भारत की विदेश नीति के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों से कैसे निपटेंगे, यह होगी मोदी के नेतृत्व की परीक्षा?

मोदी के दूसरे कार्यकाल में उनके नेतृत्व की परीक्षा इस पहलू से तय होगी कि वह भारत की विदेश नीति के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों से कैसे निपटते हैं?

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Thu, 06 Jun 2019 01:21 AM (IST) Updated:Thu, 06 Jun 2019 01:21 AM (IST)
भारत की विदेश नीति के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों से कैसे निपटेंगे, यह होगी मोदी के नेतृत्व की परीक्षा?
भारत की विदेश नीति के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों से कैसे निपटेंगे, यह होगी मोदी के नेतृत्व की परीक्षा?

[ ब्रह्मा चेलानी ]: तमाम राजनीतिक पंडितों को चौंकाते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने धमाकेदार जीत के साथ सत्ता में वापसी कर ली। बौद्धिक जुगाली करने वाले तमाम लोग मोदी को विभाजनकारी राजनीति के लिए आड़े हाथों लेते रहे, लेकिन वे जमीन पर मोदी के पक्ष में चल रही हवा को भांपने में नाकाम रहे। इस प्रचंड जनादेश ने मोदी को घरेलू मोर्चे के साथ-साथ विदेश नीति की प्राथमिकताएं तय करने में एक तरह से खुला हाथ दे दिया है। उन्हें कुछ समय में ही दुनिया के दिग्गज नेताओं से मुलाकात करनी है। वह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से लेकर चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग से मुलाकात करेंगे।

पहले कार्यकाल की तरह मोदी की विदेश नीति सतर्क व्यावहारिकता के साथ संचालित होगी। निर्णय लेने की मोदी की अनूठी और विशिष्ट शैली है। इसमें उनकी शख्सियत भी असर दिखाती है। अक्सर उनके अप्रत्याशित फैसलों में चौंकाने का भाव भी होता है। इससे मोदी के आलोचकों को उन पर राष्ट्रपति शैली में सरकार चलाने का आरोप लगाने का बहाना मिला जाता है, जबकि हकीकत यह है कि स्वतंत्र भारत में प्रधानमंत्री अमूमन राष्ट्रपति की शैली में ही काम करते आए हैं। इनमें जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नाम शामिल हैैं। इस मामले में कमजोर और खंडित जनादेश से बनी सरकारें ही अपवाद हैं।

चुनाव से पहले ही मोदी ने अंतरिक्ष युद्ध को लेकर भारत की क्षमताओं का प्रदर्शन कर चीन को चेतावनी देने का काम किया था। भारत ने 27 मार्च को अंतरिक्ष में अपने ही एक उपग्र्रह को मार गिराने में सफलता हासिल की थी। इस तरह वह अमेरिका, रूस और चीन के बाद अंतरिक्ष में कोई लक्ष्य भेदने की क्षमता रखने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया। जैसे उपग्र्रह-भेदी हथियार के साथ ही भारत ने चीन के खिलाफ अहम प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर एक बड़ी उपलब्धि हासिल की वैसे ही चुनावी जीत के बाद विदेश नीति के संदर्भ में मोदी का पहला कदम भी चीन को ध्यान में रखकर उठाया गया।

पहले विदेश दौरे के लिए मोदी ने रणनीतिक रूप से हिंद महासागर के द्वीप मालदीव को चुना है। पिछले साल हुए चुनाव में मालदीव की जनता ने चीन समर्थित तानाशाह की सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया था। हालांकि उससे पहले ही वहां की सरकार कई छोटे-छोटे द्वीप चीन को पट्टे पर दे चुकी थी। मालदीव में लोकतंत्र बहाली के बाद से भारत ने उसे पूरी उदारता से वित्तीय मदद मुहैया कराई है। इससे मालदीव को चीनी कर्ज के जाल से निकलने में मदद मिली है।

सात-आठ जून को मोदी का यह दौरा सांकेतिक रूप से बेहद अहम है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के नेता अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत दुनिया के सबसे छोटे मुस्लिम देश से करेंगे। इससे पहले मालदीव में जिस तानाशाह का शासन था उसके राज में मालदीव दुनिया में आतंकियों की आपूर्ति के लिए कुख्यात हो गया था। प्रति व्यक्ति आबादी के लिहाज से सीरिया और इराक में जिहाद के लिए आतंकी भेजने वाले देशों में मालदीव तब शीर्ष पर था।

मोदी ने एक और चतुराई भरा कदम उठाते हुए अपने शपथ ग्र्रहण समारोह में बंगाल की खाड़ी के लिए बहु-क्षेत्रीय तकनीकी एवं आर्थिक सहयोग परिषद पहल यानी बिम्सटेक के सदस्य देशों को आमंत्रित किया। इसमें बांग्लादेश, भूटान, भारत, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका और थाईलैंड शामिल थे। मरणासन्न दक्षेस की तुलना में बिम्सटेक संभावनाएं जगाने वाली पहल है। बंगाल की खाड़ी दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया को जोड़ने वाली कड़ी है। इसमें भारत की ‘पड़ोसी को प्राथमिकता’ और ‘एक्ट ईस्ट’ नीति भी एकाकार होती हैं। इसके उलट दक्षेस भारत को उलझाए रखता है। उसका दायरा भी भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित है, जबकि बिम्सटेक भारत को उसकी ऐतिहासिक धुरियों से जोड़ता है।

