महिला कामगारों की दशा-दिशा

महिला कामगारों की दशा और दिशा के क्षेत्र में विश्व श्रम संगठन की रपट भारत को 131 देशों की तालिका में 121वां स्थान देती है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Thu, 25 May 2017 12:50 AM (IST) Updated:Thu, 25 May 2017 01:18 AM (IST)
महिला कामगारों की दशा-दिशा
महिला कामगारों की दशा-दिशा

मृणाल पाण्डे
जिस वक्त आने वाले समय में नाना वजहों से भारतीय आईटी और कारपोरेट जगत में बेरोजगारी में भारी उछाल की संभावनाओं पर बड़ी जिरह छिड़ी हुई है उस समय कामकाजी महिलाओं के भारी तादाद में बेरोजगार बन घर बैठने के कारण और उसके फलाफलों पर बहुत कम लिखा और सोचा जा रहा है। यह तब है जब हम सब यह जानते हैं कि बढ़ती महंगाई के जमाने में गांव-देहात या शहरों में निम्न मध्य वर्ग और गरीब परिवारों की गाड़ी घर की औरतों की कमाई बिना नहीं खींची जा सकती। इस वजह से हमें समय रहते इस बाबत विश्व श्रम संगठन और विश्व बैंक द्वारा हाल में जारी की गई रपटों पर खास ध्यान देना चाहिए। महिला कामगारों की दशा और दिशा के क्षेत्र में विश्व श्रम संगठन की रपट भारत को 131 देशों की तालिका में 121वां स्थान देती है। यह किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं है। विश्व बैंक की रपट भारत सरकार के (नेशनल सैंपल सर्वे संस्थान और जनगणना से निकले) आंकडों के आधार पर तीन चिंताजनक तथ्य सामने लाती है।
एक 2004-5 और 2011-12 के बीच दो करोड़ 70 लाख महिलाएं बेरोजगार हो गईं। भागीदारी के लिहाज से देश के कुल कामगारों में उनका प्रतिशत 42 फीसदी से घटकर 2012 तक कुल 31 फीसदी ठहरता है। जबकि मंदी के बावजूद इसी दौरान दो करोड़ चालीस लाख युवा पुरुष कामगारों में शामिल हुए। वैसे तो तुलनात्मक रूप से चीन में भी इस बीच महिलाएं बेरोजगार हुई हैं, पर उनकी दर पहले कुल कामगारों की 68 फीसदी की बजाय 64 फीसदी बनी हुई है। श्रीलंका में भी महिलाओं में बेरोजगारी में कुल दो फीसदी की बढ़त दर्ज हुई, जबकि हमारे यहां महिलाओं की बेरोजगारी में 11 प्रतिशत का उछाल आया है।
दो, बेरोजगारों में से आधे से अधिक यानी करीब 53 प्रतिशत आबादी गांव-देहात में रहती है। उनकी आयु दर 15-24 साल की है यानी शारीरिक रूप से वे काम करने में हर तरह से सक्षम हैं। तीन, महज स्कूली शिक्षा पाकर महिलाओं को मनमाफिक रोजगार नहीं मिलते, कॉलेज की डिग्री पाए बिना काम नहीं मिलता। शहर ही नहीं, देहात में भी काम छोड़कर घर बैठने वाली बेरोजगार युवतियों में से अधिकतर दसवीं पास पाई गईं। तुलनात्मक रूप से स्वरोजगारी अनपढ़ महिलाओं या कॉलेज पास कर चुकी महिलाओं की तादाद कामगारों में अधिक है।
आज से कई साल पहले भारत के एक जाने-माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर केएन राज ने बड़ी पते की बात कही थी कि भारत के बड़े किसानों और अक्ल एवं हुनर को अपनी जायदाद बनाकर कमाई करने वाले शहरियों को अंतत: नौैकरियों का सरकारीकरण ही रास आता है, क्योंकि एक तरफ तो वह शहरी उद्योगों को बढ़ावा देता है और दूसरी तरफ एक सर्वशक्तिमान नौकरशाही की तादाद बढ़ाता है जिसमें अपनी संतानों को कहीं न कहीं शामिल कर सकना हर शहरी और ग्रामीण रईस चाहता है। ग्रामीण किसानों के हितैषी और प्रवक्ता चूंकि हर सरकार में अमीर किसान ही होते हैं इसलिए वे बिजली-पानी की सब्सिडी और अनाज का भाव गिरने पर बड़े समर्थन मूल्य का आश्वासन पाकर संतुष्ट हो रहते हैं। इसी