सद्भाव के संदेश की अनदेखी

तीर्थयात्रियों पर आतंकी हमले की घटना के बाद सांप्रदायिक सद्भाव को चोट पहुंचाने वाली कोई वारदात नहीं हुई।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 19 Jul 2017 01:24 AM (IST) Updated:Wed, 19 Jul 2017 02:03 AM (IST)
सद्भाव के संदेश की अनदेखी
सद्भाव के संदेश की अनदेखी

राजीव सचान

कश्मीर में अमरनाथ के दर्शन कर रहे लौट रहे तीर्थयात्रियों पर आतंकी हमले की घटना के बाद देश में रोष और आक्रोश का वैसा ही उबाल दिखा जैसा अपेक्षित था, लेकिन इस पर लोगों का ध्यान कम ही गया कि इतनी भयावह घटना के बाद अपवाद के तौर पर हिसार की एक अप्रिय घटना के अलावा में देश में कहीं पर भी सांप्रदायिक सद्भाव को चोट पहुंचाने वाली कोई वारदात नहीं हुई। हिसार में कुछ अराजक तत्वों ने एक इमाम से जबरन भारत माता की जय कहलवाने की कोशिश की और इस दौरान उससे हाथापाई की। हो सकता है कि सांप्रदायिक बैर जनित कोई और भी घटना हुई हो, लेकिन मीडिया और सोशल मीडिया में उसका उल्लेख नहीं दिखा तो इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि हिसार की घटना अपवाद रही। यह मामूली बात नहीं। यह सामाजिक सद्भाव की मजबूत जड़ों के साथ आम जनता की परिपक्व होती सोच का परिचायक है। एक सौ तीस करोड़ आबादी वाले देश में जहां मीडिया के एक हिस्से के साथ सोशल मीडिया पर सक्रिय कुछ लोग यह साबित करने के लिए अतिरिक्त परिश्रम कर रहे हैं कि देश में मार-काट सी मची है और सांप्रदायिक सद्भाव छिन्न-भिन्न होने के साथ दलितों एवं अल्पसख्यकों की जान पर बन आई है वहां यह उल्लेखनीय है कि कश्मीर में इतनी बड़ी घटना के बाद वैसा कुछ नहीं हुआ जैसा कई दशक पहले हो जाया करता था।
इसमें संदेह नहीं पिछले कुछ समय से सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने का काम वे घटनाएं भी कर रही हैं जो कथित तौर पर गौरक्षकों की ओर से अंजाम दी जा रही हैं। इन घटनाओं के चलते कुछ लोग भीड़ की हिंसा के खिलाफ कानून बनाने की मांग करने लगे हैं। पहली नजर में यह एक उचित मांग जान पड़ती है, लेकिन सच यह है कि किसी नए कानून से ज्यादा जरूरी अराजक भीड़ से निपटने में राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव को दूर करने की है। यदि राज्य सरकारें और पुलिस चाह ले तो आसानी से हर तरह के असामाजिक तत्वों की अराजकता पर लगाम लग सकती है। भीड़ की हिंसा के खिलाफ कानून बनाने की मांग ठीक वैसी ही है जैसे एक समय ‘ऑनर किलिंग’ के खिलाफ कानून बनाने को लेकर की जाती थी। इसका कोई औचित्य नहीं था, क्योंकि हत्या तो हत्या है वह चाहे कथित तौर पर सम्मान की रक्षा के नाम पर हो या फिर बदला लेने के नाम पर। इसके पहले सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ कानून बनाने की मांग की गई थी। इस मांग ने इतना जोर पकड़ा कि संप्रग सरकार के समय एक विधेयक भी तैयार कर लिया गया था। यह प्रस्तावित विधेयक कानून का रूप नहीं ले सका तो अच्छा ही हुआ, क्योंकि यह सांप्रदायिक वैमनस्य को और बढ़ावा देने वाला साबित होता।
