रंग लाएंगे प्रशासनिक सुधार

सरकार और प्रशासन एक सिक्के के दो पहलू नहीं एक-दूसरे के पर्याय हैं। किसी भी सरकार की सफलता उसके प्रशासन की दक्षता और कार्य कुशलता से साबित होती है।

By Sachin BajpaiEdited By: Publish:Sat, 19 Dec 2015 03:40 AM (IST) Updated:Sat, 19 Dec 2015 03:49 AM (IST)
रंग लाएंगे प्रशासनिक सुधार

सरकार और प्रशासन एक सिक्के के दो पहलू नहीं एक-दूसरे के पर्याय हैं। किसी भी सरकार की सफलता उसके प्रशासन की दक्षता और कार्य कुशलता से साबित होती है। केंद्र सरकार ने लीक से हटकर कुछ कदम उठाए हैं जिन पर गौर किया जाना चाहिए। वेतन आयोग की रपट पहली बार समय से पहले आई है। सातवें वेतन आयोग की रपट के अनुसार नए वेतनमान पहली जनवरी 2016 से लागू होंगे। यह वेतन आयोग के इतिहास में पहली बार हुआ है, अन्यथा पिछले वेतन आयोग 2006 की रिपोर्ट 2008 में आई थी और 1996 की 1998 में।

कार्मिक मंत्रलय ने सभी मंत्रलयों को ऐसे निर्देश दिए हैं कि ऐसी सभी समितियां-आयोग अपना काम तय समय पर पूरा करें। सातवें वेतन आयोग की न केवल रिपोर्ट समय से पहले आई है, बल्कि उसने पुरानी प्रशासनिक खामियों को दूर करने का भी प्रयास किया है। आजादी के बाद एक ही सिविल सेवा परीक्षा से चुने गए आइएएस, आइपीएस और केंद्रीय सेवाओं की बराबरी को समझा गया है। दो-चार नंबरों के आधार पर जो आइएएस अपने को ऊंचा मानते थे और बेहतर वेतनमान पाते थे उन्हें सभी के बराबर ठीक ही रखा गया है। महिलाओं की दी जाने वाली ‘चाइल्ड केयरलीव’ को तर्कसंगत बनाया गया है और उन पिताओं को भी दिए जाने की सिफारिश की गई है, जिनके बच्चों की मां नहीं हैं।

अगर देश को वाकई नई ऊंचाई पर ले जाना है तो प्रशासनिक सुधारों की निरंतरता बनी रहनी चाहिए। जनता तक इसके लाभ पहुंचेंगे तो वह विरोधियों की आवाज सुनना खुद ही बंद कर देगी। कुछ समय पहले केंद्र सरकार ने क वर्ग को छोड़कर अन्य सभी पदों की भर्ती में साक्षात्कार के प्रावधान को समाप्त करने का फैसला किया था। यह उचित फैसला है और सीधी भाषा में कहा जाए तो किसी को लिखित परीक्षा के आधार पर ही चुना जाएगा। भारत जैसे देश में जहां बेरोजगारी की भयानकता डराती है और भ्रष्टाचार के सबसे ज्यादा मामले नौकरियों में उजागर होते हैं वहां इस उपाय से भ्रष्टाचार और बेईमानी को रोकने में मदद मिलेगी।

साक्षात्कार के नाम पर पिछले दरवाजे से जो आते थे उन पर अंकुश लगेगा। याद कीजिए हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला और एक आइएएस अफसर भर्ती के गोलमाल में ही तिहाड़ जेल में हैं। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के चेयरमैन को भर्ती में अनियमितताओं के कारण ही हटा दिया गया। ऐसे में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि राज्य सरकारों के स्तर पर भी सामान्य भर्तियों में साक्षात्कार के अंक समाप्त किए जाएं। सबसे ज्यादा बुरा हाल विश्वविद्यालयों की नौकरी का है, जहां लिखित परीक्षा होती ही नहीं है। जिन संस्थाओं के पास देश की भावी पीढ़ी को नैतिक बनाने की जिम्मेदारी है जब उन्हीं की भर्ती सिफारिश के आधार पर हो तो वही हश्र होगा जो आज है। यदि आप किसी पार्टी या उसके संगठन या विवि के अधिकारियों से नहीं जुड़े हैं तो लाख डिग्रियों के बाद भी आप सड़क नापते रहेंगे। केंद्रीय विवि में शिक्षकों, वाइस-चांसलर की भर्ती का काम संघ लोक सेवा आयोग को भी दिया जा सकता है।

