बिहार विधानसभा चुनाव भारत की लोकतांत्रिक पहचान और साख को समृद्ध करने वाला रहा

बिहार विधानसभा चुनाव 2020 कुल मिलाकर स्वप्निल चुनाव रहा। बड़ी संख्या में महिलाओं का मतदान इसका सूचक है कि बिहार में लोकतांत्रिक जड़ें कितनी गहरी हो गई हैं। मतदान में लैंगिक समानता बहुत महत्वपूर्ण है। हिंसा भी नहीं हुई।

By TaniskEdited By: Publish:Fri, 20 Nov 2020 08:22 AM (IST) Updated:Fri, 20 Nov 2020 08:22 AM (IST)
बिहार विधानसभा चुनाव भारत की लोकतांत्रिक पहचान और साख को समृद्ध करने वाला रहा
बिहार चुनाव: लोकतांत्रिक पहचान पुख्ता करने वाले चुनाव

[ए. सूर्यप्रकाश]। हार का जनादेश हमारे सामने है। देश में कोरोना कोहराम के बाद यह पहला चुनाव था। कोविड को देखते हुए इसे तमाम सावधानी के साथ संपन्न कराया गया। चुनावों में कोई हिंसा नहीं हुई। महिला मतदाता पुरुष मतदाताओं से आगे निकल गईं। वहीं मतगणना और चुनावी नतीजों की कवायद को अत्यंत पारदर्शी प्रक्रिया के तहत अंजाम दिया गया। जहां तक नतीजों की बात है तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी राजग वापस सत्ता में लौटने में सफल रहा। हालांकि; सत्ता में वापसी की उसकी राह आसान नहीं रही।

राजद की अगुआई वाले महागठबंधन ने उसे कांटे की टक्कर दी। यह सांसें अटका देने वाला मुकाबला था। यह चुनाव पीढ़ीगत परिवर्तन का भी पड़ाव बना। जहां लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव ने महागठबंधन का नेतृत्व किया, वहीं दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे और लोजपा प्रमुख चिराग पासवान अकेले ही चुनावी रण में उतर गए।

तेजस्वी ने कांग्रेस का बोझ भी अपने युवा कंधों पर उठाया

यह उल्लेखनीय रहा कि महज 31 वर्षीय तेजस्वी ने महागठबंधन के नेतृत्व में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का बोझ भी अपने युवा कंधों पर उठाया। उन्होंने राज्य का व्यापक दौरा किया। ताबड़तोड़ सभाएं कीं और सत्तारूढ़ राजग को कड़ी चुनौती पेश की। हालांकि; नतीजों के बाद चुनाव आयोग पर अनर्गल आरोप लगाकर उन्होंने अपनी छवि को मलिन ही किया। अपनी पार्टी और महागठबंधन का शानदार नेतृत्व करने के बाद उनसे यह उम्मीद नहीं थी कि वह हारने के बाद ट्रंप जैसी शैली में बड़बड़ करने लगें। 

बिहार का नवादा अमेरिका के नेवादा से अलग है

तेजस्वी को यह अवश्य समझना चाहिए कि बिहार का नवादा अमेरिका के नेवादा से अलग है। अमेरिका में केवल प्रत्येक राज्य ही नहीं, बल्कि वहां हर एक काउंटी भी अपने-अपने हिसाब से चुनाव कराते हैं। इनमें पंचिंग मशीन से लेकर मतपत्र और वोटिंग मशीन जैसे माध्यमों का इस्तेमाल किया जाता है। साथ ही चुनाव कराने के प्रत्येक राज्य के अपने अलग-अलग नियम हैं। परिणामस्वरूप पोस्टल बैलेट स्वीकार करने के मामले में विस्कॉन्सिन से लेकर मिशिगन और पेंसिलवेनिया तक की अवधि अलग-अलग रही। इसी तरह पुनर्मतगणना कराने संबंधी प्रत्येक राज्य के नियम भी जुदा हैं।

चुनाव कराने का इससे अचूक तंत्र और कोई नहीं हो सकता

इसके उलट भारत में हमारा एकसमान चुनाव कानून और एक जैसे मानक हैं। देश भर में चुनाव कराने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम का इस्तेमाल किया जाता है। चुनाव के संचालन की प्रक्रिया भी एकसमान है। मतदान से पहले प्रत्याशियों के प्रतिनिधियों के समक्ष मशीनों का परीक्षण करके दिखाया जाता है। साथ ही प्रत्येक मशीन एक विशिष्ट यूनिट होती है, जो न तो इंटरनेट से जुड़ी होती है और न ही किसी अन्य नेटवर्क से, जिससे उसके किसी वायरस या हैकिंग की चपेट में आने की आशंका खत्म हो जाती है। इसके अतिरिक्त हाल के वर्षो में चुनाव आयोग ने पेपर ट्रायल यानी पर्ची की व्यवस्था भी शुरू की है, जिससे मशीन में दर्ज मतों का मिलान संभव है। ऐसे में चुनाव कराने का इससे अचूक तंत्र और कोई नहीं हो सकता।

