भारतीय रक्षा एवं सैन्य क्षेत्र को व्यापक आधुनिकीकरण और उदारीकरण की दरकार है

प्रधानमंत्री ने तमाम वादे किए और प्रतिबद्धताएं भी जताईं, लेकिन उनकी टीम नतीजे देने में नाकाम रही।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Tue, 10 Jul 2018 11:29 PM (IST) Updated:Wed, 11 Jul 2018 09:55 AM (IST)
भारतीय रक्षा एवं सैन्य क्षेत्र को व्यापक आधुनिकीकरण और उदारीकरण की दरकार है
भारतीय रक्षा एवं सैन्य क्षेत्र को व्यापक आधुनिकीकरण और उदारीकरण की दरकार है

[ सी उदयभास्कर ]: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब मई 2014 में देश की कमान संभाली थी तो अगले सौ दिनों में राष्ट्रीय सुरक्षा और सैन्य तैयारियों को लेकर उनका रुख काबिले तारीफ था। उनकी पार्टी भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा और फौजियों के कल्याण को खासी तरजीह दी थी। घोषणा पत्र में वादा किया गया था कि सरकार बनने पर इन क्षेत्रों पर पर्याप्त ध्यान दिया जाएगा। राष्ट्रीय सुरक्षा एवं रक्षा तैयारी के मोर्चे पर मोदी सरकार के शुरुआती सौ दिनों की समीक्षा में काफी कुछ उल्लेखनीय मिलेगा।

मसलन शपथ ग्र्रहण के एक महीने से भी कम समय में प्रधानमंत्री ने किसी रक्षा प्रतिष्ठान के पहले दौरे के रूप में विमानवाहक पोत आइएनएस विक्रमादित्य को चुना। जून के मध्य में वहां पहुंचे मोदी ने भारत की समृद्ध, लेकिन लंबे समय से अनदेखी की शिकार सामुद्रिक विरासत का स्मरण कराते हुए भारतीय सुरक्षा बलों को भरोसा दिलाया कि उनकी तमाम जरूरतें उदारतापूर्वक पूरी की जाएंगी।

उन्होंने सेवानिवृत्त सैनिकों को भी आश्वस्त किया कि उनकी लंबे समय से की जा रही ‘वन रैंक-वन पेंशन’ यानी ओआरओपी की मांग को पूरा किया जाएगा। इस सिलसिले को कायम रखते हुए मोदी ने स्वदेशी तकनीक से तैयार किए गए युद्धपोत आइएनएस कोलकाता का जलावतरण किया। वह लेह गए और सैनिकों को संबोधित किया। इसी के साथ उन्होंने डीआरडीओ के वैज्ञानिकों का आह्वान किया कि वे और समर्पण भाव से काम करें ताकि भारत स्वदेशी रक्षा उत्पादन क्षमताएं हासिल करने में सक्षम हो सके। मोदी ने ‘मेक इन इंडिया’ मुहिम भी शुरू की। इसमें सभी भागीदारों को इसे उच्च प्राथमिकता देने के लिए प्रोत्साहित किया गया ताकि भारत आयातित रक्षा साजोसामान पर ही निर्भर न रहे।

सौ दिनों की अवधि के हिसाब से यह शानदार आगाज था। मोदी की वक्तृत्व कला अपना पूरा असर दिखा रही थी। उनकी छवि ऐसे प्रतिबद्ध प्रधानमंत्री की बन रही थी जो अपने जवानों का दुख-दर्द समझकर उनसे जुड़ाव रखने के साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा को सर्वोपरि मानता है। मोदी का निजी करिश्मा और राजनीतिक समाधान निकालने की खूबी को लेकर बनी आम धारणा मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस वर्षों तक सत्तारूढ़ रही संप्रग सरकार के एकदम उलट थी। राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर संप्रग सरकार बेहद लचर मानी जाती थी, जबकि निरंतरता के दृष्टिकोण से वह ऐसी सरकार थी जिसमें रक्षा मंत्री एके एंटनी सबसे लंबे समय तक अपने पद पर काबिज रहे।

लगभग आठ वर्षों तक रक्षा मंत्री रहने के बावजूद एंटनी शीर्ष रक्षा प्रबंधन को लेकर कोई बड़ा बदलाव लाने में नाकाम रहे। उनके समय में आर्टिलरी गन, लड़ाकू विमान और पनडुब्बियों की जरूरतों को भी पूरा नहीं किया जा सका। मोदी सरकार से उम्मीद की गई कि वह रक्षा एवं सैन्य क्षेत्र में पिछड़ेपन की लंबे अर्से से चली आ रही समस्या का समाधान करेगी। सेवारत और सेवानिवृत्त कर्मी भी बदलाव का इंतजार कर रहे थे। चार साल बाद रक्षा एवं सैन्य मोर्चे पर हुई प्रगति को देखा जाए तो उसे सुस्त ही कहा जाएगा। इस क्षेत्र को जिन नीतियों और संस्थागत सुधारों का इंतजार है वह अभी भी खत्म होता नहीं दिखता।

