लगातार सिमटता जा रहा कांग्रेस का जनाधार, विधानसभा चुनावों में कई राज्य तय करेंगे पार्टी का भविष्य

देश की स्थिति यह रही कि आजादी के बाद हमारे सामने कांग्रेस और कम्युनिस्ट के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर कोई और विकल्प मौजूद नहीं था। लेकिन अब कांग्रेस की तुष्टीकरण की राजनीति को ‘सबका साथ सबका विकास’ चुनौती दे रहा है। ये बड़ा बदलाव है।

By Shashank PandeyEdited By: Publish:Sat, 03 Apr 2021 02:42 PM (IST) Updated:Sat, 03 Apr 2021 02:42 PM (IST)
लगातार सिमटता जा रहा कांग्रेस का जनाधार, विधानसभा चुनावों में कई राज्य तय करेंगे पार्टी का भविष्य
विधानसभा चुनाव के नतीजों से तय होगा कांग्रेस का भविष्य। (फोटो: दैनिक जागरण/फाइल)

डॉ. नीलम महेंद्र। भारत केवल भौगोलिक दृष्टि से एक विशाल देश नहीं है, अपितु सांस्कृतिक विरासत की दृष्टि से भी वह अपार विविधता को अपने भीतर समेटे है। एक ओर खानपान, बोली, मजहब एवं धार्मिक मान्यताओं की यह विविधता इस देश को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध तथा खूबसूरत बनाती है तो दूसरी ओर यही विविधता इस देश की राजनीति को जटिल और पेचीदा भी बनाती है। वैसे पिछले कुछ वर्षो में देश की राजनीति की दिशा में धीरे धीरे किंतु स्पष्ट बदलाव देखने को मिल रहा है। तुष्टीकरण की राजनीति को ‘सबका साथ सबका विकास’ और वोटबैंक की राजनीति को ‘विकास की राजनीति’ चुनौती दे रही है। यही कारण है कि वर्तमान में देश के कई राज्यों में जारी विधानसभा चुनाव परिणाम देश की राजनीति की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं।

आजादी के बाद देश के सामने कांग्रेस और कम्युनिस्ट के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर कोई और विकल्प नहीं था। धीरे धीरे क्षेत्रीय दल बनने लगे जो अपने अपने क्षेत्रों में मजबूत होते गए। लेकिन ये दल क्षेत्रीय ही बने रहे, अपने अपने क्षेत्रों से आगे बढ़कर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का विकल्प बनने में कामयाब नहीं हो पाए। इसका दूसरा पहलू यह भी रहा कि समय के साथ ये दल अपने अपने क्षेत्रों में कांग्रेस का मजबूत विकल्प बनने में अवश्य कामयाब हो गए। आज स्थिति यह है कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी इन क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ते हुए अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। 

वहीं आम चुनावों में कांग्रेस की स्थिति का आकलन इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि वह लगातार दो बार से अपने इतने प्रतिनिधियों को भी लोकसभा में नहीं पहुंचा पा रही कि सदन को नेता प्रतिपक्ष दे पाए। उसे चुनौती मिल रही है एक ऐसी पार्टी से जो अपनी उत्पत्ति के समय से ही तथाकथित सेक्युलर सोच वाले दलों के लिए अछूत बनी रही। वर्ष 1980 में अपनी स्थापना, वर्ष 1984 के आम चुनावों में मात्र दो सीटों पर विजय, और फिर 1999 में एक वोट से सरकार गिरने से लेकर 2019 के लोकसभा चुनावों में 303 सीटों तक का सफर तय करने में भाजपा ने जितना लंबा सफर तय किया है उससे कहीं अधिक लंबी रेखा अन्य दलों के लिए खींच दी है। 

(लेखिका राजनीतिक मामलों की जानकार हैं)

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