दोहरे मानदंडों वाला घातक रवैया, महिला विरोधी अपराधों को जाति-मजहब के आधार पर देखना खतरनाक

किसी भी समाज के लिए दोहरा मानदंड ठीक नहीं। भारत में भी पिछले कुछ वर्षों से यह बात देखने को मिली है। अल्पसंख्यक और विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय के नेता एवं वामपंथी बुद्धिजीवी घटना विशेष पर दोहरा मानदंड दिखाते हुए अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं।

By JagranEdited By: Publish:Wed, 28 Sep 2022 11:42 PM (IST) Updated:Wed, 28 Sep 2022 11:42 PM (IST)
दोहरे मानदंडों वाला घातक रवैया, महिला विरोधी अपराधों को जाति-मजहब के आधार पर देखना खतरनाक
महिला विरोधी अपराध के मामलों को जाति-मजहब के आधार पर देखने की प्रवृत्ति खतरनाक है।

ताहिर अनवर : अपने देश में अपराध की किसी न किसी घटना को लेकर बहस और विवाद छिड़ा ही रहता है, लेकिन यह भी देखने को मिलता है कि ऐसे किसी प्रकरण में तो जोरदार बहस होती है तो उसी तरह अन्य के मसले पर मौन साध लिया जाता है। इसका हालिया उदाहरण है लखीमपुर खीरी में दलित समुदाय की दो किशोरियों से दुष्कर्म के बाद हत्या का सनसनीखेज मामला। यह मामला यकायक सुखियों से बाहर हो गया, जबकि यह ऐसी घटना थी, जिस पर व्यापक चर्चा होनी चाहिए थी। यह हमारे देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी अवांछित घटनाएं होती ही रहती हैं। ऐसे कुछ मामले तो राष्ट्रीय मसला बन जाते हैं, किंतु कुछ पर राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी मौन साध लेते हैं।

कभी-कभी ऐसी घटनाओं पर दोषियों का बचाव करने वाले या फिर अपराध को जातीय या मजहबी दृष्टि से देखने वाले संकीर्ण राजनीति करना शुरू कर देते हैं, जबकि ऐसी निंदनीय घटनाओं को केवल सामाजिक नैतिकता के मूल्यों के आधार पर आंकना चाहिए। ऐसी घटनाओं के लिए आम तौर पर लोग फौरन शासन-प्रशासन को जिम्मेदार ठहरा देते हैं, जबकि शासन-प्रशासन पर अंगुली उठाने से पहले हमें समाज एवं सामाजिक परिवेश पर ध्यान देना आवश्यक है। इस तरह की घटनाओं में यही देखने को अधिक मिलता है कि आरोपितों की मानसिकता अपराध के लिए जिम्मेदार होती है।

यह चिंता की बात है कि तमाम कठोर कानूनों के बाद भी महिला विरोधी अपराध बढ़ते जा रहे हैं। इसका कारण यही है कि उस मानसिकता पर प्रहार नहीं हो रहा है, जो ऐसे अपराधों के लिए जिम्मेदार है। लखीमपुर खीरी मामले में दोषी माने जा रहे आरोपितों की पहचान हो गई है और उनकी गिरफ्तारी भी कर ली गई है। अभी तक की जानकारी में दुष्कर्म एवं हत्या के इस मामले में कुल छह आरोपित पकड़े गए हैं। इनमें छोटू गौतम, जुनैद, सुहैल, आरिफ, करीमुद्दीन और हफीजुर्रहमान हैं। अल्पसंख्यक समुदाय का कोई बड़ा प्रतिनिधि इस दरिंदगी की निंदा के लिए खुलकर सामने नहीं आया। जिन्होंने इस घटना की निंदा की, उनकी प्रतिक्रिया में राजनीति अधिक दिखाई दी।

