बर्फबारी की चुनौती मजा से ज्यादा सजा, हिमाचल प्रदेश और उत्‍तराखंड जैसे राज्‍यों में पर्यटकों की बढ सकती परेशानी

बर्फबारी को यदि दूर से देखें तो उसमें मजा है। दुनिया भर के पर्वतीय पर्यटक स्थल सर्दियों में बर्फ की वजह से ही गुलजार होते हैं। उसमें नुकसान के संदेशे हैं मौत की ठिठुरन भी है। इसका व्यापक असर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में दिख रहा है

By Kanhaiya JhaEdited By: Publish:Thu, 13 Jan 2022 07:03 PM (IST) Updated:Fri, 14 Jan 2022 10:18 AM (IST)
बर्फबारी की चुनौती मजा से ज्यादा सजा, हिमाचल प्रदेश और उत्‍तराखंड जैसे राज्‍यों में पर्यटकों की बढ सकती परेशानी
समय रहते बर्फबारी की सूचना मिलने से इससे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। फाइल

डा. संजय वर्मा। पाकिस्तान के मशहूर पर्यटक स्थल मरी में चंद रोज पहले जो हुआ, वह बर्फ के खौफ का उदाहरण है। हमारे देश में भी खासकर उत्तर भारत के जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में यह बर्फ जीवन की डोर काटती प्रतीत हो रही है। इन सारे इलाकों के बहुतेरे हिस्सों में या तो यातायात ठप है, बिजली-पानी की सप्लाई बाधित है और जिंदगी थमी हुई है। पर बर्फबारी में भी तमाम विकसित देशों में जिंदगी इस तरह नहीं ठहरती। अपवादों को छोड़ दें तो वहां बर्फ हादसों का सबब नहीं बनती। आखिर क्यों बर्फबारी भारत-पाकिस्तान जैसे कुछ एशियाई मुल्कों में इस तरह कहर बरपाती है।

पाकिस्तान के मरी में करीब दो दर्जन जिंदगियां छीन लेने वाली बर्फ यूं ही अनहोनी नहीं बन गई। कोरोना काल में अरसे से घरों में बंद असंख्य लोगों (पर्यटकों) को सर्दी में बर्फबारी को करीब से देखने-महसूस करने की चाहत वहां खींच ले गई थी। पर एक रात भारी बर्फबारी के बीच सड़क पर सैकड़ों कारों की मौजूदगी से लगे ट्रैफिक जाम में लोग जहां के तहां ठहर गए। दावा है कि इनमें से बहुत से लोगों को जब होटलों में ठहरने को जगह नहीं मिली, तो कारों में ही रात गुजारने का फैसला उन पर भारी पड़ गया। ज्यादा ठंड और कारों में इंजन चलने से अंदर जमा होने वाली जहरीली गैस कार्बन मोनो-आक्साइड से दो दर्जन लोग मौत के आगोश में खिंचे चले गए। यह घटना और संबंधित आंकड़े केवल एक तथ्य हैं, लेकिन इससे ज्यादा जो बातें सामने आ रही हैं, उनमें मानवीय संवेदनाओं के बर्फ से भी ज्यादा ठंडे हो जाने की सच्चाई सामने निकलकर आती है। बताते हैं कि ट्रैफिक जाम में फंसे लोगों ने बेइंतहा ठंड और भीषण बर्फबारी के बीच होटलों की बजाय कारों में ही रात बिताने का फैसला इसलिए किया, क्योंकि ज्यादातर होटल वालों ने एक रात के लिए कमरे का किराया 50 से 70 हजार पाकिस्तानी रुपये कर दिया था। यही नहीं, बर्फ में फंसी कार को खींचकर बाहर निकालने और सुरक्षित जगह पर ले जाने के लिए लोग न्यूनतम पांच हजार रुपया मांग रहे थे। सरकार और प्रशासन की नाकामी दोहरी थी। एक तरफ तो सरकार का मौसम विभाग यह अनुमान नहीं लगा पाया कि कुछ ही घंटों में वहां इतनी ज्यादा बर्फबारी हो जाएगी। यदि यह अनुमान होता तो पर्यटकों को समय रहते सचेत किया जा सकता था। स्थानीय प्रशासन के लोगों ने भीषण बर्फबारी और सर्दी के बीच रजाई से बाहर निकलकर यह झांकने का प्रयास नहीं किया कि एक पर्यटक स्थल पर जमा हजारों टूरिस्टों के सामने अचानक विपदाकारी हालात पैदा हो सकते हैं। ट्रैफिक जाम ही खत्म कर दिया जाता, तो मुमकिन है कि ये मौतें न होतीं। जैसा मरी (पाकिस्तान) में हुआ, वैसे दृश्य भारत के पर्वतीय राज्यों में अक्सर दिखते हैं।

