Analysis: जन अभियान बने पानी बचाने की पहल

मान्यता है कि क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर- ये पांच तत्व कभी नष्ट नहीं होते, लेकिन हम पानी खत्म होता देख रहे है

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 21 Apr 2018 08:43 AM (IST) Updated:Sat, 21 Apr 2018 08:43 AM (IST)
Analysis: जन अभियान बने पानी बचाने की पहल
Analysis: जन अभियान बने पानी बचाने की पहल

नई दिल्ली [क्षमा शर्मा]। कुछ दिन पहले भतीजे का गांव से फोन आया। कहने लगा कि हैंडपंप दोबारा लगवा रहा है। मशीनें खुदाई कर रही हैं। मशीनें? मुझे हैरानी हुई तो उसने कहा कि हां पानी तो दो सौ फुट से नीचे चला गया है। अभी तक यही लगता था कि महानगरों में कंक्रीट के जंगल उग आए हैं और पानी का उपयोग बढ़ गया है इसलिए दिल्ली जैसे शहरों में पानी चार सौ फुट तक नीचे चला गया है, लेकिन आखिर गांव में पानी की इतनी किल्लत क्यों? मुझे बचपन याद आ गया।

जब हैंडपंप की पहली बार खुदाई हुई थी तो महज दो लोग खोदने आए थे और मुश्किल से दस फुट पर पानी निकल आया था। खोदने वालों ने पानी में चीनी डाली थी फिर पानी की पूजा की गई थी। उसके बाद हैंडपंप लगा दिया गया था। आज उसी जगह मशीनों को मशक्कत करनी पड़ रही है। यह तो एक उदाहरण भर है। देश में पानी की किल्लत से निपटने के क्या इंतजाम हैं, किसी को पता नहीं। नदियों को उद्योगों के प्रदूषण ने इतना बर्बाद कर दिया है कि गंगा को साफ कराने के लिए अलग से मंत्रालय बनाना पड़ा है। यमुना की सफाई के लिए अभी तक सौ से ज्यादा योजनाएं बनाई जा चुकी हैं, मगर उसकी हालत जस की तस है। यमुना का पानी पीने लायक तो क्या, जानवरों को नहलाने लायक भी नहीं।

मशहूर पर्यावरणविद और अपनी दो अनोखी किताबोंआज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूंदें के लिए विख्यात स्वर्गीय अनुपम मिश्र ने एक बार लिखा था कि पानी पर तैरने वाला समाज डूब रहा है। उन्होंने पानी को सहेजने और बचाने पर जोर दिया था, लेकिन हम देखते हैं कि पानी को बचाने की पहल बहुत कम नजर आती है। सार्वजनिक स्थानों पर किसी नल से पानी बह रहा हो तो कोई भी उसे बंद करने की पहल नहीं करता। एक बार एक परिचित ने रेलवे स्टेशन का खुला नल दर्जनों बार बंद किया, क्योंकि लोग आते, पानी पीते और खुला छोड़कर चलते बने। अपने देश में इतनी नदियां, झरने और बर्फीले पहाड़ हैं। इसके बाद भी पानी की कमी हो तो इसका मतलब है कि कोई ऐसी बात है जिस पर हम ध्यान नहीं दे रहे। आखिर जीवन के इस जरूरी स्नोत के लिए इतनी लापरवाही क्यों?

अपने समाज में प्याऊ खोलना और गर्मियों में प्यासे को पानी पिलाना सबसे पुण्य का काम माना जाता रहा है। जब तक देश में बोतलबंद पानी का चलन शुरू नहीं हुआ था तब तक जगह-जगह प्याऊ दिखते थे या घड़े रखे रहते थे। जानवरों और चिड़ियों के लिए भी पानी रखा जाता था। समय ने जैसे इन सब बातों को धूमिल कर दिया है। वर्षा जल संचयन और इस्तेमाल किए गए पानी के दोबारा इस्तेमाल करने की बातें तो होती रहती हैं, लेकिन आम लोग तो क्या खास लोग भी पानी बचाने की चिंता नहीं करते। अनुपम मिश्र ने बताया था कि बेहद कम वर्षा होने के कारण राजस्थान के लोगों ने बारिश से प्राप्त पानी की एक-एक बूंद को बचाने की पद्धतियां सदियों से अपना रखी हैं। पहाड़ी इलाकों में भी पानी को बचाने की तरह-तरह की व्यवस्थाएं हैं। उत्तराखंड के दूधातोली गांव के एक मास्टर सच्चिदानंद भारती ने वर्षों के प्रयास से लोगों को पानी बचाने की भूली-बिसरी तकनीक से परिचित कराया। अब उन्हीं तकनीक से इतना पानी बचाया जा रहा है कि न कभी पानी की कमी होती है और न ही गर्मियों में जंगलों में आग लगती है। उक्त गांव समेत 136 गांवों में पानी को इकट्ठा करने के लिए 12 हजार से अधिक

ताल-तलैया बनाए गए हैं। यह सब गांव वालों के सहयोग से हुआ है। इससे पता चलता है कि लोग चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं।

अन्ना हजारे ने भी रालेगण सिद्धि में जो पानी पंचायत शुरू की उससे न केवल पानी की कमी दूर हुई, बल्कि प्रदूषित पानी से होने वाली बीमारियों से भी छुटकारा मिला। ऐसे प्रयोग अपने स्तर पर देश भर में चल तो रहे हैं, मगर अभी इन्हें जन आंदोलन की शक्ल लेना बाकी है। जहां लोग और सरकारें आपसी भागीदारी से पानी बचाने और उसे साफ- सुथरा रखने का हर प्रयत्न करें। बारिश का मौसम फिर से आने वाला है। बजाय इसके कि जब बारिश हो तब दो-चार सरकारी विज्ञापन देकर छुट्टी पा ली जाए, क्यों न ऐसा हो कि पहले से इन अभियानों को शुरू करके लोगों को जोड़ा जाए, क्योंकि पानी एक ऐसी आवश्यकता है जिसके महत्व के बारे में बताने की जरूरत नहीं है। विडंबना यह है कि सब इसे जानते तो हैं, मगर ध्यान नहीं देते। कहीं ऐसा न हो कि अपने यहां भी दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन शहर की तरह पानी का आपातकाल घोषित करने की नौबत आ जाए।

ध्यान रहे कि वर्षों से इसके प्रति आगाह किया जा रहा है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए हो सकता है। दुनिया के पांच तत्व क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर को लेकर इस धारणा को बदलने का वक्त आ गया है कि ये पांचों कभी नष्ट नहीं होते। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि पानी खत्म हो रहा है। काश सरकारें और जनप्रतिनिधि अन्य विवादास्पद बातों में उलझे रहने के बजाय इस ओर ध्यान दें, क्योंकि इस नारे से काम नहीं चलने वाला कि जल ही जीवन है। जल को बचाने के लिए जमीनी स्तर पर कुछ ठोस एवं कारगर कदम उठाने होंगे।

[लेखिका साहित्यकार एवं स्तंभकार हैं] 

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