Analysis: अभी भी शेष है बाबा साहब का सपना

बाबा साहब के अनुयायियों ने भी एकता बढ़ाने वाली बंधुता सुनिश्चित करने की जहमत नहीं उठाई

By Srishti VermaEdited By: Publish:Sat, 14 Apr 2018 08:42 AM (IST) Updated:Sat, 14 Apr 2018 08:42 AM (IST)
Analysis: अभी भी शेष है बाबा साहब का सपना
Analysis: अभी भी शेष है बाबा साहब का सपना

नई दिल्ली (कृष्ण प्रताप सिंह)। बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर की ओर से देश और समाज की जो सेवा की गई उसके अनेक आयाम हैं, लेकिन संविधान निर्माण के वक्त उसकी प्रारूप समिति के अध्यक्ष के तौर पर निभाई गई जिस भूमिका ने उन्हें ‘संविधान निर्माता’ बना दिया वह इस अर्थ में अनमोल है कि आज हम अपनी राजनीति में नियमों, नीतियों, सिद्धांतों, नैतिकताओं, उसूलों और चरित्र के जिन संकटों से दो-चार हैं उनके अंदेशे उन्होंने तभी भांप लिए थे। उन्होंने संविधान लागू होने के पहले और उसके बाद बार-बार आगाह किया था कि ये संकट ऐसे ही बढ़ते गए तो न केवल संविधान, बल्कि आजादी को भी तहस-नहस कर सकते हैं। तब किसी ने भी उनकी आशंकाओं पर गंभीरता नहीं प्रदर्शित की।

उन्हें नजरंदाज करने वालों से तो इसकी अपेक्षा ही नहीं की जा सकती थी, लेकिन उन्हें पूजने वालों ने भी संकटों के समाधान के लिए सारे देशवासियों में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता बढ़ाने वाली बंधुता सुनिश्चित करने के लिए उनके सुझाए रास्ते पर चलने की जहमत नहीं उठाई। संविधान के अधिनियमित, आत्मार्पित एवं अंगीकृत होने से ऐन पहले, 25 नवंबर, 1949 को उन्होंने उसे ‘अपने सपनों का’ अथवा ‘तीन लोक से न्यारा’ मानने से इन्कार करके उसकी सीमाएं रेखांकित कर दी थीं। विधिमंत्री के तौर पर अपने पहले ही साक्षात्कार में डॉ. आंबेडकर ने कहा था, ‘मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो, यदि वे लोग जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाए, अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा।’ आंबेडकर ने चेताया था कि ‘संविधान पर अमल केवल संविधान के स्वरूप पर निर्भर नहीं करता।

संविधान केवल विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे राज्य के अंगों का प्रावधान कर सकता है। उन अंगों का संचालन लोगों पर और उनके द्वारा अपनी आकांक्षाओं एवं अपनी राजनीति की पूर्ति के लिए बनाए जाने वाले राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है।’ उन्होंने जैसे खुद से सवाल किया था कि आज की तारीख में जब हमारा सामाजिक मानस अलोकतांत्रिक है और राज्य की प्रणाली लोकतांत्रिक तब कौन कह सकता है कि भारत के लोगों और राजनीतिक दलों का भविष्य का व्यवहार कैसा होगा? शायद वे यह देख रहे थे कि आगे चलकर लोकतंत्र से हासिल सहूलियतों का लाभ उठाकर परस्पर विरोधी विचारधाराएं रखने वाले राजनीतिक दल बन जाएंगे। उनके निकट इसका सबसे अच्छा समाधान यह था कि सारे भारतवासी देश को अपने पंथ से ऊपर रखें, न कि पंथ को देश से ऊपर, लेकिन शायद ऐसा होने को लेकर वह आश्वस्त नहीं थे और इसीलिए यह कहने से खुद को रोक नहीं पाए, ‘यदि राजनीतिक दल अपने पंथ को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता एक बार फिर खतरे में पड़ जाएगी और संभवतया: हमेशा के लिए खत्म हो जाए।

हम सभी को इस संभाव्य घटना का दृढ़ निश्चय के साथ प्रतिकार करना चाहिए। हमें अपनी आजादी की खून के आखिरी कतरे के साथ रक्षा करने का संकल्प करना चाहिए।’ बाबा साहब के अनुसार संविधान लागू होने के साथ ही हम अंतर्विरोधों के नए युग में प्रवेश कर गए थे और सबसे बड़ा अंतर्विरोध था कि वह एक ऐसे देश में लागू हो रहा था जिसे संविधान के जरिये नागरिकों की राजनीतिक समता का उद्देश्य तो प्राप्त होने जा रहा था, लेकिन आर्थिक एवं सामाजिक समता कहीं दूर भी दिखाई नहीं दे रही थी। उन्होंने नवनिर्मित संविधान को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के हाथों में दिया तो आग्रह किया था कि वे जितनी जल्दी संभव हो, नागरिकों के बीच आर्थिक एवं सामाजिक समता लाने के जतन करें, क्योंकि इस अंतर्विरोध की उम्र लंबी होने पर उन्हें देश में उस लोकतंत्र के ही विफल हो जाने का अंदेशा सता रहा था, जिसके तहत ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ की व्यवस्था को हर संभव समानता तक ले जाया जाना था। आज यह किसी से छिपा नहीं कि सामाजिक एवं आर्थिक समता लाने के उनके आग्रह के उलट सत्ताओं का सारा जोर जातीय गोलबंदियों को मजबूत करने पर है। अगर बाबा साहब की भारतीयता की यह अवधारणा स्वीकार कर ली गई होती तो शायद परिदृश्य कुछ और होता कि-‘कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं, बाद र्में ंहदू या मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं है। मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें। भारतीय के अलावा कुछ भी न हों।’

 

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