रक्षा और सैन्य क्षमताओं जैसे प्रमुख राष्ट्रीय मुद्दों के पैमाने पर मोदी सरकार के प्रदर्शन का आकलन कैसे किया जा सकता है? सबसे पहले तो यह समझना होगा कि शीर्ष स्तर के सैन्य प्रबंधन को आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। 1999 के करगिल युद्ध के बाद से ही ऐसा महसूस किया गया था। तब सैन्य साजोसामान एवं क्षमताओं में कमी का भी आकलन किया गया था। इसके बाद के. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में बनी करगिल समिति की विस्तृत रिपोर्ट में कई ठोस सिफारिशें की गईं जिनमें भारतीय खुफिया एजेंसियों का नए सिरे से कायाकल्प करना भी शामिल था। प्रतिरक्षा के मोर्चे पर कई बड़े संस्थागत सुधारों की जरूरत है। सबसे तत्काल आवश्यकता तो तीनों सेनाओं में समन्वय लाने की है।

उपकरणों की तकनीकी गुणवत्ता भी सुधारने का काम शेष है। इसी के साथ घरेलू स्वदेशी उत्पादन क्षमताओं को बढ़ाते हुए यह भी ध्यान रखना होगा कि हथियारों और उनके लिए तैयार ढांचे में कहीं कोई खामी न रहे। यह एक बहुत जटिल कवायद है और इसके लिए समर्पित राजनीतिक इच्छाशक्ति और पेशेवर विशेषज्ञता की जरूरत है, लेकिन दुख की बात है कि पिछले चार वर्षों में इन दोनों का ही अभाव दिखा है। भारत जैसे लोकतांत्रिक ढांचे वाले देश में जब व्यापक राष्ट्रीय सुधार और क्षमता का निर्माण करना होता है तो उसके लिए प्रधानमंत्री ही राजनीतिक नेतृत्व प्रदान करते हैं और संबंधित कैबिनेट मंत्री उस विषय के विशेषज्ञों के साथ मिलकर स्थिति के अनुसार सुधार को आगे बढ़ाते हैं।

दो ऐसे उदाहरण हैं जो यह दर्शाते हैं कि प्रतिबद्ध प्रधानमंत्रियों के नेतृत्व में कृषि और आर्थिक सुधारों के मामले में भारत कैसे कायाकल्प करने में कामयाब रहा। 1960 के दशक में भारत खाद्यान्न के मामले में विदेशी सहायता और मुख्य रूप से अमेरिकी मदद का ही मोहताज था। यह शर्मसार करने वाली स्थिति थी। इससे निपटने का प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बीड़ा उठाया।

आज हम जिस क्रांतिकारी पड़ाव को हरित क्रांति के नाम से जानते हैं उसकी बुनियाद राजनीतिक नेतृत्व ने ही रखी थी। इसके लिए खाद्य मंत्री सी सुब्रमण्यम और उनकी टीम में शामिल डॉ. एमएस स्वामीनाथन और बी शिवरामन जैसे काबिल पेशेवरों को भी बराबर का श्रेय जाता है। हरित क्रांति ने भारत की खाद्यान्न आयात पर निर्भरता का अंत किया और उसके बाद श्वेत क्रांति ने देश की दुग्ध एवं दुग्ध उत्पादों की संभावनाओं को भुनाकर इतिहास रचा। इसी तरह 1990 के दशक में अर्थव्यवस्था का कायांतरण करने वाले आर्थिक सुधार भी प्रधानमंत्री नरसिंह राव की इच्छाशक्ति से ही संभव हुए। राव और उनके वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह एवं उनकी टीम में शामिल अर्थशास्त्रियों का इसमें अहम योगदान रहा।

भारत का रक्षा एवं सैन्य क्षेत्र अर्से से सुधारों की बाट जोह रहा है। इसके लिए कैबिनेट स्तर पर प्रतिबद्ध राजनीतिक नेतृत्व के साथ ही विषय विशेषज्ञों की भी उतनी ही जरूरत है। अफसोस की बात है कि मोदी ऐसी टीम नहीं बना पाए हैं। रक्षा मंत्री के पद पर भी चार-बार बदली हो चुकी है, जो अपनी व्यथा खुद बयान करता है। बीते दस वर्षों में तीनों सेनाओं के साजोसामान में खासी कमी आई है। स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए पांच बड़ी समितियां और कार्यबल तो गठित हुए, लेकिन उनकी सिफारिशों पर ढंग से अमल नहीं हुआ।

राफेल जैसे लड़ाकू विमान लाने या अमेरिका से कुछ रक्षा प्रणालियां हासिल करना सामान्य कवायद ही कही जाएगी। ओआरओपी के आंशिक फायदों को बड़ा नहीं माना जा सकता, क्योंकि यह इंदिरा गांधी की गलती में सुधार करना ही था। भारतीय रक्षा एवं सैन्य क्षेत्र को व्यापक आधुनिकीकरण और संस्थागत उदारीकरण की दरकार है और यह केवल प्रधानमंत्री के स्तर से ही संभव हो सकता है। प्रधानमंत्री ने तमाम वादे किए और प्रतिबद्धताएं भी जताईं, लेकिन उनकी टीम नतीजे देने में नाकाम रही। चार साल बाद उनके वादों और हकीकत में बड़ा अंतर है।

[ लेखक सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ एवं सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं ]

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