सही तरीके से लागू नहीं किया जा रहा है दलबदल विरोधी कानून, उप राष्‍ट्रपति भी जता चुके हैं चिंता

देश में दलबदल के मामलों पर अक्सर खींचतान मची रहती है। समय-समय पर इसमें कई खामियां सामने आती रही हैं जिन्हें दूर करके ही इसे अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है।

By Kamal VermaEdited By: Publish:Fri, 24 Jan 2020 11:40 AM (IST) Updated:Fri, 24 Jan 2020 11:40 AM (IST)
सही तरीके से लागू नहीं किया जा रहा है दलबदल विरोधी कानून, उप राष्‍ट्रपति भी जता चुके हैं चिंता
सही तरीके से लागू नहीं किया जा रहा है दलबदल विरोधी कानून, उप राष्‍ट्रपति भी जता चुके हैं चिंता

अरविंद कुमार सिंह। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम सुझाव दिया है कि विधायकों को अयोग्य करार देने का अधिकार एक स्वतंत्र निकाय के पास हो। संसद यह तय करे कि विधायकों को अयोग्य ठहराने का अधिकार विधानसभा अध्यक्ष के पास हो या नहीं। यह सुझाव मणिपुर से संबंधित एक याचिका पर दिया गया है जिसमें दलबदल कानून के तहत विधायक टी श्यामकुमार सिंह को मणिपुर विधानसभा से अयोग्य ठहराने की याचना की गई थी। वर्ष 2017 में कांग्रेस के टिकट पर जीते श्यामकुमार बाद में भाजपा में चले गए और मंत्री बने। विधानसभा अध्यक्ष ने इस मामले को लेकर दायर याचिका पर लटकाने वाला रवैया अपनाया। इसी नाते सुप्रीम कोर्ट ने उनको चार सप्ताह में फैसला देने के साथ यह भी कहा कि अगर इस समय सीमा में फैसला नहीं होता तो याचिकाकर्ता दोबारा सुप्रीम कोर्ट आ सकते हैं।

अध्यक्ष सभा के नियमों, शक्तियों और विशेषाधिकारों के संरक्षक हैं। संसदीय परंपराओं का संरक्षण उनका कर्तव्य है। दलबदल कानून यानी संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत उनकी भूमिका न्यायाधीशों जैसी होती है, लेकिन यह भी सच है कि किसी भी फैसले को लेने के पहले उन पर अपने दल और खास तौर पर सत्ता दल का दबाव रहता है। इसी नाते देहरादून में पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में इस पर हुई व्यापक चर्चा के बाद एक समिति गठित की गई है जो व्यापक विचार के साथ संविधान संशोधन के साथ कई अहम सुझाव देगी। हाल में लखनऊ में संपन्न राष्ट्रमंडल संसदीय संघ के भारत परिक्षेत्र के सम्मेलन में भी लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा कि दलबदल कानून पर पीठासीन अधिकारियों के असीमित अधिकार सीमित होंगे।

मणिपुर के जिस मसले पर सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी आई है, उसमें टी श्यामकुमार समेत आठ कांग्रेस विधायक भाजपा में शामिल हुए तो राजनीति गरमा गई। वर्ष 2017 में मणिपुर में 60 विधानसभा सीटों पर हुए चुनावों में भाजपा को 21 और कांग्रेस को 28 सीटें मिली थीं। लेकिन दलबदल के बाद राजनीतिक तस्वीर बदल गई और भाजपा ने सरकार बना ली। विधानसभा अध्यक्ष ने इस मुद्दे पर सदन में चर्चा की अनुमति नहीं दी। बाद में कांग्रेस ने राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला और विधानसभा अध्यक्ष के समक्ष याचिका दायर कर भाजपा में शामिल होने वाले इन आठ विधायकों के साथ एक दर्जन संसदीय सचिवों को अयोग्य घोषित करने की मांग की। उसी दौरान कहा गया था कि सुनवाई न हुई तो कानूनी कार्रवाई का विकल्प खुला है। संसदीय सचिवों को हटाने के बाद वह मुद्दा तो समाप्त हो गया, लेकिन दलबदल का मुद्दा लटका रहा।

दलबदल के मामले से जुड़ा कानून संविधान की दसवीं अनुसूची से जुड़ा है जिसमें अध्यक्ष की अहम भूमिका होती है। आम बोलचाल में इसे दलबदल विरोधी कानून भी कहते हैं। यह विधेयक जनवरी 1985 में संसद से पारित हुआ। इसमें अनुच्छेद 101, 102, 190 और 191 में संशोधन किया गया और संविधान की दसवीं अनुसूची जोड़ी गई। इसमें दलबदल करने वाले सांसदों और विधायकों की अर्हता निरस्त करने के संबंध में उपबंध किए गए हैं। लेकिन इसके बावजूद फैसलों में देरी पर सवाल खड़े होते रहे हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि पीठासीन अधिकारियों के सामने तमाम चुनौतियां हैं। कई पीठासीन अधिकारियों का मानना है कि उनका दायित्व सदन चलाना है। अगर ब्रिटिश संसद बिना 10वीं अनुसूची के चल रही है तो यह काम भारत में क्यों हो। क्या अध्यक्षों का काम मुख्यमंत्रियों के हितों की रक्षा करना है या सदन की। अध्यक्ष दलीय झगड़ों में भागीदार क्यों बने। दलबदल बेहद घिनौना अपराध है, लेकिन सत्ता और धन की लालच में यह बढ़ता जा रहा है। तमाम पीठासीन अधिकारी मानते हैं कि महज सदस्यता ही नहीं, इसमें पांच साल तक चुनाव लड़ने के अयोग्य होने का प्राविधान भी जोड़ा जाना चाहिए।

राज्यसभा में सभापति एम वेंकैया नायडू ने 2017 में जदयू सांसद शरद यादव और अली अनवर अंसारी की सदस्यता समाप्त करने का फैसला तीन महीने में सुनाया। इस पर देश भर में काफी चर्चा हुई। सभापति ने अपने फैसले में लिखा कि ऐसे मामलों में देरी से दलबदल विरोधी कानून की मूल भावना आहत होती है। इस नाते विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों को ऐसी याचिकाओं का समयबद्ध और तीन माह के भीतर निपटारा कर देना चाहिए।

लेकिन दलबदल के मामले में अयोग्यता से संबंधित याचिकाओं के निपटारे में अप्रत्याशित देरी से कई पीठासीन अधिकारियों की बेहद आलोचनाएं हुई हैं। कुछ माह पहले उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने दलबदल कानून को अधिक प्रभावी बनाने के लिए संविधान की 10वीं अनुसूची की समीक्षा की अपील की थी। विधानमंडल के अध्यक्षों द्वारा शीघ्र निर्णय लेने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा था कि दलबदल विरोधी कानून सही तरीके से लागू नहीं किया जा रहा है। सभापति या अध्यक्ष की निष्क्रियता के कारण विधायक न केवल नई पार्टी में बने रहते हैं, बल्कि कुछ मामलों में मंत्री भी बन जाते हैं। न्याय के इस तरह के उपहास को बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि संसद हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली की धुरी है और पीठासीन अधिकारी संसदीय तंत्र की धुरी। अध्यक्ष के कार्यालय की अपनी गरिमा और महत्व है। उसके पास बहुत से अहम दायित्व और जिम्मेदारियां हैं। उसके अधीन विधानमंडलों की अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता है। लेकिन दलबदल कानून को लेकर उसके कई फैसलों पर सवाल उठे हैं। विधायिका और न्यायपालिका में तनाव भी पैदा हुआ। यह ताजा मसला भी काफी गंभीर है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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