छात्रों के लिए बोझ बनी शिक्षा, तौर-तरीकों और साथ युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर भी गंभीरता से देना होगा ध्यान

भारत में मानसिक परामर्श के लिए उचित ढांचे का अभाव भी एक बड़ी समस्या है। न केवल हमारे पास प्रशिक्षित और प्रमाणित मनोवैज्ञानिकों की कमी है बल्कि हम स्वघोषित परामर्शदाताओं का चलन भी देख रहे हैं जो अक्सर लाभ से अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। हम मानसिक समस्याओं और अवसाद को समझ नहीं पाते और फिर ऐसी स्थिति के लिए मदद मांगने में संकोच भी करते हैं।

By Jagran NewsEdited By: Narender Sanwariya Publish:Fri, 29 Mar 2024 11:45 PM (IST) Updated:Fri, 29 Mar 2024 11:45 PM (IST)
छात्रों के लिए बोझ बनी शिक्षा, तौर-तरीकों और साथ युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर भी गंभीरता से देना होगा ध्यान
छात्रों के लिए बोझ बनी शिक्षा, युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीरता से देना होगा ध्यान (File Photo)

सृजन पाल सिंह। राजस्थान के कोटा शहर में मेडिकल और इंजीनियरिंग परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्रों के आत्महत्या करने की खबरें थम नहीं रहीं। पिछले दिनों एक दिन के अंतराल से दो छात्रों के आत्महत्या करने की खबर आई। कोटा में इस वर्ष अब तक आठ विद्यार्थी अपनी जान दे चुके हैं। 16 साल के ऐसे ही एक लड़के ने आत्महत्या करने के पहले एक नोट छोड़ा, जिसमें लिखा था, ‘सारी पापा, आइआइटी नहीं हो पाएगा।’ हम नियमित रूप से स्कूली बच्चों, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले अभ्यर्थियों और यहां तक कि आइआइटी जैसे शिक्षण संस्थानों में ऐसी घटनाओं के विषय में सुनते रहते हैं, जहां दबाव से निपटने में मुश्किलों का सामना करने के कारण छात्र अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेते हैं। नए भारत में बुझते इन युवा दीपकों से अधिक निराशाजनक और कुछ नहीं हो सकता।

हालिया आंकड़ों के अनुसार एक साल में 1,70,000 से अधिक भारतीयों ने आत्महत्या की। वर्ष 2022 में प्रति एक लाख जनसंख्या पर आत्महत्या की दर बढ़कर 12.4 हो गई है। आत्महत्या के मामले में यह अभी तक की सबसे ऊंची दर है। भारत की आत्महत्या दर वैश्विक दर से 20 प्रतिशत अधिक है। भारत में आत्महत्याएं अस्वाभाविक मृत्यु का सबसे बड़ा कारण हैं।

आत्महत्या से होने वाली जनहानि सड़क दुर्घटनाओं में जान गंवाने वालों से भी छह गुना अधिक है। और भी चिंताजनक बात यह है कि भारत की युवा पीढ़ी जीवन के दबाव को सहने में भारी कठिनाई महसूस कर रही है। हर वर्ष आत्महत्या की मनोवृत्ति ने 10,000 से अधिक ऐसे लोगों को अपनी चपेट में लिया, जिनकी आयु 18 वर्ष से कम रही। यह भी उल्लेखनीय है कि देश में आत्महत्या करने वालों में लगभग 70,000 की आयु 30 वर्ष से कम थी।

भारतीय युवाओं को आत्महत्या करने के लिए आखिर क्या मजबूर करता है? इसे समझना और इसका निवारण उस देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, जहां दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी निवास करती है। सबसे पहले हमें यह समझना होगा कि भारतीय युवा विशेषकर किशोर भारी शैक्षणिक दबाव से गुजरते हैं। हम एक ऐसी शिक्षा प्रणाली में विकसित हो गए हैं, जहां 99 प्रतिशत अंक प्राप्त करना भी किसी छात्र को श्रेष्ठ कालेजों में प्रवेश दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता।

हाल में मैंने छठी कक्षा के छात्रों के लिए सिविल सेवा परीक्षा की कोचिंग के विज्ञापन देखे। जिस उम्र में बच्चों को सपने देखने चाहिए, हम उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं की राह पर धकेल दे रहे हैं। नौवीं कक्षा का बच्चा अक्सर इस बात से परेशान रहता है कि हर रिश्तेदार और परिचित उसे मिलते ही यह कहकर एक प्रकार से डराएगा कि ‘अगले साल बोर्ड परीक्षा है!’ ऐसी व्यवस्था में शिक्षा कभी न खत्म होने वाला बोझ बन जाती है और इस प्रक्रिया में ज्ञान अर्जित करने की यात्रा का स्वाभाविक आनंद भी समाप्त हो जाता है।