ऊपर बर्फ, नीचे कचरा : दिसंबर-जनवरी की सर्दी में ठिठुरते जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के देश से कटे हुए बहुतेरे इलाके इस दौरान बिजली-पानी और रसद की भीषण कमी से जूझते हैं। यहां अक्सर न केवल पर्यटक फंस जाते हैं, बल्कि स्थानीय बाशिंदे भी कई समस्याओं से जूझ रहे हैं। शिमला-मनाली तक में बिजली-पानी की आपूर्ति बाधित है। दो जनवरी को मनाली में 14 घंटे तक ब्लैक आउट (बिजली कटना) रहा। बर्फबारी के कारण मनाली की बिजली की मुख्य लाइन प्रभावित हुई और आम लोगों के साथ मनाली घूमने आए हजारों पर्यटकों को परेशानी का सामना करना पड़ा। मनाली हो या शिमला, बर्फबारी प्रशासन की व्यवस्थाओं की पोल भी खोलती रही है। पर्वतीय पर्यटक स्थलों के निवासी अक्सर शिकायत करते हैं कि बर्फबारी के दौरान स्थानीय प्रशासन न तो घरों के सामने पड़े कूड़े को उठाने का कोई प्रबंध करता है और न ही बर्फ के नीचे जमा होने वाले कचरे से निपटने का इंतजाम होता है। नतीजा यह निकलता है कि मनाली-शिमला-मसूरी आदि जगहों में पहुंचे पर्यटक शहर में जगह-जगह बदबू की शिकायत करते हैं। सच्चाई यह है कि पिछले कुछ वर्षों में शिमला, मसूरी, नैनीताल और मनाली आदि की आबोहवा पूरी तरह बदल चुकी है। पर्यटकों और कारों की भारी भीड़ के बीच वहां फैली रहने वाली गंदगी ने हिल स्टेशंस की रौनक खत्म कर दी है।

कायदे से तो बर्फबारी के दौरान इन पर्यटक स्थलों को चाक-चौबंद रहना और दिखना चाहिए, लेकिन इसके उलट अगर ये कूड़े और कुप्रबंधन के शिकार दिख रहे हैं, तो हमें दुनिया की उन तमाम पर्यटन नगरियों से काफी कुछ सीखने की जरूरत है, जहां कायम रहने वाली व्यवस्था के उदाहरण हम खुद देते हैं। ये चीजें दर्शाती हैं कि हमारे देश में बर्फबारी से पैदा होने वाली समस्याओं से निपटने की जो व्यवस्थाएं बननी चाहिए थीं, वे ज्यादातर पर्वतीय इलाकों में नदारद हैं।

सड़कें बंद तो कारोबार बंद : कहने को तो अब देश में ऐसे राष्ट्रीय राजमार्गों का निर्माण हो रहा है, जिन्हें हर मौसम के लिए उपयुक्त (आल वेदर रोड या हाइवे) माना जाता है। लेकिन अभी भी जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में यह सालाना समस्या है कि जैसे वहां ऊंचे इलाकों में बर्फ गिरनी शुरू होती है, उन्हें देश से जोड़े रखने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों पर यातायात रोक दिया जाता है। खास तौर से जम्मू-कश्मीर को देश से जोडऩे वाले 300 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग पर वाहनों की आवाजाही रुक जाती है और हजारों ट्रक एक के पीछे एक खड़े हो जाते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग बंद होने या उनके रुक-रुक कर चलने की वजह से रसद की सप्लाई करने वाले ट्रकों का आवाजाही थम जाती है, जिससे पर्वतीय राज्यों में राशन-पानी का घोर संकट पैदा हो जाता है। विकसित देशों में बर्फबारी के दौरान ज्यादातर समय प्रमुख हाइवे हर हाल हाल में चालू रखे जाते हैं, क्योंकि वहां इसकी अहमियत समझी जाती है कि रास्तों के बंद हो जाने का मतलब है, देश का थम जाना। पर हमारे देश में बर्फबारी के दौरान राजमार्गों को बंद करना बेहद आम है। ऐसे में जब कभी रास्ते 15 या अधिक दिनों के लिए बंद होते हैं, तो महज हफ्ते भर के राशन के साथ चल रहे ट्रक-ड्राइवरों को कई बार भूखे सोना पड़ता है। यह कितनी बड़ी त्रासदी है- इससे इससे समझा जा सकता है कि सड़कें बंद होने पर पर्यटक विमानों से आ-जा सकते हैं, लेकिन ट्रक ड्राइवर अपना वाहन और उसमें लदा सामान आखिर किसके हवाले छोड़कर जा सकते हैं।