केंद्र सरकार का दफ्तरों मे समय पर पहुंचने की सख्ती का मामला रह-रह कर चर्चा में आता रहता है। इस सख्ती का काफी कुछ असर अब दिखने लगा है। जिस समय सरकारी दफ्तरों में बायोमेटिक मशीन लगी थी उस वक्त ऐसे तर्क दिए जा रहे थे कि देखें अब कौन हमें ज्यादा देर तक रुकने को कहता है? सरकार को काम से मतलब होना चाहिए न कि घड़ी से। जैसे ही सख्ती से वेतन में कटौती की बात हुई, सभी समय पर दफ्तर पहुंचने लगे। वे भी जो बीमारी या रिश्तेदार को अस्पताल में देखने का बहाना बनाकर आए दिन गायब रहते थे। जब बैंक या दूसरे कर्मचारी समय पर पहुंच सकते हैं तो बाकी सरकारी कर्मचारी क्यों नहीं, जिन्हें पिछले तीन वेतन आयोगों ने ठीक-ठाक वेतन-भत्ते दिए हैं? अनुभव बताता है कि भ्रष्टाचार के जितने रास्ते हैं उन्हें पुराने अधिकारी मंत्री से ज्यादा जानते हैं। ऐसे निजी सचिव सैकड़ों में थे जो हर सरकार में मंत्रियों के साथ रहे। पहली बार उन्हें सरकार ने झटका दिया। यह आवश्यक है कि पुरानी सरकार के मंत्रियों के साथ काम कर चुके निजी सचिवों को नए मंत्रियों के साथ तैनात न करने के आदेश को प्रभावी बनाए रखा जाए।

यह उचित ही है कि विदेश अध्ययन, अवकाश आदि तिकड़मों से लापता अफसरों को बर्खास्त करने के साथ सरकार ने सरकारी खर्चे पर विदेश जा रहे अधिकारियों की भी निगरानी शुरू कर दी है, लेकिन कुछ प्रशासनिक सुधार अभी और अपेक्षित हैं। अधिकारियों के समय से पहले स्थानांतरण के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने सिविल सेवा बोर्ड बनाने का निर्णय दिया था। सुप्रीम कोर्ट का सुझाव था कि जिलाधिकारी, पुलिस कप्तान जैसे पदों पर कम से कम दो साल का कार्यकाल हो।

हर राज्य में ऐसे मामले हैं जहां ईमानदार-निडर अफसरों को बार-बार तबादला करके परेशान किया जाता है। इस मामले में केंद्र सरकार को कुछ सख्त कदम उठाने की जरूरत है। सिविल सेवा परीक्षा के प्रथम चरण सी-सैट में संप्रग सरकार ने 2011 में अंग्रेजी थोप दी थी। मोदी सरकार ने उसे हटाकर भारतीय भाषा और प्रशासन के पक्ष में एक सही कदम उठाया है। अच्छा हो संघ लोक सेवा आयोग की अन्य परीक्षाओं जैसे भारतीय वन सेवा, चिकित्सा सेवा, इंजीनियरिंग आदि में भी अंग्रेजी के साथ सभी भारतीय भाषाओं में उत्तर लिखने की छूट मिले।

हमारे जनवादी सोच वाले बुद्धिजीवी अक्सर सरकारी अकर्मण्यता और बेईमानी को लोकतंत्र का नासूर मानते हैं। यह ठीक भी है, लेकिन जब कोई सरकार उन पर नकेल डालने के लिए कदम उठाती है तो उसका खुलकर समर्थन भी नहीं किया जाता। सरकारी स्कूल, अस्पताल, परिवहन और अन्य सेवाओं में पारदर्शिता और कार्यकुशलता लाकर ही निजीकरण रोका जा सकता है। सिर्फ निजीकरण के हवाई विरोध से नहीं। चूंकि दशकों से जमी-जमाई लाल फीताशाही और काहिली से पीछा छुड़ाना आसान नहीं इसलिए प्रशासनिक सुधार का सिलसिला कायम रहना चाहिए।

[लेखक प्रेमपाल शर्मा रेलवे बोर्ड में संयुक्त सचिव रहे हैं]

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