दृष्टिकोण

By Edited By: Publish:Tue, 21 Feb 2012 12:00 AM (IST) Updated:Tue, 21 Feb 2012 12:00 AM (IST)
दृष्टिकोण

एक ही वातावरण, परिस्थिति और अनुशासन में रहते हुए भी हर व्यक्ति के विचार-कार्य तथा कार्यो की विधि-गति में अंतर अवश्य बना रहता है। यह अंतर उसके दृष्टिकोण को ही प्रदर्शित करता है कि वह जीवन को कैसा देखता है? जीवन में क्यों दुखी या सुखी है तथा क्या प्राप्त करना चाहता है।

दृष्टिकोण का आधार व्यक्ति के संस्कार होते हैं। संस्कार दो प्रकार के होते हैं-प्रथम, जो व्यक्ति जन्म के साथ अपने साथ लाता है। दूसरा, जो व्यक्ति इस जीवन में शिक्षा और वातावरण से ग्रहण करता है। संस्कार ही भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति तथा सुख-दुख की अनुभूति का आधार होते हैं। चिंतन की प्राथमिकता भी दृष्टिकोण द्वारा निर्धारित होती है। जिस अवस्था की जो आवश्यकता है, उसी का मूल चिंतन होना चाहिए। दृष्टिकोण का संकुचन व्यक्तिवादी सोच के कारण पनपता है। व्यक्ति अपने सुख की ऐसी परिभाषा गढ़ता है जिसमें आमतौर पर वह अकेला ही स्वयं को सुखी देखता है, सुखों में जरा भी कमी को वह सहन नहीं कर सकता, आवेश व राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में देखता है तो उसका दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है। दृष्टिकोण का विस्तार अध्ययन, मनन एवं स्वाध्याय से संभव है। उदरपूर्ति, वंशवृद्धि, भौतिक संसाधनों की प्राप्ति की कामना जीवन के लक्ष्य नहीं कहे जा सकते। ये मात्र आवश्यकताओं की कोटि में आते हैं। लक्ष्य तो उन्नत राष्ट्र, सुखी जीवन तथा प्रकृति की सेवा हो सकते हैं। तथ्य है कि देने का भाव लक्ष्य की श्रेणी में आता है, लेने का नहीं। लेने की भूमिका दृष्टिकोण को हीन बनाती है। दृष्टिकोण के प्रति चिंतन से व्यक्ति में अनेक प्रकार के गुणों का उदय होने लगता है, जीवन के नव आयाम लक्षित होने लगते हैं। शरीर व मात्र बौद्धिक चिंतन से ऊपर उठकर व्यक्ति मन की भूमिका तय करने लगता है संवेदनशीलता सदृश भावनात्मक धरातलों का उसे बोध होने लगता है। ज्ञान की महत्ता तथा जीवन की वास्तविकता का अनुभव होने के साथ सार्थकता, परिश्रमशीलता आदि शब्दों की गंभीरता का ज्ञान होने से कार्यकुशलता व एकाग्रता में वृद्धि होती है।

[डा. सुरचना त्रिवेदी]

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