कश्मीर से मिला संदेश

मुफ्ती मुहम्मद सईद अपने बयानों पर कायम हैं। अर्थात वे सोच-समझ कर बोल रहे हैं। उनकी पहले से तैयारी है

By Edited By: Publish:Thu, 05 Mar 2015 08:05 AM (IST) Updated:Thu, 05 Mar 2015 05:57 AM (IST)
कश्मीर से मिला संदेश

मुफ्ती मुहम्मद सईद अपने बयानों पर कायम हैं। अर्थात वे सोच-समझ कर बोल रहे हैं। उनकी पहले से तैयारी है। यह तैयारी कि किसी कथित 'विकास' या 'राज्य के हित' के स्थान पर, या उससे पहले उन्हें अपनी राजनीति की ताकत बढ़ानी है। शत्रु या प्रतिद्वंद्वी को पीछे ढकेलना है। उन्होंने प्रतिद्वंद्वी के साथ समझौता इसलिए नहीं किया कि राच्य का विकास करना है, बल्कि इसीलिए कि अपनी ताकत बढ़ाकर उसे पीछे किया जाए। निस्संदेह, मुफ्ती के बयान भाजपा पर चोट हैं। भाजपा ने यह आशा नहीं की थी, अन्यथा उसने इसका फौरन उत्तार दिया होता। संसद में हो रही किरकिरी इसी कारण है कि भाजपा के पास ऐसी चोट की तैयारी नहीं थी। वह स्वयं ही अपनी उदारता, सद्भाव और विकास के प्रति निष्ठा में मगन थी! मानो, इसके बाद क्या समस्या बचती है? इस तरह, मूल समस्या को ही अनदेखा करने के कारण भाजपा की स्थिति अभी खिसियाई हुई हो रही है। ऐसे बयानों की आशा भाजपा ने क्यों नहीं की थी, इसका एकमात्र उत्तार है कि वह प्रतिपक्षी राजनीति का सही आकलन नहीं कर सकी है। कश्मीर में राहत कार्य में बेतहाशा पैसा बहाने, फिर भी अपने उम्मीदवारों की जमानत जब्त होने के बाद भी राजनीतिक आकलन करने में विफलता आश्चर्यजनक है। कश्मीर में भाजपा-विरोधियों की राजनीति के मूल तत्व को न समझने से ही भाजपा नेता अभी ठगे से दिख रहे हैं।

