लोक संस्कृति से जुड़े शिक्षा: आधुनिकता के दौर में पारंपरिक एवं सांस्कृतिक ज्ञान की महत्ता को समझना चाहिए

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने शिक्षा को संस्कृति से जोड़ने का आह्वान किया। इससे शिक्षा एवं संस्कृति के बीच गहरे अंतरसंबंध का हमें भान होगा।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 02 Sep 2019 12:13 AM (IST) Updated:Mon, 02 Sep 2019 12:13 AM (IST)
लोक संस्कृति से जुड़े शिक्षा: आधुनिकता के दौर में पारंपरिक एवं सांस्कृतिक ज्ञान की महत्ता को समझना चाहिए
लोक संस्कृति से जुड़े शिक्षा: आधुनिकता के दौर में पारंपरिक एवं सांस्कृतिक ज्ञान की महत्ता को समझना चाहिए

[ बद्री नारायण ]: केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने हाल में भारत में शिक्षा को संस्कृति से जोड़ने का आह्वान किया। इस पर लोगों ने तुरंत ही सहमति और असहमति व्यक्त करनी शुरू कर दी। मानव संसाधन विकास मंत्री के इस आह्वान पर हमारी असहमति हो सकती है, किंतु अगर गहराई में जाकर देखा जाए तो शिक्षा एवं संस्कृति के बीच गहरे अंतरसंबंध का हमें भान होगा। शिक्षा को अगर हम ज्ञान, कल्पना शक्ति एवं रचनाशीलता के विकास का माध्यम मानें तो इनके विकास में हर समाज की अपनी संस्कृतियों के प्रगतिशील तत्वों की बड़ी भूमिका होती है।

उपनिवेशवाद के हमले के बाद भी संस्कृतियां मरी नहीं

इन संस्कृतियों में कल्पना शक्ति, ज्ञान एवं रचनाशीलता के विकास एवं विस्तार के तत्व छुपे होते हैं। वे समाज जहां उपनिवेशवाद के हमले के बाद भी संस्कृतियां मरी नहीं हैैं, वहां संस्कृतियां शिक्षा व्यवस्था में पूरक तत्व का काम तो कर ही सकती हैं। पश्चिमी समाज जिनमें अधिकांश का विकास उपनिवेशवाद से प्राप्त ज्ञान शक्ति, अर्थ शक्ति एवं धर्म शक्ति के कारण हुआ है, उन्होंने पहले अपनी संस्कृतियों को मारा, फिर उन्हें संग्रहालयों में सजाकर रख दिया।

उपनिवेशवाद ‘भारतीय आत्मा’ को निगल नहीं पाया

प्रसिद्ध दार्शनिक आनंद कुमार स्वामी का यह अवलोकन मौजूदा बहसों के लिए भी मुफीद है। वहीं दुनिया में ऐसे अनेक समाज हैं जो उपनिवेशवाद से बच गए और ऐसे अनेक समाज हैं जिन्हें उपनिवेशवाद लील गया। वहीं तीसरे प्रकार के समाज हैं जहां उपनिवेशवाद के प्रभाव से उनकी राष्ट्रीय आत्मा में विखंडन तो पैदा हुआ, किंतु अपनी विशिष्टताओं के कारण वहां की संस्कृतियां जीवित रहीं। भारत ऐसा ही समाज है। जहां उपनिवेशवाद ने अंतरविरोध तो सृजित किया, किंतु उसे ग्रस नहीं पाया। प्रसिद्ध समाजशास्त्री एके शरण ठीक ही मानते हैं कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने हमारी आत्मा में विखंडन पैदा किया, किंतु उपनिवेशवाद ‘भारतीय आत्मा’ को निगल नहीं पाया।

उपनिवेशवाद ने मानसिकता को बदला

हालांकि उसने हमारे भीतर एक प्रकार के विस्मरण का भाव पैदा कर दिया। इस विस्मरण के कारण हम अपने समाज की बहुल एवं विविध संस्कृतियों की आंतरिक शक्ति को समझ नहीं पाए। उनमें निहित रचनाशीलता, कल्पनाशीलता एवं ज्ञानकोश हमारे चिंतन एवं चिंता से दूर ही रहे। हमने अपनी संस्कृतियों को पिछड़ेपन का प्रतीक माना एवं उनमें निहित ‘देशज आधुनिकता’ के तत्वों को समझने से इन्कार किया। उपनिवेशवाद ने हमारी मानसिकता को इस कदर बदल दिया कि हम अपने प्रति ही हीनभावना से भर गए हैं।

अंधकार का युग

भारतीय आधुनिकता की जो परिकल्पना हमने की वह बहुत कुछ औपनिवेशिक आधुनिकता के मानकों पर आधारित थी। हमने यह सोचा भी नहीं कि अंग्रेजों के आने के पहले तक भारतीय समाज कैसे चला, क्या उसमें आधुनिकता के तत्व नहीं थे, क्या उसमें प्रगतिशील, ऊर्जावान एवं भविष्य को रचने वाले कुछ भी तत्व नहीं थे? हमने अपने औपनिवेशिक पूर्व के अतीत को नकारा ही नहीं, कई बार उसे अंधकार का युग माना। हमने यह नहीं सोचा कि उसी समाज ने शंकराचार्य, वैदिक, बौद्ध ज्ञानियों से लेकर कबीर, रैदास, नानक, बुल्लेशाह जैसे ज्ञानियों को पैदा किया। वे वैचारिक वाद-विवाद, संवाद करते हुए भारतीय ज्ञान लोक को रचते रहे। उसी युग ने एक बेहतर भू-व्यवस्था एवं पर्यावरणीय सहअस्तित्व को स्थापित कर रखा था। उसी समाज ने एक ‘समग्र जीवन’ की परिकल्पना हमें दी। उसी ने हममें संतोष, परित्याग, लालच से मुक्ति के भाव पैदा किए।

