ये कैसी राजनीति: सभी दल कर रहे हैं चुनाव टालने की मांग, ये है नगालैंड में गतिरोध की जड़ें

केंद्र सरकार को चाहिए कि वह 2015 में हुए समझौते को सार्वजनिक कर उस पर समयबद्ध कार्ययोजना का खाका सामने रखे ताकि हिंसा के बुरे दौर की वापसी से नगालैंड बच सके।

By Digpal SinghEdited By: Publish:Sat, 03 Feb 2018 11:09 AM (IST) Updated:Sat, 03 Feb 2018 11:15 AM (IST)
ये कैसी राजनीति: सभी दल कर रहे हैं चुनाव टालने की मांग, ये है नगालैंड में गतिरोध की जड़ें
ये कैसी राजनीति: सभी दल कर रहे हैं चुनाव टालने की मांग, ये है नगालैंड में गतिरोध की जड़ें

अनिल कुमार यादव। दो दशक बाद एक बार फिर नगालैंड चुनाव बहिष्कार के मुहाने पर खड़ा है। राज्य के 11 राजनीतिक दलों जिसमें सत्तारूढ़ गठजोड़ नगा पिपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) और उसकी घटक भाजपा के अलावा कांग्रेस के नेता भी शामिल हैं, ने एक संयुक्त समझौता पत्र जारी कर निर्वाचन आयोग से चुनाव टालने और केंद्र सरकार से ‘चुनाव से पहले समाधान’ के सिद्धांत पर अमल करते हुए लगभग छह दशक पुराने नगा समस्या के समाधान की मांग की है।

नगालैंड में 27 फरवरी 2018 को चुनाव की तिथि तय है और नगा नेताओं, नागरिक संगठनों और प्रमुख नगा आदिवासी संगठन ‘होहो’ की मांग से केंद्र की चिंताएं बढ़ गई हैं। सरकार केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू जो कि भाजपा की तरफ से नगालैंड में चुनाव प्रभारी भी हैं, के जरिए चुनाव के पक्ष में माहौल बनवाने का प्रयास कर रही है तो वहीं पार्टी स्तर पर इस मांगपत्र पर हस्ताक्षर करने वाले दोनों वरिष्ठ भाजपा नेताओं प्रदेश उपाध्यक्ष खेटो सेमा और सासेपी संगताम को निलंबित करके पार्टी के दूसरे नेताओं को बगावत न करने की चेतावनी दे रही है। दूसरी ओर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने यह कहकर कि उनकी पार्टी स्थानीय नेताओं से विचार विमर्श के बाद ही चुनाव में जाने या न जाने का निर्णय लेगी, नगालैंड के लोगों के बीच भाजपा के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील छवि बनाने में सफल रही है। इससे भाजपा की धारणागत स्तर पर चुनौती बढ़ गई है। गौरतलब है कि अन्य पार्टियों द्वारा 1998 में चुनाव बहिष्कार के एलान से कांग्रेस सहमत नहीं थी और उसने चुनाव में भागीदारी करके 60 में से 53 सीटें जीत ली थीं।

दरअसल मौजूदा संकट अवश्यंभावी था और समय का इंतजार कर रहा था। सबसे अहम कि इसके लिए स्थानीय सियासी, अलगाववादी या सामाजिक आंदोलनों के नेतृत्व को जिम्मेदार भी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि खुद पूरे नगा विधानसभा ने बहुमत से पिछले साल 14 दिसंबर को ही प्रस्ताव पारित करके सरकार से चुनाव को टालने और नगालैंड की राजनीतिक समस्या के एक ‘सम्मानजनक और स्वीकार्य हल’ के लिए ‘समय की मांग के अनुरूप खास कदम’ उठाने की मांग की थी। यानी गेंद पूरी तरह से केंद्र के पाले में थी और ऐसा भाजपा के गठबंधन वाली सरकार की तरफ से ही किया गया था। यानी यहां भाजपा के पास चुनाव बहिष्कार की स्थिति उत्पन्न होने की स्थिति में विपक्षी दलों पर इसकी तोहमत डालने का विकल्प भी मौजूद नहीं था। इससे मोदी सरकार की नगा विद्रोहियों से 2015 में हुए समझौते की विश्वसनीयता नगा अवाम में संदिग्ध हो गई है।

