एक भटकी हुई बहस

हाल ही में जब सरकार ने पोर्न साइटों पर रोक लगाने की बात कही तो बहुत सी बहसों को सुनकर ऐसा लगा, मानो बस इस संसार का अंत करीब है। देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर इतना खतरा मंडरा रहा है कि बस दूसरा आपातकाल लगने को है।

By Bhupendra SinghEdited By: Publish:Sun, 23 Aug 2015 12:31 AM (IST) Updated:Sun, 23 Aug 2015 12:34 AM (IST)
एक भटकी हुई बहस

हाल ही में जब सरकार ने पोर्न साइटों पर रोक लगाने की बात कही तो बहुत सी बहसों को सुनकर ऐसा लगा, मानो बस इस संसार का अंत करीब है। देश में अभिव्यक्ति की आजादी और निजता के अधिकार पर इतना खतरा मंडरा रहा है कि बस दूसरा आपातकाल लगने को है। कहा जाने लगा कि सरकार लोगों के शयनकक्ष में क्यों घुस रही है। लोग निजी तौर पर क्या देखना चाहते हैं क्या नहीं इसका फैसला करने वाली सरकार कौन होती है। इस प्रकार के तर्कों से एक तो इस मूढ़ लेखिका को यह पता चला कि इस देश में घरों के भीतर सौ फीसद लोग पोर्न साइटें देखते हैं। सबको यह पता है कि घर के भीतर बाल बच्चों के सामने कुछ भी देखा जा सकता है।

कुछ दिनों पहले अलीक पदमसी ने कहा था कि विदेश में लोगों के आठ-आठ साल के बच्चे पोर्न देखते हैं और किसी को कोई एतराज नहीं होता। यानी अपने यहां भी पोर्न जैसी अच्छी चीज को बच्चे देखें इसके लिए माता-पिता और सब बड़ों को चाहिए कि वे इसके लिए उन्हें प्रेरित करें। हां अलीक ने यह नहीं बताया कि क्या वे अपने बच्चों के साथ बैठकर ऐसा करते हैं या कि यह सलाह सिर्फ दूसरों के लिए है। एडल्ट मैगजीन फेंटेसी के एडीटर ने एक बार कहा था कि वह नहीं चाहते कि इस मैगजीन को उनके बच्चे देखें इसलिए वह इसे घर नहीं ले जाते। यौन अपराध के आरोपी बहुत से किशोरों ने कहा था कि उन्होंने अपराध ब्ल्यू फिल्म देखने के बाद किया था। जबकि पोर्न के समर्थक कह रहे हैं कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि इससे अपराध बढ़ते हैं। एक सर्वे में पोर्न देखने वाले सत्तर प्रतिशत लोगों ने कहा था कि इसे देखने के बाद वे दुष्कर्म करना चाहते हैं।

पोर्न पर रोक का विरोध करने वालों का मुख्य तर्क था कि घर के भीतर कोई क्या कर रहा है इससे किसी को क्या मतलब। अफसोस कि इनमें से किसी ने पोर्न को औरतों के नजरिए से देखने की कोशिश नहीं की। हम सभी जानते हैं कि औरत के प्रति तमाम किस्म के अधिकतर गंभीर अपराध, हिंसा और दुष्कर्म घर के भीतर ही होते हैं। आंकड़े बताते हैं कि नब्बे प्रतिशत से अधिक दुष्कर्म नाते-रिश्तेदारों और परिचितों द्वारा घर में ही किए जाते हैं। आखिर ये अपराध घर के भीतर ही तो हो रहे हैं। कल कोई इन्हें भी निजता का मामला ठहरा देगा। फिर सरकारों को इन अपराधों के खिलाफ कानून बनाने की क्या जरूरत है। इन कानूनों के जरिये लोगों को कठोर सजा भी तो निजता का अतिक्रमण ही मानी जाएगी, क्योंकि ये अपराध घर के भीतर हुए और घर के लोगों ने ही इन्हें अंजाम दिया। पहले कोई पुरुष अपनी पत्नी को पीटता था और कोई दूसरा उसे बचाने जाता था, तो पिटाई झेलती पत्नी ही तनकर खड़ी हो जाती थी कि तुझे क्या मतलब। मेरा पति मारे या कुछ भी करे। आखिर निजता ही तो थी जिसकी रक्षा पत्नी करती थी। बेकार में सरकार ने घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून बनाया। यही नहीं हाल ही में शादी के बाद जबर्दस्ती करने को मैरीटल रेप कहकर सजा के दायरे में लाने की बात जोरदार ढंग से कही जा रही थी। जिसे संप्रग और राजग की सरकारों ने नहीं माना। क्रांतिकारियों ने इसके लिए सरकारों को खूब लानतें भेजीं। लेकिन इस मामले में उन्हें आखिर सरकारों का किसी के शयनकक्ष में झांकना और निगरानी करना क्यों बुरा नहीं लगा। यह भी तो निजता का ही मामला था। या तर्कों को हमेशा जब मन आए तब अपने हिसाब से बदल लेना चाहिए।

