कुंठा से घिरी कांग्रेस

देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की 125वीं जयंती के आयोजन को लेकर कांग्रेस का आचरण उसकी

By Edited By: Publish:Wed, 19 Nov 2014 06:34 AM (IST) Updated:Wed, 19 Nov 2014 05:54 AM (IST)
कुंठा से घिरी कांग्रेस

देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की 125वीं जयंती के आयोजन को लेकर कांग्रेस का आचरण उसकी कुंठा को ही दर्शाता है। क्या महात्मा गांधी, सरदार पटेल, नेहरू आदि केवल एक परिवार विशेष की विरासत हैं? इस अवसर पर आयोजित समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कांग्रेस ने यह कहकर आमंत्रित नहीं किया कि वह नेहरू के योगदान को नजरअंदाज कर महात्मा गांधी और सरदार पटेल की विरासत को हथियाने का प्रयास कर रहे हैं। कांग्रेस का आरोप है कि प्रधानमंत्री मोदी नेहरू के पंथनिरपेक्ष दृष्टिकोण को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। वास्तविकता क्या है? कटु सत्य तो यह है कि कांग्रेस सत्ता से अपनी बेदखली पचा नहीं पा रही है। एक वंश विशेष के मानस में देश का राजपाट चलाने का जो दर्प है वह कुर्सी खिसकने के बाद भी गया नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने विदेश दौरे में आस्ट्रेलिया से नेहरू को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान और आधुनिक भारत के निर्माण में उनकी भूमिका को याद किया।

भाजपा नीत केंद्रीय सरकार ने अगले एक साल तक नेहरू की 125वीं जयंती मनाने के लिए एक समिति गठित की है, जिसके अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री मोदी हैं। इसके विपरीत देश की आजादी और इसकी श्रीवृद्धि में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले सरदार पटेल, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, लाल-बाल-पाल, सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर, डॉ. हेडगेवार, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, डॉ. राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण जैसे राष्ट्रनायकों के प्रति कांग्रेस का क्या रवैया रहा है? कटु सत्य यह है कि कांग्रेस शहीदों की विरासत का सांप्रदायिकरण कर उसे दलगत राजनीति में बांटती आई है। कांग्रेसी परंपरा में देश के लिए शहीद होने वालों में केवल नेहरू परिवार के ही लोग शामिल हैं, इसीलिए दशकों तक सरदार पटेल को भारत रत्न के सम्मान से वंचित रखा गया। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, मदन मोहन मालवीय, राजाजी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, रासबिहारी बोस, शचिन्द्र नाथ सान्याल, श्यामजी कृष्ण वर्मा, वीर सावरकर आदि का भारत की आजादी की लड़ाई में अमर योगदान है। कांग्रेस इनमें से किसका यशगान करती है? पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की नामावली में लाल बहादुर शास्त्री का नाम विपक्षियों के एतराज के कारण राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में शामिल किया गया। क्यों? कांग्रेस के शासनकाल में जितनी भी केंद्रीय योजनाएं बनी हैं, उनका नामकरण नेहरू-गांधी वंश पर हुआ है। केंद्र सरकार द्वारा वित्तापोषित दर्जनों योजनाओं में से केवल एक सरदार पटेल के नाम पर है और लगभग बाकी सभी नेहरू-गांधी वंश को समर्पित हैं। दिल्ली में यमुना का कछार इस वंश के लोगों की समाधियों के लिए आरक्षित है, जबकि कांग्रेस के ही पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव का अंतिम संस्कार तक दिल्ली में नहीं होने दिया गया। क्यों?

राजग के पिछले कार्यकाल में अंडमान द्वीप स्थित जिस सेल्युलर जेल में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सावरकर के अलावा कई अन्य बलिदानियों को कैद रखा गया था, उनके अमूल्य योगदान को भावी पीढ़ी तक पहुंचाने और उन क्रांतिकारियों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के उद्देश्य से जेल परिसर में एक ज्योति स्थापित करने का निर्णय लिया गया था। च्योति शिल्प के चारों ओर क्रांतिकारियों के प्रेरक कथन प्रदर्शित किए गए हैं। चुनाव में राजग की पराजय के बाद च्योति का उद्घाटन करने पहुंचे तत्कालीन मंत्री मणिशंकर अय्यर ने वीर सावरकर की उद्धरण पट्टिका हटवा दी थी। कटु सत्य तो यह है कि कांग्रेस ने सुनियोजित तरीके से एक वंश विशेष का गुणगान कर देश के जनमानस में उनकी ही स्मृति पैबस्त करने का कु-प्रयास किया है। अब जबकि केंद्रीय सरकार देश पर कुर्बान होने वाले महान सपूतों के योगदान को याद कर उनका आभार प्रकट करने का प्रयास कर रही है तो कांग्रेस को स्वाभाविक तौर पर आपत्तिहोनी है।