विस्मृतिकरण के शिकार

जाहिर है कि हम उपनिवेशवाद द्वारा पैदा किए हुए विस्मृतिकरण का शिकार तो हुए ही, साथ ही उसी की देन आत्मग्लानि, आत्मधिक्कार के बोध से भी भरे रहे। फलत: हम अपने समाजों की लोक संस्कृतियों से भी कटे रहे, जो रचनात्मक ऊर्जा की अक्षुण्ण स्नोत रही हैैं। हालांकि उनके कुछ रूपों को हमने अपने मनोरंजन के लिए इस्तेमाल तो किया, किंतु उन्हें अपने पारंपरिक ज्ञानकोश के रूप में नहीं देखा। अफ्रीकी साहित्यकारों एवं चिंतकों ने औपनिवेशिक दमनग्रस्तता की पड़ताल करते हुए ऐसा ही कुछ अपने समाजों में भी पाया।

उपनिवेशवादी मानसिकता से निजात पाने के प्रयाश

केन्या के साहित्यकार अंगुमी वाश्योगों ने अपनी पुस्तक ‘डिकॉलोनाइजिंग माइंड’ में अपनी संस्कृति, चिंतन एवं साहित्य के संदर्भ में औपनिवेशिक संकटग्रस्तता की चर्चा करते हुए आत्म भाषा एवं अपने समाज की संस्कृति को उपनिवेशवादी मानसिकता से निजात पाने के लिए ‘हथियार’ के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश की है। भारतीय संदर्भ में राहुल सांकृत्यायन, आनंद कुमार स्वामी, गोविंद चंद्र पांडेय, एके सरन और वासुदेव शरण जैसे ज्ञानी ऐसे ही प्रयास करते रहे हैं।

शिक्षा को उपनिवेशी प्रभाव से मुक्त करने की जरूरत

हमारी शिक्षा को भी क्या उपनिवेशी प्रभाव से मुक्त करने की जरूरत नहीं है? निश्चित रूप से आज इसकी आवश्यकता है। इसे औपनिवेशिक छाया से बाहर निकालने में हमारे समाज की बहुल संस्कृतियां एवं उनमें निहित लोक विवेक एक ‘हथियार’ का काम कर सकते हैैं। भारत में आधुनिक शिक्षा सबकी जरूरत है। किंतु सांस्कृतिक विवेक से आधुनिक शिक्षा को जोड़ने के दो लाभ हो सकते हैं। एक तो आधुनिकता से लाभ हम उठा ही पाएंगे, साथ ही आधुनिकता से पैदा होने वाली संकटग्रस्तता को भी हम इसके माध्यम से कम कर सकते हैं। दूसरे, सांस्कृतिक ज्ञानकोश हमारे लिए आधुनिक ज्ञान के पूरक का काम भी कर सकता है।

संस्कृति एवं शिक्षा

सांस्कृतिक ज्ञानकोश मूल्यबोध, विवेक दृष्टि का कोश तो होता ही है, इसमें तकनीकी विशेषज्ञता भी निहित होती है। आधुनिकता हमारी शक्ति है, परंतु इसकी अनेक सीमाएं भी होती हैं। पारंपरिक ज्ञान और सांस्कृतिक ज्ञान इसकी सीमाओं को कम करने में हमारी मदद कर सकते हैैं। अनेक भारतीय संस्थाएं जैसे जे कृष्ष्णामूर्ति से जुड़े शिक्षा संस्थान, श्री अरबिंदो से जुड़े संस्थान, विवेकानंद केंद्र इत्यादि भारतीय संस्कृति की सृजनात्मकता को अपनी शिक्षा पद्धति से बहुत अच्छी तरह से जोड़ रहे हैं। कबीर, रविदास, स्वामी शिवनारायण जैसे पंथों से जुड़े शिक्षा संस्थान भी संस्कृति एवं शिक्षा को जोड़ने का काम कर रहे हैं।

जरूरत है वैकल्पिक शिक्षा पद्धति की

जरूरत है वैकल्पिक शिक्षा पद्धति एवं मुख्य शिक्षा पद्धति भी समाज के विविध सामाजिक समुदायों में संचित लोकज्ञान को अपनी शिक्षा पद्धति में महत्व दे और शिक्षा लोक में सामाजिक समुदायों की सांस्कृतिक मुखरता को जगह दे। तभी हम अपने लिए ऐसी शिक्षा व्यवस्था विकसित कर सकते हैं जो आधुनिकता से उपजी संकटग्रस्तता से हमें मुक्त कर सकती है।

( लेखक प्रयागराज स्थित गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक हैैं )

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