आजकल अश्लीलता को बेचने के लिए तरह-तरह की जुगत भिड़ाई जाती हैं। इसमें अपने-अपने तर्कों से औरतों को भी शामिल कर लिया जाता है। पोर्न का दुनिया भर में फैला अरबों-खरबों का व्यवसाय आखिर यों ही तो नहीं है। आज तकनीक और मीडिया के जरिये यह और भी तेज गति से फल-फूल रहा है। औरत पुरुष को अपने हाव-भाव से रिझाए, इसके लिए अपने शरीर का उपयोग करे और अंतत: उसकी कामना और वासना जगाने में प्रमुख भूमिका निभाए। औरत की इस छवि को दिखाने और परोसने में आज तक मीडिया तथा अन्य माध्यमों में कोई परिवर्तन नहीं आया है। बाजार का मूल मंत्र है-सेक्स ही बिकता है। कोई स्त्रीवादी विचार, मीडिया, फिल्मों, धारावाहिकों को इस पुरुषवादी विचार से मुक्त नहीं कर सका है कि औरत का मतलब सिर्फ और सिर्फ उसे आनंद पहुंचाने वाली और सेक्स आब्जेक्ट ही नहीं होता है। बहुत सी अभिनेत्रियां, निर्देशक आदि इस बात को स्वीकारते हैं मगर इसकी जिम्मेदारी वे दर्शकों पर डाल देते हैं कि वे औरत को कम कपड़ों में नाचते-गाते ही देखना चाहते हैं। यह एक प्रकार से बाजार की उन शक्तियों की चालाकी है जो अपने उत्पाद को बेचने के लिए हमेशा औरत के शरीर की बाजार में नुमाइश लगाए रखना चाहते हैं। प्रसिद्ध महिलावादी सिमोन का यह कथन कि औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती हैं दर्शकों पर भी फिट बैठता है कि दर्शक होते नहीं बनाए जाते हैं। वे क्या देखना चाहते हैं, यह कोई नहीं पूछता बल्कि कुछ दृश्यों को बार-बार दिखाकर उसकी आदत उन्हें डाली जाती है। जबकि औरत की इस लार टपकाऊ छवि ने हमेशा उसे तमाम तरह के बंधनों, रूढिय़ों में झोंका है और दरिंदों के आगे डाला है।

महिला संगठन मीडिया और तमाम प्रचार माध्यमों में औरत की सेक्स आब्जेक्ट के रूप में परोसी जाती छवि का विरोध करते रहे हैं। अस्सी के दशक में तो बाकायदा अभियान चलाकर फिल्मों के अश्लील पोस्टर्स पर औरतें कालिख पोतती थीं। वे औरतों के शरीर को बाजार में परोसे जाने के खिलाफ थीं। मगर पोर्न के सिपहसालारों के आगे औरतों की आवाज दब सी गई। सरकार इस डर से कि कहीं कोई पोंगापंथी का तमगा न चिपका दे, सिर पर पैर रखकर भागी और कहा कि हमने तो सिर्फ बच्चों की पोर्न साइटों पर रोक लगाई है। मगर अब इस बात पर बहस छिड़ी है कि आखिर तय कैसे करें कि कौन सी साइट बच्चों की है और कौन सी नहीं। हालांकि हाल ही में खबर आई कि चीन ने बहुत सी पोर्न साइटों पर प्रतिबंध लगा दिया है।

[लेखिका क्षमा शर्मा, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]

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