जनता की आर्थिक स्थिति में सुधार तथा अर्थव्यवस्था का विकास जरूरी होते हुए भी दूसरे नंबर की चीज होती है। पहली होती है राजनीतिक दिशा का निर्धारण। संपूर्ण संसार की, सभी काल की राजनीति से यही सीख मिलती है। भाजपा भारत में भी सेक्यूलरिच्म की पूरी राजनीति को अभी तक ठीक से नहीं समझ सकी, जबकि इस राजनीति का मुख्य निशाना वही रही है। सेक्यूलरिच्म की राजनीति किसी आर्थिक विकास नहीं, बल्कि कुछ विचारों, तदनुरूप नीतियों को प्रमुखता देने पर केंद्रित है। अत: उन विचारों, नीतियों को खुली चुनौती देने, उन्हें हराने और मिटाने का लक्ष्य रखना भाजपा के लिए अनिवार्य कर्तव्य बनता था। लेकिन अज्ञान और भोलेपन में भाजपा नेता उसकी चर्चा से भी शर्माने लगते हैं! यही उन की मुख्य दुर्बलता है, जिससे वे जीत कर भी हारने की ओर बढ़ जाते हैं। सेक्यूलरिच्म की राजनीति को चुनाव में हार मिलने के बाद भी भाजपा उस मुद्दे की चर्चा से ही स्वयं परहेज करने लगती है। इस तरह, अपने विरोधियों को सुखद स्थिति में डाल देती है। उन्हें फिर से मजबूत होने की जमीन तैयार करने लगती है। जहां विरोधियों को मजबूर किया जाना था कि वे भी सामुदायिक समानता की नीति स्वीकारें, हिंदू-विरोध छोड़ें, वोट-बैंक की लालसा में देश-समाज का विखंडन करने की नीति से बाज आएं। वहां इस पूरे विषय को ही भाजपा छोड़ देती है। इस तरह, विरोधियों की बदगुमानी और शिक्षित जनता में मौजूद भ्रम, हानिकारक मतवाद आदि यथावत बनी रहने देती है। इसके बदले विकास के नारे पर खुद ही लट्टू होकर अपनी पीठ थपथपाती है। मानो सेक्यूलरिच्म के नाम पर चल रहे विषैले मतवाद अब समस्या ही नहीं रहे। यह आत्म-प्रवंचना कई बार भाजपा को छल चुकी है। हैरत होती है कि भाजपा ने कभी इस पर मंथन कर कोई प्रतिकार नीति नहीं बनाई। अभी कश्मीर में उसी आत्म-प्रवंचना का फल दिख रहा है। भाजपा के सिवा किसी ने नहीं कहा था कि कश्मीर, जम्मू या लद्दाख की मुख्य समस्या विकास, रोजगार या शांति से रहना है। विशेषाधिकार, देशभक्ति, आत्म-सम्मान, समानता और न्याय ये वहां अलग-अलग समुदायों के विशिष्ट, मगर स्थायी मुद्दे हैं। सरलता से दिखेगा कि ये मुद्दे किसी गरीब क्षेत्र में भी हो सकते हैं, अमीर में भी। यानी इनका अस्तित्व किसी समाज में आर्थिक भ्रष्टाचार, रोजगार निर्माण, अपराध-नियंत्रण, ईमानदार चुनाव या स्वच्छ प्रशासन से अलग है। शुतुरमुर्ग की तरह केंद्र सरकार के भरोसे विकास, रोजगार, शांति का अपना नारा देकर भाजपा ने खुद को आश्वस्त कर लिया कि अब चुनाव इन्हीं मुद्दों पर होगा। विशेषाधिकार, देशभक्ति, आत्म-सम्मान, समानता और न्याय आदि जिन मुद्दों पर भाजपा तैयार है, उन पर नहीं। अभी उसकी किरकिरी इसीलिए हो रही है। उसने बुनियादी मुद्दों को ही अस्तित्वहीन मान लिया। यह राजनीति में की जाने वाली सबसे बचकानी भूलों में से एक है।

सजग अवलोकनकर्ता के लिए यह संभावना महीनों पहले सामने थी। सबसे पहले धारा 370 पर बहस की बात करके पीछे हट जाना। फिर जम्मू-लद्दाख के प्रति अन्याय के मुद्दे को छोड़ देना। कश्मीरी मुसलमानों में भारत से अलगाववाद की भावना को संबोधित न करना आदि। यह खुला संकेत था कि भाजपा मूल मुद्दों से नजर चुरा कर सुविधाजनक मुद्दों पर टिकना चाह रही है। ध्यान दें, भाजपा ही अपने मुद्दों से पीछे हटी, पीडीपी या दूसरे किसी मुद्दे से पीछे नहीं हटे थे। जैसे ही विरोधी की स्थिति मजबूत हुई , वैसे ही उसने अपनी राजनीति को और धार देना आरंभ कर दिया। मुफ्ती सधे राजनीतिज्ञ की तरह काम कर रहे हैं। भाजपा नौसिखिए की तरह। जहां साझीदार से बुनियादी वैचारिक मतभेद हो, वहां अधिक समय यथास्थिति बने रहना असंभव है। किसी न किसी को पीछे हटना ही होगा। जो अधिक आत्मविश्वासपूर्ण और हमलावर हो, उसकी बढ़त की संभावना अधिक रहती है। भाजपा ने चुनाव अभियान में ही अपने पीछे हटने का ऐलान-सा कर ही दिया था। कोई भी सतर्क विरोधी यह देख सकता था। तब भाजपा को और पीछे हटाने का दबाव मुफ्ती साहब क्यों न डालें?

कश्मीरी घटनाक्रम से मिल रही सीख और संदेश नया नहीं है। केवल उदाहरण नए हैं। यह सीख है कि हर राजनीति शक्ति-राजनीति है। विकास राजनीति उसके अधीन होती है। उससे ऊपर कोई चीज नहीं। कि समझौते दो-तरफा मजबूरी या लाभ से चलते हैं, एकतरफा सद्भावना से नहीं। वाजपेयी सरकार के समय से ही भाजपा यह भूल करती रही है। वह अपनी भलमनसाहत पर खुद ही मोहित रहती है। राजनीति में आत्मसम्मोहन तो वैसे भी घातक है।

[लेखक एस. शंकर, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

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