एक ऐसे समय जब मोदी सरकार अनावश्यक और अप्रासंगिक कानूनों को खत्म करने में जुटी है तब पुलिस को कुछ और कानूनों से लैस करने से ज्यादा जरूरी उपलब्ध कानूनों पर सही ढंग से अमल करने का है। नि:संदेह सभी गौरक्षकों को उग्र-अराजक नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह भी सही है कि गौरक्षा के बहाने अराजकता का सहारा लेने वाले तत्व भी हैं और वे जब-तब बेलगाम भी हो जाते हैं। राजस्थान में पहलू खान और झारखंड में अलीमुद्दीन की हत्या गौरक्षकों की अराजकता का ताजा प्रमाण है। गौरक्षकों की शिकायत है कि पाबंदी और निषेध के बाद भी गायों के चोरी-छिपे वध का सिलसिला कायम है। यह शिकायत निराधार नहीं, लेकिन गौ हत्या के अपराध में किसी इंसान की हत्या भयानक है। गौरक्षकों के उत्पात की व्याख्या किस तरह की जा रही है, यह उन लोगों को जानना ज्यादा जरूरी है जो गायों की रक्षा को लेकर सचमुच प्रतिबद्ध हैं। भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य हिंदू संगठन इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि गाय के नाम पर हो रही हिंसक घटनाओं को किस तरह हिंदू आतंकवाद बताया जा रहा है। एक राष्ट्रीय पत्रिका के ताजा अंक की आवरण कथा का शीर्षक है-लिंच मॉब राष्ट्र! शायद वैचारिक रूप से दुराग्र्रही ऐसे ही लोगों ने लिंचिस्तान नामक नया शब्द गढ़ा है। वे न केवल हिंदू अतिवाद का प्रसार होते देख रहे हैं, बल्कि यह भी रेखांकित कर रहे हैं कि जैसे पाकिस्तान में ईशनिंदा का आरोप लगाकर किसी को भी आतंकित करना आसान है वैसे ही भारत में गोवध या गोतस्करी का आरोप लगाकर। ऐसे दुष्प्रचार का निदान केवल सद्भाव के वैसे संदेश के जरिये ही हो सकता है जैसा अमरनाथ यात्रियों पर हमले के बाद देश के आम लोगों की ओर से दिया गया जहां संयत प्रतिक्रियाएं ही देखने को मिलीं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के साथ-साथ गौरक्षा के प्रतिबद्ध अन्य संगठन अपने दानवीकरण की कोशिश से तनिक भी चिंतित हैं तो उन्हें गौरक्षकों के उत्पात की निंदा तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। यह सही है कि गोवध-गोतस्करी के चलते पहले भी हिंसक घटनाएं होती रही हैं और समाज में कुछ तत्व अभी भी ऐसे हैं जिन्हें गोमांस में कुछ ज्यादा ही खूबी नजर आती है, फिर भी यह कहने से काम नहीं चलेगा कि पहले भी ऐसी घटनाएं होती रही हैं। यदि पहले जैसा होता रहा है वह अब भी होता रहता है तो फिर बदलाव कब होगा? ऐसे किसी तर्क से एक सीमा तक ही संतुष्ट हुआ जा सकता है कि ऐसी कोई घटना नहीं जिसमें गाय के नाम पर हुई हिंसा-हत्या के लिए जिम्मेदार तत्वों की गिरफ्तारी न हुई हो, क्योंकि ज्यादा जरूरी यह है कि ऐसी घटनाएं हों ही न। जितना आवश्यक यह है कि गोवध-गोतस्करी थमे उससे ज्यादा यह कि बेलगाम गौरक्षकों की हिंसा रुके। इससे ही कानून के शासन की रक्षा होगी और उस सद्भाव को भी बल मिलेगा जो सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करने के साथ ही देश की साख बनाए रखने में सहायक है। गाय और गोमांस के नाम पर हो रही हिंसा-हत्या की घटनाओं पर प्रधानमंत्री ने एक बार फिर अपनी नाराजगी जताई है, लेकिन ऐसा नहीं लगता कि राज्य सरकारें चेती हैं। इससे अधिक दयनीय और कुछ नहीं कि राज्य सरकारें तमाम बदनामी के बाद भी सांप्रदायिक सद्भाव की महत्ता समझने से इन्कार करती दिख रही हैं। असामाजिक तत्वों पर सख्ती से लगाम लगाना ऐसा कोई मामला नहीं जिसके लिए राज्य सरकारों को किसी आदेश-निर्देश की जरूरत पड़े, लेकिन बेहतर यही है कि केंद्रीय गृहमंत्रालय हर उस घटना का संज्ञान ले जो किस्म-किस्म के असामाजिक तत्वों की ओर से अंजाम दी जा रही हैं।
[ लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं ]

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