इत्तेफाक या संयोग ऐसी परिघटना है जो किसी के साथ घटित होती है तो उसे रोमांचित किए बगैर नहीं रहती

17वीं लोकसभा किसानों की बदहाली पर चर्चा हेतु एक विशेष सत्र बुलाए। कर्ज माफी जैसी योजनाओं से मदद तो मिलती है लेकिन उनके घाव नहीं भरते जो बहुत गहरे हैं।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 23 Sep 2019 01:44 AM (IST) Updated:Mon, 23 Sep 2019 01:44 AM (IST)
इत्तेफाक या संयोग ऐसी परिघटना है जो किसी के साथ घटित होती है तो उसे रोमांचित किए बगैर नहीं रहती
इत्तेफाक या संयोग ऐसी परिघटना है जो किसी के साथ घटित होती है तो उसे रोमांचित किए बगैर नहीं रहती

[ गोपाल कृष्ण गांधी ]: संयोग या कहें कि इत्तेफाक एक ऐसी अजब परिघटना है, जिसका हम सभी ने कभी न कभी जरूर अनुभव किया होगा। अनुभव कुछ यूं कि ‘मैं ऐसी जगह पहले भी आ चुका हूं... या फिर मैंने इसे पहले कहीं देखा है।’ आदि-आदि, लेकिन हम यह याद नहीं कर पाते कि कब और कहां! कई दफे यूं भी होता है कि आप किसी व्यक्ति के बारे में सोच या पढ़ रहे होते हैं, तभी उसका टेलीफोन आ जाता है या वह स्वयं आकर प्रकट हो जाता है। ऐसा लगता है जैसे किसी ‘अदृश्य शक्ति ने यह सारा खेल रचा हो। ऐसे में आप सोचने लगते हैं कि ‘कुछ तो है। कुछ ऐसा जो अवर्णनीय, रहस्यमयी है। पर यह संयोग जो है, कुछ यूं भी लगता है जिसके कोई मायने नहीं। बेहद दिलचस्प, किंतु नितांत अर्थहीन! हम एक पल के लिए हैरान-परेशान होते हैं, फिर अपने रोजमर्रा के कामों में लग जाते हैं।

संयोग-ग्रस्त इंसान

कुछ लोगों के साथ दूसरों के मुकाबले ज्यादा ही संयोग घटित होते हैं। मैं भी ऐसा ही एक ‘संयोग-ग्रस्त इंसान हूं। मेरे साथ अक्सर ही कोई संयोग हो जाता है। और ऐसे संयोगों की प्रवृत्ति भी कुछ ऐसी होती है कि मैं इन्हें भूल नहीं पाता। ये मुझे हैरान कर देते हैं और मैं सोच में पड़ जाता हूं कि आखिर ‘किसने इन्हें रचा है, और क्यों?’ लेकिन कभी संतोषजनक जवाब नहीं मिलता।

वाणी के जरिये लेखक को जीवंत कर दिया

करीब बीस साल पहले मुझे संयोग या इत्तेफाक से जुड़ा गजब अनुभव हुआ। मैं उसे कभी नहीं भूल सकता। मैंने ब्रिटिश रेडियो व टेलीविजन पर वॉइस एक्टर रुथ रोसेन को सुना था जो मैरी पोलक की किताब ‘मिस्टर गांधी- द मैन’ के कुछ अंश पढ़कर सुना रही थीं। उनका बोलने का लहजा शानदार था और कहना होगा कि उन्होंने अपनी वाणी के जरिये एक तरह से लेखक को जीवंत कर दिया था। बल्कि कहें कि उन्होंने एक जीवनी को नाटक में तब्दील कर दिया था। तकरीबन तीन साल बाद एक दिन मैंने उसी किताब को पुन: पढ़ने के लिए उठाया। मैं किताब का एक तिहाई हिस्सा भी नहीं पढ़ पाया था कि तभी मेरे फोन की घंटी बजी। मैंने रिसीवर उठाया। उधर से आवाज आई- ‘गोपाल...मैं रुथ बोल रही हूं। रुथ रोसेन। मैं सन्न रह गया। लंबे समय से मेरी रुथ से बात नहीं हुई थी।’

प्रश्नोत्तर

‘रुथ...मुझे यकीन नहीं हो रहा! आप भी मुझ पर यकीन नहीं करेंगी। मैं इस वक्त मैरी पोलक की किताब ही पढ़ रहा था।

‘क्या...मुझे यकीन नहीं होता! वाकई! ये तो गजब हो गया।

रुथ, मैं इस किताब के कळ्छ पन्ने आपको फोन पर पढ़कर भी सुना सकता हूं। आपको मेरी बात पर यकीन करना होगा।

‘निस्संदेह मुझे आप पर यकीन है गोपाल!... लेकिन अब हैरान होने की बारी आपकी है। मैंने इसलिए फोन किया गोपाल, दरअसल मैं आपसे यह कहना चाहती हूं कि क्या आप किसी पब्लिशर का नाम सुझा सकते हैं, जो मेरे पति की पांडुलिपि को प्रकाशित कर सके?