इससे पहले हाथरस, उन्नाव के मामलों में खूब राजनीति हुई। इसके और पहले जम्मू के कठुआ में एक बच्ची के साथ दुष्कर्म एवं हत्या का मामला तो राष्ट्रीय मसला बन गया था। इस मामले पर न केवल अल्पसंख्यक समुदाय, बल्कि कई फिल्मी सितारे और वामपंथी खुल कर सामने आए थे। कठुआ कांड को राजनीतिक रंग देने के लिए समुदाय विशेष के साथ अन्याय एवं दोषियों को समुदाय विशेष से जोड़ कर देखा जा रहा था, लेकिन ऐसा करने वाले लखीमपुर खीरी मामले में शांत पड़ गए। आखिर क्यों? अगर ऐसे किसी मामले में पीड़ित अल्पसंख्यक समुदाय के होते तो शायद देश में आज तक हंगामा मचा होता। कई घटनाओं में यह देखा गया है कि जब आरोपित अल्पसंख्यक समुदाय से हो तो या तो उसे निर्दोष बताने का प्रयास किया जाता है या फिर मौन धारण कर लिया जाता है। इसी तरह अगर पीड़ित अल्पंसख्यक हो और आरोपित बहुसंख्यक तो फिर बड़े पैमाने पर विरोध और रोष दिखाया जाता है। कई बार यह हफ्तों तक जारी रहता है।

किसी भी समाज के लिए दोहरा मानदंड ठीक नहीं। भारत में भी पिछले कुछ वर्षों से यह बात देखने को मिली है। अल्पसंख्यक और विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय के नेता एवं वामपंथी बुद्धिजीवी घटना विशेष पर दोहरा मानदंड दिखाते हुए अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षित वर्ग को यह समझना होगा कि दोहरे मानदंड वाला रवैया किसी भी समुदाय के लिए हानिकारक होता है। यह रवैया धीरे-धीरे संबंधित समुदाय को दूसरे समुदायों से अलग करता जाता है।

यही नहीं दूसरे समुदायों में ऐसे समुदाय के प्रति वैमनस्य की भावना बढ़ती चली जाती है। इसके नतीजे अच्छे नहीं होते। किसी भी समुदाय के शिक्षित वर्ग और साथ ही उसका नेतृत्व करने वालों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने समाज के अशिक्षित वर्गों के सामने एकपक्षीय बनकर न रहें। उसे हर समुदाय के लिए एकसमान सोच रखना होगा। देश में होने वाले सभी अपराधों को भारत के मूल्यों एवं संविधान के तहत देखा जाए, न कि किसी समुदाय विशेष या मजहब विशेष से जोड़कर। दुष्कर्म और हत्या जैसी निर्मम घटनाओं में हमें अपराध एवं अपराधियों के सोच की निंदा करनी है, न की उनकी जाति या मजहब की। ऐसी अवांछित घटनाएं लोगों के घटिया सोच का नतीजा होती हैं।

मैं अपने समाज यानी अल्पसंख्यक समुदाय की गतिविधियों और घटनाओं विशेष पर उसकी मानसिकता को लेकर निरंतर नजर रखता हूं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस समुदाय का शिक्षित वर्ग अक्सर पाखंड का परिचय देता है। यह ईरान के हिजाब मामले और भारत के हिजाब विवाद के संदर्भ में उनकी प्रतिक्रिया से देखा-समझा जा सकता है। चूंकि अल्पसंख्यक समुदाय में शिक्षित लोगों की संख्या कम है, इसलिए इस समाज का अशिक्षित वर्ग इस थोड़े से शिक्षित वर्ग के रुख-रवैये के आधार पर अपने विचार बनाता है, जो कि अक्सर पक्षपाती विचार से ही लैस दिखता है। यह आवश्यक है कि इस मामले में प्रशासन निपुणता दिखाए, ताकि भविष्य में ऐसी अवांछित घटनाओं को समय पर रोका जा सके। इसी के साथ मैं अपने समुदाय के लोगों से अपील करता हूं कि वे सब एकजुट होकर ऐसी प्रत्येक घटनाओं और उसमें शामिल लोगों की खुलकर निंदा करें और ऐसी किसी भी अप्रिय घटना को राष्ट्र के उसूलों के तहत देखें। पाखंड चाहे किसी भी समुदाय में हो, वह हमेशा तिरस्कार का कारण बनता है।

(लेखक इस्लामी मामलों के शोधार्थी हैं)

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