मुस्लिम समाज अपनाए नया नजरिया

बदकिस्मती से मुस्लिम समाज के नेतृत्व ने उसे सही दिशा देने में अपेक्षित भूमिका नहीं निभाई।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Wed, 22 Mar 2017 12:29 AM (IST) Updated:Wed, 22 Mar 2017 12:41 AM (IST)
मुस्लिम समाज अपनाए नया नजरिया
मुस्लिम समाज अपनाए नया नजरिया

रामिश सिद्दीकी

हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा को ऐसी ऐतिहासिक जीत मिली जिसके बारे में बड़े से बड़े सियासी पंडितों ने सोचा भी नहीं था। देश में सबसे ज्यादा 80 सांसद भेजने वाले उत्तर प्रदेश से एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है और हालिया चुनावों में प्रचंड बहुमत हासिल करने वाली पार्टी में भी एक अदद मुस्लिम विधायक नहीं। भाजपा ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट तक नहीं दिया था। मंत्रिमंडल में अवश्य एक मुस्लिम को स्थान मिला। इंडोनेशिया के बाद भारत में ही दुनिया की सबसे अधिक मुस्लिम आबादी रहती है। यह वही आबादी है जिसने 1947 में मजहब के नाम पर बंटे पाकिस्तान में जाने का पुरजोर विरोध किया था और भारत को अपनी मातृभूमि के रूप में चुना था, मगर अफसोस की बात है कि बदलते भारत में यह तबका कोई खास रचनात्मक योगदान देने में नाकाम रहा। वह देश में सबसे बड़ा वंचित समाज बनकर रह गया। अगर इस देश में मुस्लिम समाज के इतिहास, परंपरा और अन्य पहलुओं को देखा जाए तो वे इस बदलते भारत में बड़ा योगदान दे सकते थे, मगर ऐसा हो नहीं पाया। बदकिस्मती से मुस्लिम समाज के नेतृत्व ने उसे सही दिशा देने में अपेक्षित भूमिका नहीं निभाई।
डॉ. थियोडॉर पॉल राइट जूनियर नाम के एक अमेरिकी विद्वान ने भारत के मुसलमानों पर गहन अध्ययन किया है जिसे दुनिया की विख्यात पत्र-पत्रिकाओं में जगह भी मिली है। उन्होंने भारतीय मुसलमानों को मुख्य रूप से दो बड़ी श्रेणियों में बांटा। एक तटवर्ती मुसलमान और दूसरे अंतरदेशीय मुसलमान। तटवर्ती मुसलमानों को उन्होंने मूलत: व्यापारी बताया जिस कारण वे दंगों के बहुत कम शिकार हुए। दूसरी ओर अंतरदेशीय मुसलमानों को उन्होंने विरासत के चिन्हों से ओतप्रोत समुदाय बताया जो आज भी अपने लाल किलों और ताजमहल की स्मृतियों में खोया रहता है। वे यह भूलने को तैयार नहीं कि एक वक्त देश में उनकी हुकूमत थी। वास्तव में आज अगर मुस्लिम समाज खुद को वर्तमान से नहीं जोड़ पा रहा तो उसके पीछे उसके दिमाग में बसा अपने पूर्वजों का वह यशस्वी दौर है जब समूचे दक्षिण एशिया पर उनका राज था। अतीत के इस बेजा ख्याल में खोकर वे भारी गलती कर रहे हैं। यही ख्याल बेहतर भविष्य की बुनियाद रखने में मुश्किल खड़ी कर रहा है। इस समाज के अक्षम नेतृत्व ने इतने अफसोसजनक हालात पैदा किए कि वह पिछले पायदान पर पहुंचकर महज एक वोट बैंक बनकर रह गया है। मुस्लिम नेतृत्व ने मुस्लिम समाज को जिस ओर अग्रसर किया वह राह केवल मानसिक विध्वंस की ओर ही ले जाती है। आज शिक्षा, विज्ञान और व्यापार जैसे क्षेत्रों में मुस्लिम समाज आखिरी छोर पर खड़ा क्यों मिलता है? क्या इसलिए कि सांसद-विधायक कम हैं?
