तिब्बत: एक कार्ड या अंतरराष्ट्रीय मसला, चीन को घेरने की रणनीति बना रहा अमेरिका

अमेरिका ने तिब्बत को लेकर ‘रेसिप्रोकल एक्सेस टू तिब्बत एक्ट 2018’ नामक एक नया कानून बनाया है। इससे चीनी आधिपत्य वाले इस इलाके यानी तिब्बत में अमेरिकी अधिकारियों और नागरिकों के प्रवेश का रास्ता खुल गया है। अमेरिका इस कानून के तहत तिब्बत में वाकई में परिवर्तन चाहता है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Publish:Mon, 04 Jan 2021 01:25 PM (IST) Updated:Mon, 04 Jan 2021 01:25 PM (IST)
तिब्बत: एक कार्ड या अंतरराष्ट्रीय मसला, चीन को घेरने की रणनीति बना रहा अमेरिका
दलाई लामा के संदर्भ में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होगा, बल्कि उनकी समस्या और बढ़ेगी। प्रतीकात्मक

सतीश कुमार। तिब्बत के मसले पर अमेरिका एक बार फिर चीन को घेरने की कोशिश कर रहा है। ठीक इसी तरह की कोशिश वर्ष 2018 में भी की गई थी। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या सच में अमेरिका दलाई लामा की खंडित प्रतिष्ठा को स्थापित करना चाहता है या महज एक नौटंकी है, जो अंतरराष्ट्रीय दंगल में एक दूसरे को परेशान करने के लिए खेला जाता है। दरअसल पिछली सदी के छठे दशक से लेकर आज तक अमेरिका की कोई स्थायी तिब्बत नीति नहीं रही है। समय और परिस्थिति के साथ नियम बदलते रहे हैं। जब दलाई लामा की अंतरराष्ट्रीय पहचान जोरों पर थी, अमेरिका सहित पूरे यूरोप के बीच सबसे पसंदीदा शख्सियत के रूप में उनकी पहचान होती थी। उस समय अमेरिका ने चीन के साथ अपने संबंधों की शुरुआत कर दलाई लामा की योजना को खटाई में डाल दिया था। फिर हॉलीवुड और सिविल सोसायटी तक ही दलाई लामा की पहुंच सीमित हो गई।

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप चीन के साथ अपने संबंधों को लेकर काफी विवादास्पद रहे। अब जब उनकी विदाई 20 जनवरी को होगी तब क्या नए राष्ट्रपति भी तिब्बत के मुद्दे को लेकर चीन के साथ संघर्ष की स्थिति में होंगे? यह प्रश्न सबसे अहम है? इसलिए भारत सहित दुनिया के कई देश इस मुद्दे को लेकर चुप्पी साधे हुए हैं, लेकिन बाद की परिस्थितियों को समझने के लिए पहले यह जानना जरूरी है कि यह कानून है क्या? चीन किसलिए इतना कुंठित है? क्या हो सकता है? भारत की क्या भूमिका होगी?

चीन और अमेरिका के बीच जारी तनातनी और बीजिंग की ओर से मिल रही चेतावनियों को दरकिनार करते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने उस कानून पर हस्ताक्षर कर दिए हैं जो तिब्बतियों को उनके धर्मगुरु दलाई लामा के अगले उत्तराधिकारी को चुनने का हक देता है। ‘द तिब्बत पॉलिसी एंड सपोर्ट एक्ट’ को अमेरिकी कांग्रेस ने पिछले हफ्ते ही पास किया था जिससे चीन बुरी तरह चिढ़ गया और उसके विदेश मंत्रलय ने इस कानून को चीन के आंतरिक मामलों में दखलअंदाजी की कोशिश बताया था। चीन के विदेश मंत्रलय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने कहा, ‘हम अमेरिका से आग्रह करते हैं कि वह चीन के अंदरूनी मामलों में दखल न दे और इन नकारात्मक कानूनों पर हस्ताक्षर करने से बचे। बीजिंग अमेरिका के इस कानून को स्वीकार नहीं करता और तिब्बत से जुड़े मुद्दे हमारे घरेलू मामले हैं।’

दरअसल अमेरिका के कानून में तिब्बत के ल्हासा में अमेरिकी दूतावास खोलने की मांग की गई है। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि तिब्बतियों को 14वें दलाई लामा का उत्तराधिकारी चुनने का पूरा अधिकार है। वहीं, दलाई लामा को अलगाववादी बताने वाला चीन कहता है कि तिब्बत के धर्मगुरु के चुनाव में बीजिंग की स्वीकृति लेना जरूरी है। हालांकि तिब्बत चीन के इस दावे को नहीं मानता। नए कानून के तहत तिब्बत के मामलों पर अमेरिका के राजनयिक को यह अधिकार दिया गया है कि अगले दलाई लामा का चयन सिर्फ तिब्बती बौद्ध समुदाय द्वारा किया जाए। यह सुनिश्चित करने के लिए वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन कर सकता है। इसमें तिब्बत में तिब्बती समुदायों के समर्थन में गैर-सरकारी संगठनों को सहायता का प्रस्ताव है। इसमें अमेरिका में नए चीनी वाणिज्य दूतावासों पर तब तक पाबंदी की बात है, जब तक तिब्बत के ल्हासा में अमेरिकी वाणिज्य दूतावास की स्थापना नहीं की जाती।

