत पर उसे खुशी मनाने से हिचक नहीं होती।

पूजा-पाठ करना पोंगापंथ का उदाहरण

नक्सली आंदोलन में जब केंद्रीय पुलिस बलों के सिपाही शहीद होते हैं तो जेएनयू में माहौल गमगीन नहीं होता है। पूरा देश और पश्चिम बंगाल के वामपंथी भी दुर्गा पूजा करते हैं, लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस पूजा को दकियानूसी ठहराते हुए महिषासुर की पूजा की जाती है। इस विश्वविद्यालय में पूजा-पाठ करना पोंगापंथ का उदाहरण माना जाता है, लेकिन नमाज पढ़ना और इफ्तार पार्टी आयोजित करना धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक है। धर्मांतरण को यहां इस तरह से मान्यता दी जाती है, मानो यह पवित्र कर्म हो। दिलचस्प यह है कि इन मान्यताओं की खबरें छन-छनकर इसके कैंपस से बाहर आती हैं।

‘भारत की बरबादी तक, जंग रहेगी जारी’

राष्ट्रवाद पर निरंतर प्रहार का प्रयास किसी भी देश में राष्ट्रवाद स्वयं में एक बड़ा मसला होता है। राष्ट्रवाद के नागरिक बोध के अभाव में किसी राष्ट्र का समग्र विकास नहीं हो सकता है। अंग्रेजी सरकार के खिलाफ करीब एक सौ वर्षों के सघन आंदोलन में भारतीय समाज में जो राष्ट्रीयता विकसित हुई है, लोकवृत्त में जिस तरह के मूल्य स्वीकृत हुए हैं, उसमें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से निकलने वाले अधिकांश विचार अतिवादी लगते हैं।

इसीलिए यहां के छात्रों के प्रति लोगों में कोई सहानुभूति नहीं है। फरवरी 2016 में जब कैंपस में ‘भारत की बरबादी तक, जंग रहेगी जारी’ और ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह’ जैसे उत्तेजक नारे लगे, तब इस विश्वविद्यालय के छात्रों ने आम लोगों के बीच की अपनी बची-खुची सहानुभूति खो दी। उन दिनों तो जेएनयू के आसपास के इलाकों में रहने वाले आम लोगों ने विश्वविद्यालय कैंपस के मुख्य द्वार पर छात्रों को घेरने और पीटने तक की योजना बनाई थी। इन लोगों को रोकने के लिए दिल्ली पुलिस को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी।

इससे साफ है कि यहां के छात्र अपने समाज से जुड़े नहीं हैं। यही वजह है कि उनका आंदोलन जनता का समर्थन नहीं हासिल कर पा रहा है। शायद यही वजह है कि अब यहां के छात्र यह भी कहने लगे हैं कि उनका आंदोलन आम लोगों के आगामी पीढ़ियों की निशुल्क शिक्षा को लेकर है। लेकिन उनका अतीत ऐसा रहा है कि आम लोग इस पर भी भरोसा नहीं कर पा रहे हैं।

संसद के शीतकालीन सत्र के पहले ही दिन दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने फीस बढ़ोतरी के मुद्दे को लेकर सड़कों पर विरोध प्रदर्शन किया। हालांकि जेएनयू के छात्रों का यह आंदोलन भले ही कुछ घंटों तक बेहद उग्र बना रहा, लेकिन आम आदमी या जनसामान्य की ओर से इसे किसी तरह का समर्थन मिलता हुआ नहीं प्रतीत हुआ। ऐसे में उन कारणों पर भी विचार करना होगा कि देश का यह नामीगिरामी विश्वविद्यालय आखिर क्यों अपनी गरिमा खोता जा रहा है।

[वरिष्ठ पत्रकार, जेएनयू छात्र आंदोलन]

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