गांधीवादी मूल्यों की हो रही अनदेखी, दूसरों को परेशानी पहुंचा कर किया जा रहा विरोध प्रदर्शन

दूसरों को परेशानी पहुंचाने वाले विरोध प्रदर्शनों को देखकर यही लगता है कि आज लोगों का गांधीवादी मूल्यों से कहीं कोई सरोकार ही नहीं।

By Dhyanendra SinghEdited By: Publish:Fri, 31 Jan 2020 01:21 AM (IST) Updated:Fri, 31 Jan 2020 01:42 AM (IST)
गांधीवादी मूल्यों की हो रही अनदेखी, दूसरों को परेशानी पहुंचा कर किया जा रहा विरोध प्रदर्शन
गांधीवादी मूल्यों की हो रही अनदेखी, दूसरों को परेशानी पहुंचा कर किया जा रहा विरोध प्रदर्शन

[जगमोहन सिंह राजपूत]। जनवरी के महीने में तीन तारीखें ऐसी आती हैं जब स्वतंत्रता संग्राम की यादें ताजा हो उठती हैं। इनमें एक तारीख तो 23 जनवरी की है जिस दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती मनाई जाती है। उनके जरिये आजाद हिंद फौज यानी आइएनए के 26000 शहीदों को भी याद किया जाता है जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। इसके साथ ही यह टीस भी उभरती है कि देश नेताजी और उनके साथियों के प्रति स्वतंत्रता के बाद न्याय नहीं कर पाया। वह नेताजी ही थे जिनसे प्रेरणा पाकर भारतीय नौसेना ने 18 फरवरी,1946 को जो विद्रोह किया था उसने अंग्रेजों को दहला दिया। नेताजी के स्मरण के साथ यह चर्चा भी होती है कि अब उनके एवं अन्य क्रांतिकारियों के योगदान के तथ्य आधारित विश्लेषण का समय आ गया है। दिल्ली में नेताजी का एक स्मारक बनाने के प्रयासों को अब साकार रूप देना ही चाहिए।

महापुरुषों ने देश के लिए मिसाल पेश की

सुभाष जयंती के तीन बाद ही 26 जनवरी का दिन प्रसन्नता लाता है। साथ ही यह प्रत्येक संवेदनशील मनमानस को झकझोरता भी है। इसके साथ ही हम तिलक, गोखले, गांधी, पटेल, आंबेडकर, सावरकर, नेहरू, राजेंद्र प्रसाद जैसे अनेकानेक महापुरुषों को भी याद करते हैं जिन्होंने देश के लिए अपना सब कुछ समर्पित कर मिसाल पेश की। उनके विचारों और मूल्यों के ठोस आधार पर निर्मित भारत के संविधान ने जिस प्रकार समाज के प्रत्येक वर्ग को समता, समानता एवं सद्भाव का आश्वासन दिया, वह परंपरागत उच्चस्तरीय मानवीय चिंतन का परिणाम था जो वसुधैव कुटुंबकम जैसे दर्शन की समझ से ही संभव था।

संविधान में सभी धर्मों को एकसमान स्थान

पूरा विश्व तब अचंभित रह गया जब हिंदू-मुस्लिम के आधार पर विभाजित भारत ने अपने संविधान में सभी धर्मों को एकसमान स्थान दिया। भारत ने विविधता में एकता की भावना को सदा के लिए स्वीकार कर लिया। अल्पसंख्यकों के लिए अपने संविधान में विशेष प्रावधान किए। अनेक लोग यह यह भूले नहीं हैं कि जिन परिस्थितियों में भारत का विभाजन हुआ था, उनमें यदि भारत स्वयं को हिंदू राष्ट्र घोषित करता तो दुनिया उसे परिस्थितिजन्य निर्णय ही मानती।

ऐसा न किए जाने का श्रेय भारत की उस महान प्राचीन भारतीय संस्कृति और दर्शन को ही जाता है जिसने प्रत्येक मानव को ईश्वर का अंश माना, उनको भी जो ईश्वर के अस्तित्व को ही नकारते थे! भारत ने पंथिक मतभिन्नता को सदा स्वीकार किया तथा इस आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया। प्रत्येक पंथ को समानता का अधिकार दिया, उनको भी जो स्पष्ट रूप से घोषित करते रहे कि केवल उनका ही पंथ सर्वश्रेष्ठ है।

गांधी जी के विचारों से प्रेरणा

लगभग एक सदी पहले से ही संपूर्ण विश्व सत्य और सत्याग्रह पर आधारित गांधी की अवधारणा को ध्यानपूर्वक देखता रहा। मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला जैसे मनीषियों ने अन्याय और शोषण तथा अपमानजनक स्थितियों से छुटकारा पाने के गांधी जी के विचारों और उनकी सार्थकता को न केवल समझा, बल्कि उनसे प्रेरणा लेकर अनुसरण किया और उसमें सफलता पाई। गांधी और उनके विचार वैश्विक स्तर पर समझे और सराहे गए।