यह कानून अमेरिकी सरकार को चीन के वैसे किसी भी अधिकारी पर आíथक और वीजा पाबंदियां लगाने का निर्देश देता है जो दलाई लामा के उत्तराधिकारी के विषय में दखल देता है। इस कानून में चीन पर तब तक अमेरिका में कोई भी नया वाणिज्यिक दूतावास खोलने से रोक है, जब तक अमेरिका को तिब्बत में अपना राजनयिक कार्यालय खोलने की अनुमति मिल नहीं जाती है। तिब्बत पर चीन की चढ़ाई के बाद वहां से भागकर दलाई लामा 1959 से भारत की शरण में रह रहे हैं। उनके साथ ही उनके हजारों अनुयायी भी हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रहते हैं। फिलहाल करीब 80 हजार तिब्बती भारत में रह रहे हैं। इसके अलावा दुनियाभर खासतौर पर अमेरिका और यूरोप में भी करीब डेढ़ लाख से ज्यादा तिब्बतियों ने शरण ली हुई है।

उल्लेखनीय है कि इस नए अमेरिकी कानून पर ट्रंप के हस्ताक्षर करने से चीन की परेशानी बढ़ेगी, क्योंकि इस कानून से उन चीनी अधिकारियों पर वीजा पाबंदी लगाने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा जो अमेरिकी नागरिकों, सरकारी अधिकारियों और पत्रकारों को तिब्बत के निर्वासित आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा के गृह क्षेत्र तिब्बत जाने की अनुमति नहीं देते हैं। यह कानून अमेरिका के राजनयिकों, अधिकारियों व पत्रकारों को तिब्बत में जाने का मार्ग प्रशस्त करता है। राष्ट्रपति द्वारा विधेयक पर हस्ताक्षर करने से पहले अमेरिकी सीनेट और प्रतिनिधि सभा इसे पहले ही मंजूरी दे चुकी है। ट्रंप ने यह कदम ऐसे वक्त में उठाया है जब चीन इस संबंध में कानून को लेकर अमेरिका से सख्त कूटनीतिक प्रतिरोध जता चुका है।

भारत को साधने के प्रयास में चीन : तिब्बत का मुद्दा अमेरिका और चीन के बीच समुद्री लहर की तरह कभी ऊपर उठता है तो कभी अचानक गुम हो जाता है। दूसरा महत्वपूर्ण आयाम भारत की भूमिका और तिब्बत के सामरिक महत्व को लेकर है। जब अमेरिका और भारत के बीच द्विपक्षीय संबंधों की गति में तेजी आती है, चीन को पसीना निकलने लगता है। कारण होता है तिब्बत। चीन की सामरिक सोच यह रही है कि तिब्बत पर अमेरिका अपने बूते उसे कोई भी बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा सकता, क्योंकि अमेरिका चीन से बहुत दूर है। इसी कारण वर्ष 1950 के आसपास अमेरिका ने खंपा विद्रोहियों को हवा देकर तिब्बत को स्वतंत्र करने का असफल प्रयास किया था। नेहरू के चीन प्रेम या गुटनिरपेक्षता ने अमेरिकी पहल को भारत का समर्थन मिलने की राह बंद कर दी थी, इसलिए यह प्रयास फेल हो गया था। चीन मानता है कि भारत के पास इतना भी दम-खम नहीं है कि वह तिब्बत को आजाद करा सके। लेकिन चीन की बेचैनी तब बढ़ जाती है, जब भारत और अमेरिका एक साथ खड़े दिखाई देते हैं। उसे लगने लगता है कि तिब्बत खतरे में है और उसकी सुरक्षा को भेदा जा सकता है, तो वह मतभेद भुलाने और दोस्ती बढ़ाने की बात करता है।

