सियासी रस्साकशी में फंसी गाय

गाय राजनीति का शिकार हुई। केरल और पूर्वोत्तर में हिंदू भी गोमांस खाते हैं। हकीकत यह है कि तमाम हिंदू गोमांस खाते हैं, काफी मुसलमान नहीं खाते।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 07 Jun 2017 12:48 AM (IST) Updated:Wed, 07 Jun 2017 12:58 AM (IST)
सियासी रस्साकशी में फंसी गाय
सियासी रस्साकशी में फंसी गाय

अद्वैता काला
गोवध मसले का सबसे दुखद पहलू यह है कि गाय राजनीति का शिकार हुई है। महात्मा गांधी अक्सर गाय की महिमा और हिंदुओं के लिए उसकी महत्ता का बखान किया करते थे। गोवध करोड़ों हिंदुओं की आस्था और भावनाओं से जुड़ा हुआ मुद्दा रहा है। यहां यह भी बता दें कि केरल और पूर्वोत्तर के राज्यों में हिंदू भी गोमांस खाते हैं। गोवध का मसला संविधान के नीति निदेशक तत्वों में जुड़ा और राजनीति में भी इसे कांग्रेस के चुनावी पोस्टर में जगह मिली। एक समय गाय और बछड़े की तस्वीरों के साथ पार्टी ने उसके संरक्षण का वादा किया था। इस बहस में अक्सर आरएसएस का भी हवाला दिया जाता है, जिसे कई बार गलत रूप में भी पेश किया जाता है। संघ के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने इसके लिए एक हस्ताक्षर अभियान भी चलाया था। उसमें 10 लाख लोगों ने हस्ताक्षर किए। उस मुहिम का मकसद गाय के संरक्षण के लिए जनसमर्थन का प्रदर्शन और उस पर सार्थक सार्वजनिक विमर्श तैयार करना था। यह राजनीतिक अभियान नहीं था, बल्कि विशुद्ध रूप से आस्था और भावनाओं का सवाल था।
निजी जीवन में खुद मैंने कभी गोमांस नहीं खाया। यहां तक कि एक होटल में बतौर ट्रेनी रहने के दौरान भी ऐसा नहीं किया जब हमें अपने पाठ्यक्रम को पूरा करने के लिए गोमांस चखना जरूरी था। अपनी आस्था के लिए मैंने कुछ अंक गंवाना मुनासिब समझा, लेकिन गोमांस का जायका नहीं लिया। जब मैं अमेरिका में रहती थी तो मेरे अधिकांश दोस्त बड़े चाव से गोमांस खाते थे और उससे परहेज करने पर मेरा उपहास भी उड़ाते थे। मेरे लिए यह महज खाने की पसंद का सवाल नहीं, बल्कि मेरे विश्वास और मान्यताओं से जुड़ा मामला था। इसके उलट मुझे इस बात से कभी फर्क नहीं पड़ा कि दूसरे लोग गोमांस खाते हैं। मैंने कभी इस आधार पर भेदभाव नहीं किया। होटल प्रबंधन की पढ़ाई के दौरान मुझे गोमांस से बने भिन्न-भिन्न किस्म के व्यंजन और उन्हें खाने के लिए किस्म-किस्म की चाकू-छुरियों के बारे में पता चला। यह पूरी तरह पेशेवर दायित्व का मामला था।
यह ध्यान रहे कि हिंदुत्व कभी भी अपनी मान्यताएं दूसरों पर नहीं थोपता। यहां सम्मान और स्वीकार्यता की ही बात होती है। गोवध विरोध के समर्थक के रूप में गांधीजी ने कभी नहीं माना कि इस पर प्रतिबंध के जरिये रोक लगे। उन्होंने सद्भावपूर्ण तरीके से इस पर आम सहमति बनाने का ही सुझाव दिया, लेकिन बाद में समाज में फूट डालने के लिए इस मुद्दे का राजनीतिकरण हो गया। इस मुद्दे को हिंदू-मुस्लिम के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा के तौर पर पेश किया जा रहा है, जबकि हकीकत यही है कि तमाम हिंदू गोमांस खाते हैं और काफी मुसलमान नहीं भी खाते। एक मुस्लिम मित्र ने तो मुझे हदीस के हवाले से बताया कि वह गोमांस भक्षण को हतोत्साहित करती है। मैं ये दलीलें गोमांस खाने पर रोक लगाने के लिए नहीं दे रही हूं, बल्कि यही स्पष्ट करना चाहती हूं कि जिन राज्यों में गोवध पर प्रतिबंध है वह किसी धार्मिक मान्यता के विरोध में नहीं है। समझना कठिन है कि इसके बावजूद इस मसले को बहुसंख्यकवाद के तौर पर क्यों पेश किया जा रहा है? आखिर क्या वजह रही कि केरल के कन्नूर में कांग्रेस पार्टी ने 18 महीने के बछड़े को सार्वजनिक रूप से काटकर अपना राजनीतिक मंतव्य स्पष्ट किया? यह देखना दुखद है कि नेता एक-दूसरे पर हमला