इतिहास में भारत के मुख्य व्यापारिक और सांस्कृतिक साझेदार पूरब के देश ही थे। पश्चिमी सीमा से तो केवल आततायी अपनी सेनाओं के साथ आक्रमण करते रहे। भारत के रणनीतिक हितों को देखते हुए बिम्सेटक सही है। इससे एबी शिंजो की पहल पर अमेरिकी नेतृत्व वाली ‘मुक्त एवं खुले हिंद प्रशांत क्षेत्र’ वाली रणनीति में भारत की भूमिका का और विस्तार होगा।

दक्षेस नेताओं को न बुलाकर मोदी परेशान करने वाले पड़ोसी पाकिस्तान को भी दूर रखने में सफल रहे, जिसने उनकी जीत पर उत्तर कोरियाई शैली में बधाई देते हुए चीनी डिजाइन की परमाणु क्षमता वाली मध्यम दूरी की बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण किया था। यह परीक्षण ऐसे समय किया गया जब पुलवामा हमले के कारण दोनों देशों में पहले से तनाव बढ़ा हुआ था। पाकिस्तान और चीन मिलकर मोदी के सामने बड़ी सामरिक चुनौती पेश करते हैं। यह शायद दुनिया में किसी एक देश को सबसे ज्यादा परेशान करने वाले पड़ोसियों की जोड़ी मानी जाएगी।

मोदी ने इस साल अक्टूबर में शी चिनफिंग को ‘अनौपचारिक सम्मेलन’ के लिए भारत बुलाया है। संबंधों में तल्खी दूर करने के लिए इससे पहले चीन के वुहान में दोनों नेता ऐसी एक बैठक कर चुके हैं। चीन को लेकर अमेरिकी नीति में ट्रंप द्वारा किए गए बदलाव से चीन के लिए आक्रामकता की गुंजाइश सीमित हो रही है। भारत इसका लाभ उठा सकता है। अमेरिका से रिश्ते बेहतर होने के बावजूद ट्रंप को साध पाना मोदी के लिए खासा चुनौतीपूर्ण है। ईरान और वेनेजुएला से तेल आयात पर प्रतिबंध से ट्रंप पहले ही भारत पर बोझ बढ़ा चुके हैं। इसके साथ ही 15 अरब डॉलर के रक्षा सौदे हासिल करने के बावजूद अमेरिका रूस से रक्षा साजोसामान की खरीद में अड़ंगे लगा रहा है।

भारतीय बाजार में तार्किक एवं बराबर की भागीदारी न मिलने का आरोप लगाते हुए ट्रंप ने भारत को मिला जीएसपी का दर्जा भी वापस ले लिया है। इसके तहत भारत अमेरिका से 5.6 अरब डॉलर के तकनीकी उत्पादों का शुल्क मुक्त आयात कर सकता था। पिछले साल अमेरिका ने इस्पात और एल्युमिनियम पर आयात शुल्क बढ़ा दिया था। जवाबी कार्रवाई के नाम पर भारत ने अमेरिका से होने वाले करोड़ों डॉलर के उत्पादों पर आयात शुल्क बढ़ाने का एलान किया। यह बात अलग है कि दरें बढ़ाने की मियाद आगे बढ़ती गई।

मोदी के दोबारा चुनाव पर जब ट्रंप ने उन्हें बधाई दी तो दोनों नेताओं ने 28-29 जून को ओसाका में आयोजित जी-20 सम्मेलन से इतर बैठक के लिए सहमति जताई। मोदी के विदेश दौरों का आगामी कार्यक्रम काफी व्यस्त है। 14-15 जून को उन्हें किरगिस्तान में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन में भाग लेना है। चार-छह सितंबर को वह व्लाडिवोस्टक में पूर्वी आर्थिक मंच के सम्मेलन में शिरकत करेंगे। इसी बीच वाशिंगटन में ट्रंप से द्विपक्षीय वार्ता भी हो सकती है।

मोदी के दूसरे कार्यकाल में उनके नेतृत्व की परीक्षा इस पहलू से तय होगी कि वह भारत की विदेश नीति के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों से कैसे निपटते हैं? अगर वह नाकाम रहते हैं तो उन्हें इसकी राजनीतिक कीमत चुकानी होगी, लेकिन यदि वह सफल होते हैं तो फिर इंदिरा गांधी के बाद वैश्विक स्तर पर सबसे ज्यादा छाप छोड़ने वाले भारतीय नेता बन जाएंगे।

( लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं )

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