कांग्रेस की दलगत संकीर्ण सोच के कारण भारतीय इतिहास में जो विकृति आई है, आज की केंद्र सरकार उसे दुरुस्त करने का प्रयास कर रही है। आधुनिक भारत के निर्माण में नेहरू के योगदान को कोई नकार नहीं सकता। किंतु स्वतंत्र भारत के जन्म का सारा श्रेय केवल उनको ही नहीं दिया जा सकता। इस तरह का रुग्ण चिंतन कालजयी राष्ट्र और उसके इतिहास के साथ अन्याय है। राष्ट्र संबंधी कुछ महत्वपूर्ण विषयों के संबंध में नेहरू से जो गलतियां हुईं, उसके कारण उनकी तीव्र आलोचना भी होती आई है। भारत के रक्तरंजित विभाजन में नेहरू का प्रत्यक्ष योगदान भले न हो, किंतु वह इसे स्वीकारने वाले लोगों की कतार में शामिल थे। उन्होंने सेक्युलरवाद के जिस ब्रांड को अपनाया उसने सिमी, इंडियन मुजाहिदीन और जम्मू-कश्मीर में सक्त्रिय अलगाववादी संगठन के पीछे जो मानस है उसे पुष्ट किया है। इस देश के बहुसंख्यकों के लिए नेहरू ने 'हिंदू कोड बिल' बनाया, किंतु मुस्लिम समुदाय को छूट दी गई। क्यों? क्या उसी विकृति के कारण शाहबानो प्रकरण नहीं हुआ, जब संविधान में संशोधन कर तलाकशुदा मुस्लिम महिला को गुजारा भत्ता पाने से महरूम किया गया?

राष्ट्रहित की अनदेखी करते हुए नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र में चीन को शामिल किए जाने की वकालत की। कोरिया के साथ छिड़े संघर्ष पर भी नेहरू ने चीन का साथ देते हुए उसे आक्रमणकारी मानने से इन्कार किया। उन्होंने 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' का नारा दिया। किंतु चीन की साम्राज्यवादी मानसिकता को पढ़ने में उनसे भूल हुई। 1950 में माओ त्से तुंग के द्वारा सैनिक कार्रवाई कर तिब्बत को चीन के नियंत्रण में ले लेने की महत्वपूर्ण घटना पर भी वह तटस्थ बने रहे। चीनी खतरों की आहट सुन सरदार पटेल, डॉ. भीमराव अंबेडकर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर सहित कई राष्ट्रवादी ताकतों ने उन्हें आगाह करने की भी कोशिश की। नेहरू ने इन चेतावनियों का संज्ञान नहीं लिया और 20 अक्टूबर, 1962 को चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। कश्मीर की समस्या भी नेहरू की अदूरदर्शिता का जीवंत प्रमाण है। कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह देशभक्त थे। पाकिस्तानी सेना के समर्थन से जब कबीलाइयों ने प्रांत पर हमला कर दिया तो उनकी स्वाभाविक इच्छा भारत के साथ जुड़ने की थी। किंतु नेहरू का समर्थन घोर सांप्रदायिक शेख अब्दुल्ला के साथ था, जिसे लेकर महाराजा शंकित थे। नेहरू ने कश्मीर का मसला अपने हाथ में रख लिया था, जिसमें सरदार पटेल का हस्तक्षेप न्यूनतम था। शेख अब्दुल्ला की देशघाती गतिविधियां सरदार पटेल से छिपी नहीं थीं, किंतु नेहरू ने उनकी एक नहीं सुनी। कश्मीर समस्या का रक्तरंजित विवाद आज नासूर बनकर हमें पीड़ा देता है। नेहरू के योगदान को कोई विस्मृत नहीं कर सकता, परंतु उनके साथ जिन दर्जनों लोगों ने अपना सर्वस्व देश पर होम कर दिया उनको भी भुलाया नहीं जा सकता। अन्य शहीदों को याद करना नेहरू का अपमान है, यह तर्क समझ से परे है।

[लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं]

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