करने के लिए कैसे गाय का इस्तेमाल कर रहे हैं? गाय का किसी राजनीतिक दल से वास्ता नहीं है और राजनीतिक लड़ाई के लिए उस पर सार्वजनिक रूप से की गई बर्बरता बेहद शर्मनाक है। असल में ऐसी घटना तथाकथित ‘धर्मनिरपेक्षता’ के नाम पर विभाजन की राजनीति का खुलेआम प्रदर्शन है। केरल में गोवध या गोमांस पर कोई प्रतिबंध नहीं है, फिर किस बात के लिए विरोध? मुझे तो ऐसा वाकया देखने को नहीं मिला कि हिंदुओं की भावनाएं आहत करने के लिए किसी मुसलमान ने गाय के साथ ऐसी बर्बरता की हो। समय आ गया है कि हम ऐसे मसलों पर चालाक नेताओं को न खेलने दें। इस देश के लोगों की बुद्धिमता, सह-अस्तित्व और आमसहमति बनाने की क्षमता राजनीतिक हितों की पूर्ति का जरिया नहीं बनने देनी चाहिए।
यह स्मरण कराना भी महत्वपूर्ण है कि गोवध पर कई दशकों से प्रतिबंध लागू है और संबंधित कानूनों के लचर तरीके से लागू होने पर ही वह अफरातफरी मची है जिससे उपजी हिंसा में लोगों को जान तक गंवानी पड़ी है। चाहे राजस्थान में पहलू खान की मौत हो या कर्नाटक में गोरक्षक प्रशांत पुजारी की हत्या। इनमें से कोई भी अपराध एक दूसरे से अलग नहीं है। दोनों स्थितियों से बचा जा सकता था। दोनों मामलों की भर्त्सना होनी चाहिए। जब हम गोरक्षकों पर बहस करते हैं तो हमें गोतस्करों पर भी बात करनी चाहिए जो नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए अपने काम को अंजाम दे रहे हैं। इनमें से तमाम संगठित रूप से इस काम में लगे हैं जिनसे कई हथियारबंद और नामी-गिरामी अपराधी भी जुड़े हैं। आखिर राज्य सरकारें कहां हैं जिन पर कानून लागू करने की महती जिम्मेदारी है?
हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जब दुनियाभर में समुदायों के बीच परस्पर विश्वास घट रहा है। आइएस जैसे आतंकी समूह इसे और हवा दे रहे हैं। ऐसे में हमें राजनीतिक जुमलों से प्रभावित हुए बिना सभी को साथ लेकर चलने के बारे में सोचना चाहिए। हमें यह समझने की जरूरत है कि गोवध मुख्य रूप से आर्थिक गतिविधि है और इसकी मंशा हिंदुओं की भावनाएं भड़काना नहीं है। इसके विपरीत जिन राज्यों में इस पर प्रतिबंध है वहां यह इस मंशा के साथ नहीं है कि इससे एक समुदाय के धार्मिक अधिकारों का हनन हो रहा है, बल्कि उस धर्म के अधिकांश अनुयायियों की भावनाओं के कारण है। आखिर हमें राजनीतिक एजेंडे के समक्ष क्यों समर्पण करना चाहिए? क्या हमें शासन में खामियों और कानून लागू करने में शिथिलता पर सवाल नहीं करने चाहिए जिससे अराजक-अप्रिय घटनाएं घटित हो रही हैं? इसके साथ ही हमें गोमांस भोज आयोजित करने वाले राजनीतिक दलों से भी यह पूछना चाहिए कि आखिर ऐसा पाखंड क्यों? जब आप सत्ता में थे तो वोट हासिल करने के लिए पोस्टर में गाय-बछड़ा दिखाकर उसका संरक्षण करने का प्रहसन क्यों करते थे? जब आपके पास जनादेश था तो इस कानून को रद करने की कवायद क्यों नहीं की? इस देश के लोग ऐसी छद्म धर्मनिरपेक्षता से आजिज आ चुके हैं। ऐसा लगता है कि कुछ लोगों को किसी समुदाय को तंग करने में विकृत खुशी मिलती है? इस फर्जी और तुष्टीकरण वाले प्रतीकवाद पर अल्पसंख्यक समुदाय की आंखें भी खुल गई हैं, क्योंकि इससे शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक स्थायित्व जैसे उनके जरूरी मसलों का कोई खास हल नहीं निकलता। वे समझ रहे हैं कि वोट बैंक की राजनीति उनका अहित ही करती है और जो लोग उन्हें बेवजह का डर दिखाकर वोट लेते हैं वे उन्हें ‘संरक्षण’ देने की आड़ में संविधान प्रदत्त सुविधाओं से भी वंचित रखते हैं। यह बहुत बड़ा छल है। गाय को राजनीति के केंद्र में लाना और सार्वजनिक तौर पर उसके साथ बर्बरता में शायद सभी भारतीयों के लिए संदेश छिपा है।
[ लेखिका जानी-मानी पटकथा लेखक एवं स्तंभकार हैं ]

chat bot
आपका साथी