मजबूत होती जवाबी मोर्चाबंदी

यह कुछ समय बाद ही पता चलेगा कि नोटबंदी से देश कितना बदला और यह बदलाव स्थायी होगा या नहीं।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Tue, 29 Nov 2016 12:37 AM (IST) Updated:Tue, 29 Nov 2016 01:14 AM (IST)
मजबूत होती जवाबी मोर्चाबंदी

यह कुछ समय बाद ही पता चलेगा कि नोटबंदी से देश कितना बदला और यह बदलाव स्थायी होगा या नहीं, लेकिन यह साफ देखा जा सकता है कि इस मसले पर सहमति के स्वर उतने ही मुखर हैं जितने असहमति के। यह हाल के समय में तीसरी-चौथी बार है जब सहमति और असहमति की मजबूत मोर्चाबंदी दिख रही है। जब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारत तेरे टुकड़े होंगे और छीन के लेंगे आजादी जैसे नारे गूंजे थे तो एक समूह का कहना था कि ऐसे नारों पर ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं और ये नारे तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा हैं। इसके जवाब में असहमत लोगों का कहना था कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ऐसे नारे बर्दाश्त नहीं किए जा सकते। वैचारिक टकराव का ऐसा ही परिदृश्य पुरस्कार वापसी अभियान के समय भी देखने को मिला था। पुरस्कार वापसी में शामिल और इस अभियान का समर्थन कर रहे लोग यह साबित करने में लगे थे कि भारत में हिंदू तालिबान सत्ता में आ गए हैं तो असहमत लोग पूछ रहे थे कि आपातकाल एवं सिख विरोधी दंगों के बाद कितने पुरस्कार वापस हुए और जब तसलीमा नसरीन को बंगाल से निकाला गया तब आप लोग कहां थे? वैचारिक मोर्चाबंदी का ऐसा ही माहौल कश्मीर में हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद भी नजर आया था। आम लोगों, बुद्धिजीवियों और राजनीतिक नेतृत्व की एक धारा बुरहान वानी और उसकी मौत पर मातम मनाती उग्र भीड़ को लेकर बेहद नरम थी तो दूसरी धारा बेहद सख्त। इन सभी प्रसंगों पर अलग-अलग लोगों की प्रतिक्रिया इतनी भिन्न थी कि बुद्धिजीवी, नेता और जनता के साथ-साथ मीडिया भी विभाजित दिखा। परस्पर विरोधी मत वाले टीवी चैनलों ने तो परोक्ष तौर पर एक-दूसरे का जिक्र करते हुए उन पर निशाना भी साधा। ऐसा इसके पहले कभी नहीं हुआ। यह एक नया परिदृश्य है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए।
परस्पर विरोधी वैचारिक मोर्चाबंदी का स्वागत इसलिए किया जाना चाहिए, क्योंकि ज्यादा वक्त नहीं हुआ जब खास किस्म के चिंतन और विचारों का वर्चस्व इतना प्रबल हुआ करता था कि भिन्न मत वाले चाहकर भी अपनी राय प्रकट करने में संकोच करते थे कि कहीं उन्हें पुरातनपंथी या प्रतिगामी न करार दिया जाए। तब स्थापित चिंतन के विपरीत विचार व्यक्त करने में इसलिए भी मुश्किल होती थी कि कोई मंच नहीं उपलब्ध होता था। मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद सामाजिक न्याय की बातें करने वाले करीब-करीब पूरी तौर पर हाशिये पर थे। तब वह दौर भी था जब बेसिर-पैर की कला फिल्म या साहित्यिक कृति को बेहतरीन करार दिया जाता था और विपरीत मत वाले इतना सहम जाते थे कि चाहकर भी यह नहीं कह पाते थे कि महान बताया जा रहा अमुक कला-साहित्यिक कर्म तो निरा बकवास है। सोशल मीडिया ने विपरीत मत को आतंकित करने वाले वैचारिक एकाधिकार को ध्वस्त करने का काम किया है। इस मीडिया ने असहमति को अवसर भी दिया है और आवाज भी। सोशल मीडिया ने मुख्य धारा के मीडिया पर भी असर डाला है। नोटबंदी पर यह महज परिहास नहीं कि अमुक चैनल में बैंकों की कतार में खड़े सब लोग खुश दिख रहे हैं। अमुक में कुछ तकलीफ में और अमुक में हार्ट अटैक से मरते हुए।