‘मैं देखता हूं।

‘गोपाल, यह किताब जिस बारे में है, जो इसका विषय है, उसे सुनकर आप दंग रह जाएंगे! इस किताब की थीम है- इत्तेफाक! यह सुनकर मैं नि:शब्द था।

संयोग भी रहस्यमयी परिघटना है

शेक्सपीयर के एक महान नाटक में हैमलेट अपने दोस्त से कहता है- हॉरेशियो, तुम अपनी फिलॉस्फी में जितना सोच सकते हो, उससे आगे जहां और भी हैं। यहां ‘फिलॉस्फी से आशय है- आकस्मिकता, साइंस।

संयोग भी ऐसी ही रहस्यमयी परिघटना है।

किताबों का शानदार कलेक्शन

इसी तरह एक-दो महीने पहले मुझे इत्तेफाक का एक और अनुभव हुआ। यह भी एक किताब से जुड़ा है। मैं अपनी बेटी के घर में किताबों के एक शानदार कलेक्शन के समक्ष अपना लैपटॉप लेकर बैठा था। किसी ने मुझे आशीष नंदी का एक पत्रिका में प्रकाशित साक्षात्कार मेल किया था, जिसमें उन्होंने 1995 से लेकर अब तक तीन लाख किसानों की खुदकुशी का जिक्र किया था। इस मेल को पढ़ने के लिए मैंने अपना इनबॉक्स खोला था।

कर्ज की वजह से विपत्तियां झेलनी पड़ी

तभी मुझे पी. साईनाथ का ख्याल आया, जिन्होंने किसानों के कर्ज जाल में उलझने के पैटर्न के बारे में दुनिया को अवगत कराया। इसके साथ ही मुझे प्रेमचंद की ‘गोदान’ और उसके पात्र होरी व उसकी पत्नी धनिया भी याद आए, जिन्हें सूदखोर महाजन के कर्ज में उलझने की वजह से विपत्तियां झेलनी पड़ती हैं।

सूदखोरों के चंगुल में फंसकर मुक्त होना आसान नहीं

अगले ही पल किताबों की आलमारी में रखी मार्क्स लिखित ‘कैपिटल’ के तीसरे भाग पर मेरी नजर पड़ी। मैंने इस किताब को उठाया और इत्तेफाकन मैंने इसका जो पन्ना खोला, उसमें मार्क्स द्वारा भारतीय किसानों के बारे में दिया विवरण दर्ज था-‘एक छोटे किसान के लिए उसकी एक गाय की मौत भी उसे दीन-हीन बना देती है। इसके बाद वह सूदखोरों के चंगुल में फंस जाता है और एक बार वह उनके चंगुल में फंस जाए, तो फिर कभी मुक्त नहीं हो पाता। मैं इस इत्तेफाक पर चमत्कृत था।

लेकिन बात अभी बाकी है मेरे दोस्त!

मैं सोचने लगा कि क्या प्रेमचंद भी माक्र्स से प्रभावित थे और यदि थे तो किस हद तक? मैंने किताब को वहीं रखा और गूगल पर टाइप किया ‘प्रेमचंद...मार्क्स...। इससे एक ऐसा टेक्स्ट मेरे सामने आया, जो मैंने पहले नहीं देखा था। यह प्रेमचंद द्वारा वर्ष 1936 में कानपुर में प्रगतिशील लेखक संघ के उद्घाटन समारोह में अपनी उर्दू-मिश्रित हिंदी में दिया गया भाषण था। यह वही साल था, जब ‘गोदान’ प्रकाशित हुई थी। मैंने तय कर लिया कि इसके बारे में साईनाथ को बताऊंगा।

साईनाथ बोल रहा हूं..

और तभी मेरा सेलफोन बजा-‘हैलो गोपाल, साईनाथ बोल रहा हूं..। मैं एक पल को जड़वत रह गया। यह भी एक असाधारण इत्तेफाक था। मैं फोन पर बुदबुदाया- ‘साईनाथ... सौ साल...आप यकीन नहीं करेंगे। मैंने उन्हें यह पूरा सिलसिला बताया। वह भी थोड़े हंसे।

मार्क्स की कैपिटल 

मैं इत्तेफाक को लेकर अपने रोमांच पर वापस आता हूं। ऊपर मैंने इस इत्तेफाक के जिन पांच चरणों का जिक्र किया है, वे पंद्रह मिनट के भीतर ही घटित हुए। जहां तक मुझे याद आता है कि गंभीर किताबों में मैंने मार्क्स की कैपिटल को पढ़ने की खूब कोशिश की, लेकिन कभी पूरा पढ़ नहीं पाया, क्योंकि आर्थिक सिद्धांतों की जटिलताओं में उलझ गया, लेकिन जब-जब पढ़ने की कोशिश की तो इसके कुछ वाक्य, वाक्यांश, कळ्छ छुटपुट विवरण मेरे जेहन में चस्पां होकर रह गए। इस बार भी एक छोटे किसान की गाय की मौत संबंधी पंक्ति ने मुझे बांध लिया, उसी तरह जैसे सूदखोर ने किसान को बंधुआ बना लिया था।

कर्ज माफी से घाव नहीं भरते

भारतीय किसान कर्ज के दुष्चक्र में बुरी तरह उलझे हैं। कर्ज माफी जैसी योजनाओं से उन्हें कुछ मदद तो मिलती है, लेकिन उनके घाव नहीं भरते, जो बहुत गहरे हैं।

जय संयोग, जय इत्तेफाक! 

यह जरूरी है कि 17वीं लोकसभा किसानों की बदहाली पर चर्चा हेतु एक विशेष सत्र बुलाए। गोदान का महान रचनाकार हमारे नवनिर्वाचित सांसदों से शपथ-ग्रहण के वक्त ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा सुनना ही पंसद करता। जो किसी भी जय... से बढ़कर है। बहरहाल, आखिर में मैं यही कहूंगा कि जय संयोग, जय इत्तेफाक!

( लेखक पूर्व राजनयिक-राज्यपाल और वर्तमान में अध्यापक हैं )

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