यह सब तब है जब यह सत्य किसी से छिपा नहीं कि जीवन की सफलता किसी एक परीक्षा पर निर्भर नहीं करती। इस विकराल होती समस्या का समाधान खोजें तो हमें अपनी उस व्यवस्था को बदलना होगा, जहां दो-तीन घंटे की परीक्षा किसी युवा की क्षमता को आंकने का इकलौता पैमाना है। हमें एक ऐसी संस्कृति पोषित करने की आवश्यकता है, जहां ज्ञान को समझना, आनंद लेना और जीवन में उसे उपयोग में लाना अधिक महत्वपूर्ण है, न कि तथ्यों और आंकड़ों को याद रखना।

हमें भारत के टीयर-2 कालेजों को बेहतर बनाने में निवेश करने की जरूरत है, ताकि हमेशा ‘टाप’ करने का दबाव कम हो। हम एक ऐसे परीक्षण तंत्र का पोषण करें, जहां शैक्षणिक अंकों के अलावा, खेल, नेतृत्व, सामाजिक कार्य, संगीत, नवाचार और कला भी कालेजों और प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं के लिए मूल्यांकन-चयन सूची को अंतिम रूप देने में एक कारक बनें।

समस्या का एक नया उभरता पहलू है इंटरनेट मीडिया का बेलगाम विस्तार। इंटरनेट मीडिया निरंतर युवाओं को महंगी वस्तुओं का उपभोग और नवीनतम गैजेट रखने के लिए उकसा रहा है। विडंबना यह है कि माता-पिता ही इस प्रवृत्ति को पनपने दे रहे हैं। इंटरनेट मीडिया के माध्यमों से युवाओं में अजीब तरह की होड़ उत्पन्न हुई है। वे अपनी तथाकथित उपलब्धियों का दिखावा करने में लग जाते हैं। वे वस्तुओं से लेकर अपने सैर-सपाटे की गतिविधियों का बखान करते हैं, जिससे कई दूसरों बच्चों में हीन भावना उत्पन्न होती है।

कई बच्चे तो अनैतिक साधनों का सहारा भी लेने लगते हैं। कुछ महीने पहले की बात है कि एक स्कूल के पुरस्कार वितरण में मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मंच पर पुरस्कार लेने आने वाला लगभग हर बच्चा 40-50 हजार रुपये मूल्य वाली स्मार्टवाच पहने हुए था। इसने मुझे लखनऊ में मेरी स्कूली शिक्षा की याद दिला दी, जहां मेरी प्रधानाध्यापिका ने समानता एवं विनम्रता को बढ़ावा देने के लिए महंगे और फैंसी स्कूल बैग पर प्रतिबंध लगा दिया था। बच्चों को सिखाया जाना चाहिए कि सच्चा धन ज्ञान में है। छात्रों के बीच इस तरह के गैजेट एवं ऐशो-आराम की वस्तुओं की होड़ को घटाने के सक्रिय प्रयास करने होंगे।

भारत में मानसिक परामर्श के लिए उचित ढांचे का अभाव भी एक बड़ी समस्या है। न केवल हमारे पास प्रशिक्षित और प्रमाणित मनोवैज्ञानिकों की कमी है, बल्कि हम स्वघोषित परामर्शदाताओं का चलन भी देख रहे हैं, जो अक्सर लाभ से अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। हम मानसिक समस्याओं और अवसाद को समझ नहीं पाते और फिर ऐसी स्थिति के लिए मदद मांगने में संकोच भी करते हैं। पुरुषों के मामले में यह विशेष रूप से प्रत्यक्ष दिखता है।

उल्लेखनीय है कि भारत में पुरुषों की आत्महत्याएं महिलाओं की तुलना में दोगुनी हैं। यदि भारत को अपनी युवा आबादी से लाभ उठाना है तो हमें युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य और आत्महत्या के मुद्दे को परिवारों, स्कूलों, कालेजों और नीतिगत स्तर पर उठाकर उन पर तत्काल ध्यान देना होगा। ठोस कदम उठाकर, शोध और अंतराष्ट्रीय मिसालों से प्रेरित होकर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों से लड़ना होगा और युद्धस्तर पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी भ्रांतियों को मिटाना होगा। जहां शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हम बजट में प्रविधान करते हैं, उसी प्रकार मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी एकाग्रता से प्रयास करना होगा।

(पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के सलाहकार रहे लेखक कलाम सेंटर के सीईओ हैं)

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