जैसे इसमें कोई दोराय नहीं कि नोटबंदी जैसे बड़े फैसले को लेकर सरकार व्यापक तैयारी के अभाव से ग्रस्त दिख रही और उसके कारण कई समस्याएं उभर आई हैं वैसे ही इसमें भी नहीं कि तमाम लोगों को यह फैसला केवल इसलिए रास नहीं आया कि उसे मनमोहन नहीं, मोदी सरकार ने लिया। इस पर भी आश्चर्य नहीं कि अगर ऐसा फैसला मनमोहन सरकार ने लिया होता तो शायद भाजपा ने भी आक्रोश दिवस मनाया होता और संसद चलाना मुश्किल कर रखा होता। जो भी हो, यह देखना दिलचस्प भी है और दयनीय भी कि नोटबंदी के खिलाफ लोगों को बरगलाने और उकसाने का काम तमाम नेताओं के अलावा कथित बुद्धिजीवियों ने भी किया। जब नेता बौराए जा रहे थे तब जनता संयम का परिचय दे रही थी। इसी दौर में किसी ने दो हजार के नोट में अनगिनत त्रुटियां देखीं तो किसी ने उसे रंगहीन होते हुए देखा। किसी ने नोटबंदी के जरिये संगठित लूट होती देखी तो किसी ने घोटाला होते हुए। किसी ने इस नोट को विशेष चिप से लैस देखा तो किसी ने चूरन वाले नोट जैसा। सबसे मजेदार यह रहा कि नोटबंदी की घोषणा होते ही अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण के हाथ सुबूतों का एक ऐसा पुलिंदा आ गया जो कथित तौर पर यह कह रहा था बिरला और सहारा समूह ने मोदी को तब करोड़ों रुपये दिए थे जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री थे। केजरीवाल इसी पुलिंदे के साथ विधानसभा मेंं अवतरित हुए और प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट में। केजरीवाल विधानसभा में अपनी भड़ास निकालकर चलते बने तो सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण को यह कहकर चलता किया कि ऐसे कथित दस्तावेज तो कोई भी तैयार कर सकता है। चूंकि सुप्रीम कोर्ट संता-बंता के चुटकुलों से लेकर देश की हर समस्या को अपने हाथ में लेने के मूड में है इसलिए हो सकता है कि प्रशांत भूषण अगली तारीख में कुछ और ‘सुबूतों’ के साथ सामने आएं, लेकिन यह वैचारिक दुराग्रह और अंध विरोध का नमूना ही है कि कागज के गट्ठर अकाट्य सुबूत के तौर पर पेश किए गए-न केवल विधानसभा में, बल्कि देश की सबसे बड़ी अदालत में भी। यह भी वैचारिक दुराग्रह का नमूना ही था कि राजनीति और मीडिया के एक खास समूह ने नोट बदलने की सुविधा खत्म करने को इस रूप में पेश किया मानों सरकार ने पुराने नोट वालों को कहीं का नहीं छोड़ा।
भले ही नोटबंदी के नफा-नुकसान कुछ दिनों बाद सामने आएं, लेकिन यह अच्छे से सामने आ चुका है कि अपने वैचारिक दुराग्रह से विपरीत मत वालों को आतंकित करने के दिन लद चुके हैं। विरोध के नाम पर अंध विरोध तक जाने और कुतर्क करने वालों को अब हर स्तर पर करारा जवाब मिल रहा है। दरअसल यह बात हर मत और विचार वालों को समझनी होगी कि यदि वैचारिक आग्रह कुतर्क की सवारी कर दुराग्रह में तब्दील होगा तो उसकी अलग राय वालों से मुठभेड़ अवश्य होगी।
[ लेखक राजीव सचान, दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं ]

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