इतिहास ऐसी अनगिनत मिसालों से भरा हुआ है जब समाज ने स्वयं को शून्य से दोबारा खड़ा किया। मुस्लिम समाज को इन्हीं मिसालों पर गौर करना चाहिए। आधुनिक इतिहास में जापान इसका बड़ा उदाहरण है। जापान के लोग खुद को सूर्य की संतान कहते थे। उन्हें लगता था वे बाकी सभी देशों पर राज करने के लिए बने हैं। इसके चलते 1937 से 1945 के बीच जापान एक आक्रामक साम्राज्यवादी देश बन गया और उसने मनीला, सिंगापुर और रंगून पर कब्जा कर लिया। उस समय जापानियों का नारा था कि ‘पूर्वी एशिया जापान का है।’ मगर उन्हें तब अमेरिका के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा जब हिरोशिमा एवं नागासाकी पर परमाणु बम गिराए गए। इसके बाद जापान के पास अपमानजनक समर्पण के इलावा कोई रास्ता नहीं बचा था, जिसकी स्वीकृति जापान के राजा हिरोहितो ने 14 अगस्त 1945 को दी। तब हिरोहितो के रेडियो के जरिये दिए जा रहे संबोधन को रोकने के लिए फौजी चरमपंथियों ने खूब प्रयास किए। उन्हें लगा कि राजा के इस कदम से जापानी गौरव धूल-धूसरित हो जाएगा। फौज के तमाम सैनिकों और अधिकारियों की आत्महत्या भी हिरोहितो को डिगा नहीं पाई और उन्होंने 2 सितंबर को दस्तावेज पर दस्तखत कर अमेरिकी प्रभुता को स्वीकार कर लिया। अमेरिका के राजनीतिक एवं आर्थिक प्रभाव को मानने के बाद जापान ने अपना पूरा ध्यान विज्ञान और तकनीक पर केंद्रित कर राष्ट्र के पुनरुत्थान का लक्ष्य तय किया। नतीजा यह निकला कि आर्थिक रूप से बदहाल हो चुका देश महज 30 वर्षों के दौरान दुनिया में तकनीक का सरताज बन गया। यहां तक कि अमेरिकी बाजार में जापानी वस्तुओं का बोलबाला हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी कर्ज के बोझ तले दबा जापान आज अमेरिका को 128 अरब डॉलर की सामग्र्री निर्यात करता है। इसकी तुलना में अमेरिका से उसका आयात 67 अरब डॉलर का है। आज अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश बन गया है जिस पर 200 अरब डॉलर से अधिक का कर्ज है। दूसरी ओर जापान साहूकार की भूमिका में है।
दुनिया में वही लोग कुछ अलग कर पाते हैं जो बदले हालात में भी सकारात्मक नजरिया रखते हैं। मुस्लिम समाज में भी ऐसा उदाहरण हजरत मुहम्मद साहब के जीवन से मिलता है जब हुद्दैबिय्याह में(जो उस समय मक्का शहर के पश्चिम में एक छोटा सा स्थान था) उन्होंने एक संधि पर हस्ताक्षर किए थे जिसे खुद हजरत साहब के साथियों ने एकतरफा कहते हुए नकार दिया था। वही संधि मुहम्मद साहब के मिशन का एक निर्णायक मोड़ साबित हुई। जापान ने परमाणु बम को झेला और अपने नागरिकों को खोया, लेकिन उसने दोषारोपण और बदले की आग में न जलकर स्वयं को उद्यमिता में तत्पर कर दिया। परिस्थितियों ने आज मुस्लिम समाज को एक और मौका दिया है कि वह आत्ममंथन कर खुद को नकारात्मक सोच से निकालकर सकारात्मकता की ओर कदम बढ़ाए। इसमें पहला कदम तो उस मानसिकता से बाहर निकलने का ही होगा कि वे शोषित हैं। उन्हें इसकी जगह नया नजरिया अख्तियार करना होगा। उन्हें समझना होगा कि वे न तो शोषित हैं और न ही अल्पसंख्यक, बल्कि वे इस देश की ताकत हैं। आज मानव संसाधन विश्व में सबसे बेशकीमती संसाधन है। यह नहीं सोचना चाहिए कि आपके कितने सांसद या कितने विधायक हैं। तरक्की का मापदंड राजनीति नहीं शिक्षा होनी चाहिए। यह देखा जाना चाहिए कि आजादी के बाद आपके कितने स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय विश्व स्तर के बने। अगर इसका जवाब शून्य है तो फिलहाल बेरोजगार मुस्लिम नेतृत्व के लिए बेहतर होगा कि वह नई राजनीतिक पार्टियां बनाने के बजाय इस दिशा में काम करे।
[ लेखक इस्लामिक विषयों के जानकार हैं ] 

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