तेजस्वी के आरोप विचित्र आरोप ट्रंप के आरोपों से मेल खाते हैं

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में हमने जो यह उपलब्धि हासिल की है, उस पर गर्व करने के बजाय कांग्रेस पार्टी सहित महागठबंधन के सदस्य दल लगातार इन मशीनों की क्षमता पर संदेह व्यक्त कर रहे हैं। जब कांग्रेस से यह पूछा जाए कि मोदी राज में कुछ वर्ष पहले ही जब इन्हीं मशीनों के जरिये उसने राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में चुनाव जीते थे, तब उसके पास इसका कोई जवाब नहीं होगा। तेजस्वी ने दावा किया कि उनके गठबंधन ने 130 सीटें हासिल कीं, लेकिन चुनाव आयोग ने मतगणना में अनियमितताओं और पोस्टल बैलेट्स को खारिज करके उनके साथ धोखा किया। उनके विचित्र आरोप ट्रंप के आरोपों से मेल खाते हैं।

महागठबंधन के साथ 20 सीटों पर गड़बड़ी का आरोप बेतुका

चुनाव आयोग ने पोस्टल बैलेट्स को प्रभावित करने के आरोप को निराधार बताते हुए कहा है कि केवल एक ही निर्वाचन क्षेत्र में खारिज किए गए पोस्टल बैलेट की संख्या जीत के अंतर से अधिक थी। उक्त विधानसभा क्षेत्र में भी पराजित प्रत्याशी द्वारा पीठासीन अधिकारी से अनुरोध के बाद पोस्टल बैलेट की दोबारा मतगणना के बाद भी परिणाम वही रहा। कुल मिलाकर 11 विधानसभा सीटें ऐसी रहीं, जिनमें जीत का अंतर 1,000 मतों से कम था और इनमें से चार सीटें महागठबंधन, एक लोजपा और एक निर्दलीय ने जीती। राजद को केवल दो सीटों पर ही 1,000 से कम मतों से हार मिली। ऐसे में महागठबंधन के साथ 20 सीटों पर गड़बड़ी का आरोप बेतुका है।

लोजपा ने राजग खासकर जदयू को बहुत नुकसान पहुंचाया

इसमें कोई संदेह नहीं कि लोजपा ने राजग खासकर जदयू को बहुत नुकसान पहुंचाया। उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जदयू के खिलाफ मोर्चा खोल लिया। चुनाव से पहले उन्हें साथ लाने की सभी कोशिशें बेकार गईं। उन्होंने राजग से इतर ‘एकला चलो रे’ वाली नीति अपना ली। इससे क्या नुकसान हुआ, यह नतीजों ने दिखाया।

गरीबों के हित में बनाई गई योजनाओं की सफलता का लाभ मिला

अलौली विधानसभा में जदयू प्रत्याशी राजद उम्मीदवार से 4,000 से कुछ अधिक वोटों से ही हारे, जहां लोजपा ने 26,289 वोट बटोरकर कर जदूय को जीत से दूर कर दिया। इसी तरह महाराजगंज सीट पर कांग्रेस ने जदयू को महज 1,500 मतों से मात दी, जहां 18,000 वोटों के साथ लोजपा तीसरे स्थान पर रही। यहां भी लोजपा जदयू के लिए खलनायक बन गई। ऐसी और भी तमाम सीटें रहीं। यदि लोजपा भी राजग के कुनबे में रही होती तो सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए यह चुनाव बहुत आसान बन गया होता। आखिर इस सबके क्या मायने हैं? भाजपा द्वारा 74 सीट जीतकर नीतीश कुमार की वापसी सुनिश्चित कराने से यह स्पष्ट है कि राजग को मोदी की लोकप्रियता और केंद्र सरकार की गरीबों के हित में बनाई गई योजनाओं की सफलता का लाभ मिला।

बिहार में चुनाव और हिंसा का उन दिनों चोली-दामन का साथ था

जिन लोगों ने भी चार-पांच दशक पहले बिहार में चुनावों को देखा होगा, वे एक भी ऐसा चुनाव नहीं गिना पाएंगे, जिसमें व्यापक हिंसा, बूथ कैप्चरिंग के साथ ही वंचित वर्ग के लोगों को वोट डालने से न रोका गया हो। वास्तव में चुनाव और हिंसा का उन दिनों चोली-दामन का साथ था। बड़ी संख्या में महिलाओं का मतदान भी इसका सूचक है कि बिहार में लोकतांत्रिक जड़ें कितनी गहरी हो गई हैं। मतदान में लैंगिक समानता लोकतंत्र की बेहतरी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस लिहाज से बिहार के हालिया चुनाव एक स्वप्निल चुनाव रहे, जो भारत की लोकतांत्रिक पहचान और साख को समृद्ध करेंगे।

(लेखक- लोकतांत्रिक विषयों के विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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