अमेरिकी मंशा : लेकिन यहां अहम प्रश्न यह है कि अमेरिका चीन के विरुद्ध इस मोर्चे पर सचमुच गंभीर है या यह महज दिखावटी क्रोध है। अभी तक अमेरिका चीन के विरुद्ध एक कार्ड के रूप में तिब्बत का उपयोग करता रहा है। यानी लक्ष्य कुछ और रहा मगर कारण तिब्बत बना। वर्ष 1950 से 1972 तक शीत युद्ध के दौरान अमेरिका की मंशा साम्यवादी खेमे की घेरेबंदी करने की थी, क्योंकि उसे डर था कि चीन तिब्बत को अपने कब्जे में लेकर साम्यवाद का प्रसार पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में करेगा। वर्ष 1973 में निक्सन और किसिंजर की जोड़ी ने चीन के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित कर विश्व राजनीति की धारा को ही मोड़ दिया। चीन को पूर्व सोवियत संघ के विरुद्ध प्रयोग में लाने की जोर आजमाइश की जाने लगी। इस तरह तिब्बत का मसला खटाई में पड़ गया, लेकिन वियतनाम की घटना के बाद तिब्बत का मुद्दा अमेरिका में फिर उछला। इस बार सामरिक सोच कम, मानवाधिकार हनन का दंश ज्यादा हावी रहा। अंतरराष्ट्रीय समीकरण तेजी से बदलने लगे। चीन आíथक रूप से मजबूत होता गया। उसे नाराज करना किसी भी देश के लिए कठिन हो गया। अमेरिका ने भी चुप्पी साध ली।

चीन को घेरने की रणनीति बना रहा अमेरिका : इतिहास पर नजर डालें तो तिब्बत के मसले पर चीन, अमेरिका और भारत के रुख और आक्रामकता में कई बार समयानुकूल बदलाव आया है, लेकिन यह भी सही है कि डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद से अमेरिका-चीन के समीकरण बदलने लगे हैं। यह परिवर्तन भारत के लिए काफी अहमियत रखता है। पिछले वर्ष डोकलाम का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय पटल पर छाया रहा। भारत-चीन के बीच इस भिड़ंत के पीछे भी कारण तिब्बत ही है। दरअसल अरुणाचल प्रदेश को चीन तिब्बत का अंग मानता है। उल्लेखनीय है कि 16वीं और 17वीं शताब्दी में तिब्बत के लामा काफी शक्तिशाली हुआ करते थे। उनका प्रभाव क्षेत्र चीन समेत अरुणाचल प्रदेश के भी कई हिस्सों तक फैला हुआ था। यही कारण है कि जब भी सीमाई विवाद उत्पन्न होता है, चीन यह दलील देता है कि चूंकि तिब्बत चीन का क्षेत्र है, इसलिए तिब्बत के अंग से जुड़े हिस्से भी चीन का अभिन्न अंग हैं।

भारत स्वीकार कर चुका है कि तिब्बत चीन का अभिन्न अंग है। इस कबूलनामे ने हमारे लिए कई मुश्किलें पैदा कीं। पहला, ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान भारतीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए दोहरे बफर स्टेट की बिसात बिछाई गई थी। पहला तिब्बत और दूसरा नेपाल। तिब्बत पर चीन का अधिकार सुनिश्चित हो जाने के बाद नेपाल में चीन की सक्रियता बढ़ गई है। वर्ष 1980 के बाद से चीन नेपाल का मुख्य प्रेरक देश बन गया है। चीन और नेपाल के बीच पहले न तो कोई ऐतिहासिक संपर्क रहा है और न ही कोई सांस्कृतिक जुड़ाव रहा है। परिवहन संपर्क भी कभी नहीं रहा। अगर कोई कारण था तो वह था तिब्बत। आज भी चीन नेपाल के लिए जो कुछ भी कर रहा है, उसके पीछे मूल कारण तिब्बत ही है। ऐसे परिदृश्य के बीच अगर अमेरिका में तिब्बत का मसला गरमा रहा है तो यह भारत के लिए एक अच्छा मौका है। चीन भारत को घेरने की हरसंभव कोशिश में है। ऐसे में अमेरिका और चीन में तल्खी चीन को दबाव में लाने का काम कर सकती है। दलाई लामा का मध्यमार्गी रुख भी चीन को पसंद नहीं है। उन्हें नोबेल पुरस्कार भी शांति के लिए मिल चुका है। भारत में उनकी निर्वासित सरकार भी चलती है। दुनिया के देशों में उनकी खूब खातिरदारी भी की जाती है, इसलिए चीन चिंतित है। भारत और अमेरिका की मिलीभगत तिब्बत के मुद्दे पर बन सकती है। इसमें दोनों देशों का हित है।

लेकिन हमें इस बारे में भी विचार करना होगा कि क्या अमेरिका तिब्बत को एक कार्ड के रूप में प्रयोग करता है, दरअसल दलाई लामा की खोई हुई प्रतिष्ठा उसकी प्राथमिकता नहीं है। अगर यह कानून भी उसी मानसिकता के साथ बना है तो दलाई लामा के संदर्भ में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होगा, बल्कि उनकी समस्या और बढ़ेगी।

[प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान, इग्नू, नई दिल्ली]

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