सोच ने ताजा छंटनियां आने से पहले गांव और शहर, दोनों जगह ऐसे बेरोजगारों की तादाद बेपनाह रूप से बढ़ा दी है जिनके लिए सरकारी शिक्षा पाने के बाद खेती का काम तो हेठा पड़ जाता है पर छोटे-मोटे कॉलेज की डिग्री के बूते उनको शहरी काम भी नहीं मिल पाता। इस दशा में हर जाति धर्म या वर्ग विशेष का समूह एकजुट बनकर सरकार पर बाहर से राजनीतिक दबाव बनाता है। उनका लक्ष्य भारतीय बेरोजगारी का तर्कसंगत निदान नहीं, बल्कि सिर्फ अपने लिए एक इज्जतदार खैरात पाना है। ईमान से देखें तो यह काम कमोबेश पुरुषों की लाबियां मात्र अपनी पुरुष संतति की खातिर करती हैं। महिलाओं के रोजगार के स्वरूप या उनके जीवन पर भी इनमें से किसी जात धर्म या आय वर्ग की लॉबी गंभीरता से सोचती हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता।
हमारे देश में आम तौर पर यह मानकर चला जाता है कि जिस घर के पुरुष कमाने-खाने लगे हों वहां महिलाएं उनके आसरे ठीक-ठाक जीवन बिताएंगी ही। प्राब्लम क्या है? प्राब्लम है सर जी और वह यह कि गांवों में सिकुड़ती खेती और सिमटती जोतों और शहरों में छोटे एवं मंझोले उपक्रमों में मंदी और नोटबंदी की समवेत मार से छंटनी बेहद बढ़ जाने से मर्द और औरत के बीच पारंपरिक आर्थिक या सामाजिक समीकरण बिठाना इतना सरल नहीं रहा। खाते-पीते मध्यवर्गीय युवा इसीलिए पढ़ी-लिखी पत्नी चाहते हैं कि वह एक कमाऊ भागीदार साबित हो सके, लेकिन यहां पारंपरिक संस्कारों की अड़ंगेबाजी सामने आ जाती है और इसी कारण बिन कहे कामकाजी युवतियों पर दबाव बनाया जाता है कि बीवी या बहू बनकर वह काम करे, पर पति से अधिक न कमाए। कमाए भी तो इस बाबत चर्चा न करे और खुशी-खुशी पारंपरिक घरेलू जिम्मेदारियां भी निबटाती रहे। लिहाजा नौकरी के लिए आवेदन से पहले अधिकतर युवतियां सौ बार सोचने पर मजबूर की जाती हैं कि कहीं वे घर के लोगों को नाखुश तो नहीं करेंगी? उधर गांवों में दसवीं-बारहवीं पासकर चुकी युवतियां खेत मजूरी से बिदकती हैं। उनको भी सरकारी नौकरी वाले शहरी या रईस किसानी घरों के दूल्हे चाहिए जो उनको घर में रानी बनाकर रखें और काम पर बाहर न भेजें।
एक समय उत्तराखंड में केवल युवकों का पलायन होता था। अब सपत्नीक पलायन हो रहे हैं। इसके चलते करीब एक हजार गांव पिछले दस सालों में उजाड़ बन गए हैं। इक्के-दुक्के बूढ़े माता-पिता ही वहां घरों की जैसे-तैसे केयरटेकरी करते नजर आते हैं। शेष गांवों में भी बच्चों और किशोरों को पर लग गए हैं और वे मैदानों को पलायन को आतुर हैं। सबका साथ सबका विकास का नारा सुनने में सुहाना और ‘कूल’ लगता है, पर उस तक ले जाने वाला रास्ता अनिवार्यत: कठोर कुर्बानियोंं और पत्थरफोड़ भविष्य से लगातार जूझनेवाला रास्ता भी होगा। देश के नेतृत्व को यह सचाई युवाओं को तसल्लीबख्श तरीके से समय रहते समझानी होगी, जो इन दिनों मन की बात को अधिक तवज्जो देने लगे हैं। एक निवेदन और, महिला रोजगार बढ़ाने के सवाल को नारी मुक्तिवाद या नारी सशक्तीकरण से न जोडें। उसे भी देश के एक ऐसे महत्वपूर्ण आर्थिक मुद्दे के रूप में देखें और दिखाएं जिससे महिलाओं ही नहीं, परिवारों और देश का भविष्य भी अनिवार्यत: जुड़ता है। अपनी मुक्ति और सशक्तीकरण के मुद्दे तो उस अभिज्ञान के बाद हम महिलाएं खुद निबटा लेंगी।
[ लेखिका प्रसार भारती की पूर्व प्रमुख एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]

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