भारत के संविधान निर्माता वही थे जिन्हें गांधी ने व्यक्तित्व प्रदान किया था। उसे व्यावहारिक स्वरूप में लागू करने वाले भी वही थे। यह हमेशा ही चर्चा का विषय बना रहेगा कि क्या गांधी जी के निकट सहयोगी स्वतंत्रता के बाद उनके विचारों का अपेक्षित सम्मान कर पाए या उन्होंने जानबूझकर उनसे मुंह मोड़ लिया? भारत जब गर्व और गौरव के साथ अपना गणतंत्र दिवस मनाता है, तब प्रत्येक भारतवासी उन सेनानियों को याद करता है जिनके त्याग, तपस्या तथा बलिदानों के कारण ही यह दिन नसीब हुआ।

अपने दुश्मनों से भी प्यार करो

चर्चा चाहे 23 जनवरी की हो या 26 जनवरी की, उसमें गांधी की गरिमामय उपस्थिति निरंतर बनी रहती है। इसके बाद आती है 30 जनवरी की तारीख जिस दिन गांधी हमारे बीच से हमेशा के लिए चले गए। 30 जनवरी, 1948 की वह शाम दिल दहलाने वाली थी। बापू ने तो यह उपदेश दिया था कि ‘अपने दुश्मन से भी प्यार करो’, लेकिन वह मानते थे कि यह उन पर लागू नहीं होता, क्योंकि उनका कोई दुश्मन ही नहीं है। जो व्यक्ति अपने जीवन में केवल सामाजिक और पंथिक सद्भाव और पंथिक भाईचारे को बढ़ाने में लगा रहा, क्या उसकी हत्या भी हो सकती थी?

आज जब बात-बात पर गांधी के नाम की माला जपी जा रही है तब ऐसा करने वालों को खास तौर पर अपने से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि वह गांधीवादी मूल्यों के प्रति कितना समर्पित है? यह प्रश्न विशेष रूप से उन नेताओं को स्वयं से पूछना चाहिए जो गांधी की तस्वीर अपनी सभाओं में लगाते हैं, विरोध-प्रदर्शन वाले स्थानों पर उनकी मूर्तियों पर माला चढ़ाते हैं और फिर न केवल उन्हें भुला देते हैं, बल्कि उनकी मान्यताओं एवं मूल्यों को धूल-धूसरित करते रहते हैं।

शिक्षा संस्थानों और शहरों में विरोध प्रदर्शन

इस नए साल के साथ ही इक्कीसवीं सदी का तीसरा दशक भी प्रारंभ हो गया है। इस वर्ष अभी तक देश के तमाम शिक्षा संस्थानों और शहरों में विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं। दिल्ली में महीने भर से चल रहे एक ऐसे धरने की काफी चर्चा है कि वह वृद्ध महिलाओं द्वारा आयोजित किया गया है। यदि ऐसा होता तो यह प्रदर्शन कितना पवित्र माना जाता। मेरे जैसा व्यक्ति महिलाओं की स्वत:जनित अभिव्यक्ति का हृदय से स्वागत करता, मगर छोटे-छोटे बच्चों का वहां बैठाया जाना और उनके मुंह से हिंसक वाक्य बुलवाना किस सभ्य समाज में स्वीकृत होगा?

प्रदर्शन से दिल्ली वालों को हो रही परेशानी

हर वह व्यक्ति जो विश्लेषण की शक्ति का थोड़ा सा भी उपयोग कर सकता है, जानता है कि यह प्रदर्शन प्रायोजित है। इसके पीछे कुछ स्वार्थी तत्व अपना भविष्य खोज रहे हैं। देश की संपत्ति जलाई गई, संस्थानों में जबरदस्ती विद्यार्थियों को परीक्षा देने से रोका गया। इस धरना-प्रदर्शन से प्रतिदिन केवल दिल्ली में ही दो लाख गाड़ियों को मार्ग बदलना पड़ रहा है। इसके चलते कम से कम दस लाख लोग प्रतिदिन कष्ट उठाने पर मजबूर हैं। लाखों बच्चों को स्कूल जाने में परेशानी हो रही है। जो विरोध में नहीं हैं, वे भी प्रताड़ित हो रहे हैं। व्यवसायी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। उनके यहां काम करने वाले मजदूर खाली हाथ हैं। दूसरों की असुविधा की कोई चिंता क्यों करे?

यह विरोध गांधी के देश में किया जा रहा है जिन्होंने पूरे देश को शांतिपूर्ण प्रदर्शन तथा विरोध करने का न केवल तरीका सिखाया, बल्कि उसे अपनाकर अद्वितीय सफलताएं भी हासिल कीं। आज लोगों को उनसे कोई सरोकार ही नहीं दिखाई देता है। क्या स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों को भुलाकर संविधान की रक्षा हो सकेगी?

 

(लेखक शिक्षा एवं सामाजिक समन्वय के क्षेत्र में कार्यरत हैं) 

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