कश्मीर पर मोदी सरकार के बड़े फैसले का सुरक्षा परिषद में होगा भारतीय कूटनीति का इम्तिहान

भारत को यह संदेश मजबूती से देना पड़ेगा कि अब परिषद का कश्मीर के मामले से कोई सरोकार नहीं। इस पूरी प्रक्रिया में भारतीय कूटनीति का भी एक इम्तिहान होगा।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Tue, 06 Aug 2019 02:08 AM (IST) Updated:Tue, 06 Aug 2019 02:08 AM (IST)
कश्मीर पर मोदी सरकार के बड़े फैसले का सुरक्षा परिषद में होगा भारतीय कूटनीति का इम्तिहान
कश्मीर पर मोदी सरकार के बड़े फैसले का सुरक्षा परिषद में होगा भारतीय कूटनीति का इम्तिहान

[ विवेक काटजू ]: स्वतंत्र भारत के राष्ट्र जीवन में यह एक ऐतिहासिक पड़ाव है। गृहमंत्री अमित शाह ने सोमवार को संसद में बताया कि जम्मू-कश्मीर राज्य मौजूदा स्वरूप में समाप्त किया जा रहा है और उसके स्थान पर अब दो केंद्रशासित प्रदेश होंगे। पहला जम्मू-कश्मीर और दूसरा लद्दाख। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा होगी, लेकिन लद्दाख में नहीं। इस बड़े बदलाव के पीछे कई कारण भी बताए गए हैैं। लद्दाख के मामले में कहा जा रहा है कि केंद्रशासित दर्जा लद्दाखियों की आकांक्षाएं पूरी करने में मददगार होगा। इससे भी महत्वपूर्ण मसला जम्मू-कश्मीर का है। जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाने की पहल के पीछे की वजह आंतरिक सुरक्षा स्थिति बताई गई है। इस स्थिति के लिए सीमा पार आतंकवाद जिम्मेदार है।

पाक प्रायोजित आतंक पर लगेगा लगाम

यह अंतरराष्ट्रीय समुदाय को साफ संकेत है कि तीन दशकों से आतंकवाद का दामन पकड़े रहने वाले पाकिस्तान को अब इससे बाज आना चाहिए। पाकिस्तानी पोषित आतंकवाद ने जम्मू-कश्मीर की जनता का जीवन नरक बना दिया है। अब सरकार ने जो कदम उठाया है उससे यह उम्मीद लगाई जा सकती है कि इससे पाक प्रायोजित आतंक पर लगाम लग पाएगी। गृहमंत्री ने यह भी एलान किया कि जम्मू-कश्मीर का जो विशेष दर्जा था वह भी वापस लिया जाएगा। इसके साथ ही यह आस लगाई जा सकती है कि राज्य की जनता खासतौर से कश्मीर घाटी के लोगों के विकास की जरूरतों पर विशेष ध्यान देते हुए इस इलाके की प्रगति के लिए तेजी से कदम उठाए जाएंगे।

कश्मीरी अवाम की तरक्की रोकी

अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक वर्ग को कठघरे में खड़ा करते हुए आरोप लगाया कि कश्मीरी नेताओं ने कश्मीरी अवाम की तरक्की पर ध्यान नहीं दिया और अपनी स्वार्थ सिद्धि एवं राजनीति चमकाने में ही लगे रहे। सरकार के ये कदम विशेषकर जम्मू-कश्मीर को आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से पूरी तरह भारत से जोड़ने में सहायक हो सकते हैं।

एक राष्ट्र, एक कानून

अब तक जैसे जम्मू-कश्मीर के लोग भारत के अन्य भागों में कारोबार कर सकते थे, जमीन-जायदाद खरीद सकते थे वैसे ही उम्मीद की जा सकती है कि भारत के अन्य राज्यों के लोग भी कश्मीर में जाकर वहां की विकास प्रक्रिया मेंं पूर्ण रूप से शामिल हो सकते हैं। घाटी में खासतौर से इस बात को लेकर डर रहा है कि अगर ऐसा कदम उठाया जाएगा तो फिर कश्मीर की जनसांख्यिकी में बदलाव आ सकता है। ये आशंकाएं सही नहीं हैं। भारत के अन्य प्रदेशों के लोग किसी कतार में नहीं खड़े हैं कि वे जल्द से जल्द कश्मीर में जा बसेंगे। ऐसे में फौरी तौर पर ही नहीं, बल्कि भविष्य में भी घाटी की जनता को यह आश्वासन दिलाने की महती आवश्यकता है कि न केंद्र सरकार और न ही कोई अन्य राजनीतिक शक्ति उनके धर्म या उनकी परंपराओं में किसी तरह का हस्तक्षेप करना चाहती है।

विकास का भरोसा

हां, अलगाववाद को कभी मंजूर नहीं किया जा सकता और धार्मिक कट्टरपंथी तत्वों पर नियंत्रण रखना और कट्टरपंथी विचारधारा को समाप्त करना जरूरी है। पाकिस्तान के ‘फिफ्थ कॉलम’ यानी पाकिस्तानपरस्त तत्वों को भी खत्म करना है, लेकिन सरकार का दायित्व है कि वह कश्मीर की आम जनता को विकास का भरोसा दिलाते हुए यह भी विश्वास दिलाए कि उसके रोजमर्रा के जीवन में भी कोई दखलंदाजी नहीं होगी।