पर्यावरण त्रासदियों पर बहस-मुहाबिसे करने वाला समाज अगर प्रशासन, सरकार के कुप्रबंधों और जनता के लालच व असंवेदनशीलता पर भी जरा नजर डालें, तो शायद बर्फबारी के दौरान उपजने वाले संकटों का कुछ समाधान संभव है। बेशक भारत मोटे तौर पर एक गर्म मुल्क है, लेकिन उत्तर भारत की बर्फबारी की एक समस्या के रूप में अनदेखी किसी भी नजरिये से ठीक नहीं कही जा सकती है। बर्फ को अगर करीब से देखना रोमांचक है, आह्लादकारी है तो उसकी परतों में मौजूद संकटों और दर्द की भी कहीं कोई सुनवाई तो होनी ही चाहिए।

हिमस्खलन से बढ़ता जोखिम % बर्फबारी का एक सर्द पहलू पर्वतीय इलाकों में हिमस्खलन (एवलांच) की घटनाओं से जुड़ा है। भारतीय सेना लद्दाख समेत जम्मू-कश्मीर के अलावा जिन अन्य उत्तरी राज्यों में तैनात है, वहां एवलांच एक खौफ का पर्याय माने जाते हैं। तीन साल पहले लद्दाख के खार्दुंग-ला इलाके में 18 जनवरी 2019 को अचानक हुए हिमस्खलन में इलाके से गुजर रहे सेना के दो ट्रक फंस गए थे। हादसे में करीब आधा दर्जन सैनिकों ने जान गंवाई थी। हालांकि तब सियाचिन के बेस कैंप से आधुनिक उपकरणों से लैस स्पेशल एवलांच रेस्क्यू पैंथर्स टीम ने तत्काल राहत कार्य चलाया था, लेकिन तब मांग उठी थी कि सेना को बर्फबारी के दौरान बेहद दुर्गम बर्फीले स्थानों से वापस बुला लेना चाहिए। फरवरी 2016 में सियाचिन स्थित सोनम पोस्ट पर एक भारतीय चौकी एवलांच की चपेट में आई तो मद्रास रेजिमेंट के नौ सैनिक की जान चली गई। हालांकि इसी हादसे में छह दिन बाद कई फुट बर्फ में धंसे सैनिक लांस नायक हनुमनथप्पा जीवित निकाले गए थे, लेकिन कोमा में चले जाने के कारण अंतत: उन्हें बचाया नहीं जा सका। करीब एक दशक के दौरान हुए हादसों के मद्देनजर यह राय बनती है कि बर्फ और हिमस्खलन सेना और पर्यटकों के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन गई है। अमेरिका स्थित कोलराडो एवलांच इंफार्मेशन सेंटर के मुताबिक एवलांच की चपेट में आए प्रत्येक तीन में से एक व्यक्ति को बचाया जा सकता है, बशर्ते एवलांच गिरने या उसके टूटने की सही समय पर जानकारी मिल जाए। असल में बर्फीले तूफान या एवलांच के अत्यधिक जोखिम वाले इलाकों में ऐसी घोषणाएं की जाती हैं, ताकि लोग ऊंचाई वाले उन स्थानों की ओर नहीं जाएं। हमारे देश में मनाली स्थित हिम एवं अवधाव अध्ययन संस्थान (सासे) हर बार ऐसी ही चेतावनी हिमाचल प्रदेश में जारी करता है। इसी तरह दुनिया के अनेक देशों में हिमस्खलन संबंधी अलर्ट जारी करने की परंपरा है। पर इन चेतावनियों के बावजूद बर्फ कई बार जानलेवा बन जाती है। भू

मध्यरेखीय देश भारत में बर्फबारी उतनी खतरनाक नहीं होती है, जितनी कि उत्तरी गोलार्ध में स्थित देशों में। स्विटजरलैंड, कनाडा जैसे देश तो हर साल बर्फ का प्रचंड रूप देखते हैं। वहां हर साल एवलांच सड़कों, पुलों और भवनों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि इन देशों में जनसंख्या का बड़ा भाग पहाड़ी इलाकों में बसा हुआ है, न कि मैदानी इलाकों में। स्विटजरलैंड में वहां की लगभग 65 फीसद आबादी पर्वतीय इलाकों में है। इसलिए वहां के लोग हमेशा एवलांच के निशाने पर रहते हैं। हाल के दशकों में स्विटजरलैंड ही नहीं, पूरी दुनिया में बर्फ से जुड़े पर्यटन ने काफी जोर भी पकड़ा है, इसलिए बर्फीले स्थानों पर स्की रिसाट्र्स, स्कीइंग से जुड़े संस्थानों तथा रेस्टोरेंट व होटलों की भरमार है और एवलांच का खतरा उनके लिए भी काफी ज्यादा है। लेकिन सतर्कता और उच्च कोटि के प्रबंधन के बल पर विकसित देशों में बर्फबारी की त्रासदियों पर काफी काबू पाया है। भारत-पाकिस्तान में भी ऐसा किया जा सकता है, बशर्ते मानवीय संवेदनाओं को तरजीह दी जाए और सरकार-प्रशासन से जुड़े लोग व विभाग अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाएं।

(एसोसिएट प्रोफेसर, बेनेट यूनिवर्सिटी)

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