अभिलाषा

मनुष्य की अपार क्षमता के कारण धर्मग्रंथों में कहा गया कि सभी जीवों में मनुष्य का स्थान सर्वोपरि है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Mon, 22 May 2017 12:51 AM (IST) Updated:Mon, 22 May 2017 12:51 AM (IST)
अभिलाषा
अभिलाषा

प्रत्येक व्यक्ति अथाह वैचारिक और बौद्धिक सामर्थ्य का पुंज है, भले ही उसे यह ज्ञात न हो। एक औसत मस्तिष्क में लगभग बारह अरब न्यूरॉन (मस्तिष्क कोशिकाएं) बताए गए हैं और प्रत्येक न्यूरॉन पच्चीस हजार अन्य न्यूरॉनों से तादात्म्य बना सकता है। यह क्षमता विश्व के विशालतम सुपर कंप्यूटर से कई गुना अधिक है। मनुष्य की अपार क्षमता के कारण धर्मग्रंथों में कहा गया कि सभी जीवों में मनुष्य का स्थान सर्वोपरि है। स्वयं में अंतर्निहित ऊर्जा के इस विपुल भंडार को नहीं पहचानने और इसे दोहन न कर सकने का कारण मात्र अज्ञान नहीं, बल्कि विश्व, राष्ट्र, समुदाय और परिवार में अपनी भूमिका को नहीं समझना है। जब हम यह जान जाएंगे तो हमारे समक्ष प्राकृतिक विधान के अनुरूप एक स्पष्ट अभिलाषा होगी और हम सद्गति के पात्र होंगे।
प्रभु ने मनुष्य को पृथ्वी में इस निमित्त नहीं भेजा है कि वह हर दिन सुख-सुविधाओं के जोड़तोड़ में रहे। सुविधायुक्त जीवन की अभिलाषा उस मार्ग से विपथ होना और उस दायित्व से मुंह मोड़ना है जो उसके लिए निर्धारित है। अपने खाने-रहने की व्यवस्था तो निम्नतर श्रेणी के जीव भी कर लेते हैं। जिस परमशक्ति के हम अंश हैं उसने हमें अथाह सामर्थ्य इसलिए नहीं प्रदान की कि दैहिक इच्छाओं की तुष्टि से इतर हमें कुछ न सूझे। हमसे प्रभु की कई अपेक्षाएं हैं। वही मानवीय अभिलाषा सार्थक होगी जो प्रभु द्वारा रचित, नियामित व्यवस्था को संवारने में योगदान करे, परिजनों और अन्य सहचर प्राणियों से जुड़ाव, सद्भाव, प्रेम आदि रचनात्मक भावों को सिंचित व सुदृढ़ करे। नए मकान की खरीद, संतान को अच्छी सैलेरी मिलना या देश-विदेश में संपदा जुटाने पर इतराना प्राकृतिक विधान के प्रतिकूल और संकीर्ण सोच का परिचायक है। हमारे आदि ग्रंथों और पाश्चात्य दर्शन में भौतिक इच्छाओं की दुखांत परिणति का बारबार उल्लेख है। अमेरिकी विचारक अलबर्ट पाइक के अनुसार ‘जो हम अपने लिए करते हैं वह हमारे साथ नष्ट हो जाता है, किंतु जो हम दूसरों और दुनिया के लिए करते हैं वह अमर हो जाता है।’ निजी तुष्टीकरण का भाव हावी होने से हम प्रभु के विधान में सहयोग करने में अक्षम, अशांत और क्षुब्ध रहेंगे और हमारी आत्मा प्रफुल्लित नहीं होगी। यह भी आवश्यक नहीं कि भौतिक वस्तुओं की मिल्कियत हमें सुख दे। जीवन के परम दायित्व के निर्वाह में अपनी अभिलाषा को परखते हुए अपना आचरण ढालने से जीवन सार्थक होगा।
[ हरीश बड़थ्वाल ]

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