कश्मीर के राजनीतिक वर्ग पर बड़ा प्रहार

यह साफ है कि कश्मीर के राजनीतिक वर्ग पर सरकार ने एक बहुत बड़ा प्रहार किया है। इसी कारण अपने सभी मतभेदों को भुलाते हुए वे एकजुट हो गए हैं। वास्तव में यह वह राजनीतिक वर्ग है जो स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार और शेख अब्दुल्ला के बीच हुए समझौते के बाद अस्तित्व में आया। उस करार के तहत अब्दुल्ला ने कश्मीर को स्वतंत्र भारत का एक हिस्सा माना और कश्मीर के लिए स्वतंत्रता का दावा त्याग दिया। इसके बदले जम्मू-कश्मीर का विलय भारत में स्वायत्तता की शर्त पर हुआ।

स्वतंत्रता और स्वायत्तता में फर्क है

स्वतंत्रता और स्वायत्तता में जमीन-आसमान का फर्क है। 1953 में भारत सरकार को जब लगा कि शेख अब्दुल्ला स्वायत्तता को छोड़कर स्वतंत्रता की दिशा ढूंढ रहे हैं तो सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, लेकिन राज्य में ऐसे राजनीतिक तत्व थे जिन्हें स्वायत्तता मंजूर थी और उन्होंने भारत सरकार के साथ सहयोग जारी रखा।

कश्मीर की सियासी बिरादरी के साथ विश्वासघात

1971 के बाद कश्मीर की राजनीति ने नई करवट ली और शेख अब्दुल्ला ने स्वतंत्रता का सपना छोड़ दिया और भारत सरकार के साथ समझौता करके राज्य सरकार की बागडोर संभाली। चार दशकों से ज्यादा की इस अवधि में भारत सरकार ने कश्मीर की बुनियादी संवैधानिक स्वायत्तता कायम रखी जिसकी वजह से वहां के राजनीतिक वर्ग को यह भरोसा हुआ कि यह यथास्थिति बरकरार रहेगी। शायद उन्होंने संघ परिवार की कश्मीर को लेकर विचारधारा को नजरंदाज किया। इसी कारण राज्य की सियासी बिरादरी को लग रहा है कि उसने भारत सरकार से स्वायत्तता को लेकर जो सहमति वाला समझौता किया था उसमें अब उसके साथ विश्वासघात हुआ है। यह सोच गलत है।

कश्मीर के संवैधानिक परिवर्तन से पाकिस्तान व्याकुल

कश्मीर के संवैधानिक परिवर्तन से पाकिस्तान व्याकुल के साथ-साथ क्रोधित भी है। पाकिस्तान सरकार ने एलान किया है कि वह पूरी कोशिश करेगी कि भारत इन कदमों को वापस ले। पाक इस्लामिक देशों के संगठन यानी ओआइसी का दरवाजा पहले ही खटखटा चुका है। सुरक्षा परिषद में भी वह इस मुद्दे को उठाने की कोशिश करेगा। राष्ट्रपति ट्रंप सहित दुनिया के अन्य दिग्गज नेताओं पर भी इसमें हस्तक्षेप का दबाव डालेगा। वह यह भी दुष्प्रचार करेगा कि भारत के इस फैसले से दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ेगा जिससे विश्व शांति खतरे में पड़ सकती है। वह अपने प्रतिनिधिमंडल भेजकर महाशक्तियों की दृष्टि कश्मीर पर केंद्रित करने की कोशिश कर सकता है। संभव है कि पाक सरकार ट्रंप को यह संदेश भेजे कि मौजूदा हालात में वह उससे अफगान मसले पर सहयोग की अपेक्षा न करें, क्योंकि अब उसका पूरा ध्यान अपने पूर्वी मोर्चे पर होगा।

राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन

भारत सरकार ने राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है, लेकिन अब उसको आंतरिक मोर्चे पर यह साबित करना पड़ेगा कि यह कदम भारत के राष्ट्रीय हितों को पोषित करेगा। सरकार को ऐसे तत्वों को प्रोत्साहन देना होगा जो कश्मीर घाटी के लोगों में भारत के प्रति अच्छी भावनाएं विकसित कर सकें ताकि स्थानीय लोग भारतीय संघ के प्रति लगाव रखते हुए प्रत्येक स्तर पर भारतीय राष्ट्र जीवन का हिस्सा बन सकें।

भारतीय कूटनीति का इम्तिहान

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को यह स्पष्ट करना होगा कि यह संवैधानिक कदम भारत के आंतरिक मामलों से जुड़ा है और इसमें किसी देश या संस्था का हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं होगा। खासतौर से अगर पाक इस मामले को सुरक्षा परिषद में उठाने की कोशिश करे तो भारत को यह संदेश मजबूती से देना पड़ेगा कि अब परिषद का कश्मीर के मामले से कोई सरोकार नहीं। इस पूरी प्रक्रिया में भारतीय कूटनीति का भी एक इम्तिहान होगा।

( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )

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