दरअसल, इस ‘समझौते’ को बहुत सारे लोग ऐसे झांसे के बतौर देखते हैं जिसका विवरण, दिशा और प्रस्ताव हस्ताक्षर करने वाले दोनों पक्षों के अलावा किसी को भी पता नहीं है। चुनाव बहिष्कार की एक वजह फिर से विद्रोही गुटों और सेना के साथ संघर्ष के दिनों की वापसी भी है, क्योंकि मौजूदा सरकार ने वहां सक्रिय कई अहम गुटों में से सिर्फ इसाक-मुईवा गुट से ही ‘अस्पष्ट समझौता’ किया था, जिसके खिलाफ अन्य गुटों ने आपत्ति की थी। अब यही गुट जिसमें सबसे अहम खापलांग गुट है जिसने पूर्वोत्तर भारत के अन्य राज्यों में सक्रिय विद्रोही गुटों जैसे असम के उल्फा, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के दर्जनों छोटे-बड़े अलगाववादी गुटों के साझा मंच का गठन करके शुरुआती छापामार हमलों से आने वाले दिनों के संकेत दे दिए हैं। इन संगठनों की नाराजगी को स्थानीय समुदाय तार्किक मानता है और इसलिए वह नहीं चाहता की हिंसा और प्रतिहिंसा का दौर फिर आए।

चुनाव बहिष्कार इस हिंसक कुचक्र से बचने की कोशिश है। जिसके प्रति केंद्र सरकार को संवेदनशील होना चाहिए। ऐतिहासिक तौर पर नगा लोग अवधारणा के स्तर पर अपने को किसी भी राष्ट्र के अधीनस्त नहीं मानते। वे अपने आप को एक स्वतंत्र और संप्रभु इकाई के बतौर देखते रहे हैं और आजादी से पहले से ही पूरे नगालैंड, मणिपुर, असम, अरुणाचल प्रदेश और वर्मा (अब म्यांमार) के नगा आबादी वाले इलाकों को मिलाकर एक स्वतंत्र देश बनाने की मांग रखते रहे हैं। इसी उद्देश्य से 1918 में कोहिमा में नगा क्लब का गठन हुआ था, ताकि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के सामने नगा लोगों के हितों से जुड़े मसले रखे जा सकें।

यह धारणा इतनी मजबूत रही है कि सायमन कमीशन के सामने नगा नेताओं ने यह मांगपत्र रखा था कि उन्हें भारतीय संघ का हिस्सा न बनाया जाए और स्वतंत्र समूह के बतौर मान्यता दी जाए। इस दबाव का परिणाय हुआ कि 1935 के इंडिया एक्ट के तहत नगा आबादी वाले इलाकों को विशेष पिछड़े इलाके और वर्जित हैसियत वाले इलाकों के रूप में मान्यता दे दी गई। 1946 में यही नगा क्लब नगा नेशनलिस्ट कांउंसिल (एनएनसी) के नाम से जाना जाने लगा। जुलाई 1947 में इसके नेता फीजो ने महात्मा गांधी से मुलाकात कर कहा कि 14 अगस्त 1947 को वे अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करेंगे और ऐसा उन्होंने किया भी। 1948 में फीजो को भारत सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। 1952 में एक बार फिर फीजो और नेहरू के बीच वार्ता हुई, लेकिन कोई समाधान नहीं निकल सका। 1954 में फीजो ने समानांतर सरकार की घोषणा कर दी, लेकिन आगे चलकर इस आंदोलन के अंदर एक पक्ष ने भारतीय संघ के अंदर ही स्वायत्त राज्य की मांग पर गंभीरता से विचार करना शुरू कर दिया। जिसकी भारतीय राज्य के साथ कई दौर की नाकाम वार्ताएं होती रहीं। जिसकी पहल बैपटिस्ट चर्च ने की और एक ‘पीस मिशन’ का गठन किया गया, जिसमें नगा विद्रोहियों और भारत सरकार के तीन विश्वस्त लोगों को रखा गया-असम के मुख्यमंत्री बीपी चालिहा, सवरेदयी नेता जयप्रकाश नारायण और एंग्लिकन पादरी माइकल स्कॉट।

साल 1964 की गर्मियों में ‘पीस मिशन’ युद्धविराम पर दस्तखत कराने में सफल रहा, जिसे 6 सितंबर 1964 की सुबह चर्च के घंटे की पहली आवाज के साथ लागू मान लिया गया। इसके दो सप्ताह बाद भारत और नगा विद्रोहियों के बीच बातचीत की अंतहीन कहानी शुरू हुई जो आज तक बिना किसी उपलब्धि के जारी है। जिसमें नगा अवाम कभी चुनाव बहिष्कार की घोषणा करती है तो कभी भारत सरकार और सैन्य दस्ते तैनात करने की नीति अपनाकर अपनी भूमिका निभाता है। वहीं अलगाववादी संगठन म्यांमार, बांग्लादेश और चीन के हाथों खेलते हैं। जिस समस्या को हल किया जा सकता था वह न सिर्फ बना हुआ है, बल्कि और भी विकराल रूप अख्तियार करता जा रहा है।

(लेखक गिरी विकास अध्ययन संस्थान में रिसर्च एसोसिएट हैं)

 
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