Bihar Assembly Election: NDA और महागठबंधन दोनों के लिए सहयोगियों की सौदेबाजी से निपटना बड़ा मुद्दा

Bihar Assembly Election 2020 पटना स्थित अपने आवास पर जदयू के साथ जाने की घोषणा करते जीतनराम मांझी। जागरण आर्काइव

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Sat, 05 Sep 2020 10:55 AM (IST) Updated:Sat, 05 Sep 2020 11:10 AM (IST)
Bihar Assembly Election: NDA और महागठबंधन दोनों के लिए सहयोगियों की सौदेबाजी से निपटना बड़ा मुद्दा
Bihar Assembly Election: NDA और महागठबंधन दोनों के लिए सहयोगियों की सौदेबाजी से निपटना बड़ा मुद्दा

पटना, आलोक मिश्र। Bihar Assembly Election 2020 माना जाता है कि राजनीति में लड़ाई विचारधारा की होती है। उसी आधार पर दल एक साथ होते हैं और एक-दूसरे के खिलाफ होते हैं। चुनाव में इसी आधार पर पालेबंदी भी होती है। लेकिन यह भी सच है कि आमने-सामने की लड़ाई से पहले भीतर खुले मोर्च पर फतह आवश्यक है।

इस समय बिहार में चाहे एनडीए हो या महागठबंधन, दोनों के सामने सहयोगियों की सौदेबाजी से निपटना बड़ा मुद्दा है। सौदेबाजी है टिकटों की, जिसमें विचारधारा के कोई मायने नहीं। बात बनी तो ठीक, नहीं तो राह अलग करने की धमकी। इन हालातों में यह दावा नहीं किया जा सकता है कि गठबंधनों का वर्तमान स्वरूप चुनाव तक बना रहेगा या दरक जाएगा।

पहले महागठबंधन में और उससे अलग होने के बाद तारीख पर तारीख दे रहे हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के जीतनराम मांझी को अब किनारा मिल गया है। बुधवार की सुबह घोषणा हुई कि तीन को वे एनडीए में शामिल होंगे, लेकिन दोपहर बाद खुद ही संत भाव से सामने आए और नीतीश के साथ होने का ऐलान कर दिया। स्वर में न टिकटों पर जिच, न चुनाव लड़ने की इच्छा और न ही एनडीए का मोह। नीतीश एनडीए तो वह एनडीए में, का राग ही उनसे निकला। हालांकि मांझी की इस घोषणा पर सहयोगी भाजपा की तरफ से उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने जरूर ताली पीटी, लेकिन जदयू की तरफ से कोई आवाज नहीं आई। भरपूर हल्ला मचाने के बाद इस खामोश इंट्री पर भीतर ही भीतर फुसफुसाहट जरूर जारी है कि सीटों पर बात वहां भी नहीं हुई, अगर महागठबंधन में रहते तो कम से कम दस तो मिल ही जाती। यही नीतीश की शैली है, साथ भी मिला लिया और कोई संदेश तक न दिया। अब जो देंगे, उसी से संतोष करना पड़ेगा।

बहरहाल मांझी ही नहीं सीटों को लेकर सभी छोटे दलों की लालसा से सब बड़े परेशान हैं, चाहे वो एनडीए के हों या महागठबंधन के, क्योंकि पाले में भी सब रहना चाहते हैं और दावा भी मनमाफिक टिकटों पर है। महागठबंधन में मुकेश सहनी 25 सीटों से कम नहीं चाहते अपनी विकासशील इसांन पार्टी के लिए। जबकि पहली बार उनकी पार्टी विधानसभा चुनाव में कूद रही है। लोकसभा में तीन पर लड़े थे और तीनों हार गए थे। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा भी 25 सीट पर अड़े हैं। राजद खुद 140 से कम पर मानने वाला नहीं और कांग्रेस की लालसा भी 70-75 की है। वामदल साथ आना चाहते हैं, लेकिन 50 सीट की कीमत पर। सभी को 243 में फिट करना है, इसलिए राजद व कांग्रेस अभी तक इन्हें कोई भाव देते नहीं दिख रहे। मांझी भी इसीलिए छिटक गए, क्योंकि इस पर बातचीत के उनके हर प्रयास विफल हो गए थे। राजद से कोई भाव मिला नहीं और कांग्रेस केवल आश्वासन का लॉलीपाप ही देती रही।

यही हाल लोजपा और अभी-अभी जुड़े मांझी का एनडीए में है। सीटें यहां भी विकट समस्या बनी हैं। चिराग 42 की मांग कर रहे हैं और मांझी भले ही बाहर नहीं बोल रहे, लेकिन 10-12 वे भी चाहते हैं। अब पाला बंट गया है। लोजपा, भाजपा के खेमे की मानी जा रही है और मांझी, नीतीश के पाले में गिने जा रहे हैं। स्वाभाविक है कि भाजपा और जदयू, दोनों ही इस संख्या पर मानने वाले नहीं। दोनों गुट 243 में खुद ही हिस्सेदारी ज्यादा रखने की जुगत में हैं। इसके पीछे चुनाव बाद के समीकरण को कारण माना जा रहा है। मांझी की इंट्री से चिराग तिलमिलाए हैं। यह माना जा रहा है कि मांझी की इंट्री नीतीश पर लगातार हमलावर चिराग पर अंकुश लगाने के लिए है और खुले तौर पर चिराग के साथ खड़ी भाजपा भी पीछे से इसे हवा दे रही है। ताकि दबाव की राजनीति बनाकर इनकी मांगों पर अंकुश लगाया जा सके। सौदेबाजी हर जगह जारी है और पहली चुनौती यही है। अभी तक बड़े दल कोई भाव देते भले ही नहीं दिख रहे, लेकिन आगे क्या समीकरण बनेंगे, फिलहाल यह कहना मुश्किल है।

[स्थानीय संपादक, बिहार]

chat bot
आपका साथी