तस्वीर बदलने का जरिया

प्रशिक्षित युवाओं की आवश्यकता देश में भी है और विदेश में भी उनकी मांग लगातार बढ़ेगी। यह भी आवश्यक है

By Edited By: Publish:Wed, 05 Nov 2014 04:47 AM (IST) Updated:Wed, 05 Nov 2014 04:46 AM (IST)
तस्वीर बदलने का जरिया

प्रशिक्षित युवाओं की आवश्यकता देश में भी है और विदेश में भी उनकी मांग लगातार बढ़ेगी। यह भी आवश्यक है कि इसका आधार दृढ़ बनाने के लिए सभी स्कूलों में हाथ से काम करना अनिवार्य रूप से प्रारंभ किया जाए। स्वच्छ, सुंदर तथा साधन संपन्न स्कूल ही देश की तस्वीर बदल सकते हैं। औद्योगिक निवेश आवश्यक है, परंतु सब को समानता के अवसर तथा विकास के लाभ तो शैक्षिक निवेश ही दे पाएगा। महात्मा गांधी के विचारों, अनुभवों तथा प्रयोगों पर आज विश्व का ध्यान पहले से कहीं ज्यादा जा रहा है। विकास की अवधारणा, स्वास्थ्य, सफाई, शिक्षा-हर क्षेत्र में गांधी के विचारों की प्रासंगिकता समय के साथ और बढ़ी है। आज कौन भूल सकता है कि गांधी का एक अमर वाक्य था-'प्रकृति के पास सभी की आवश्यकता पूर्ति के साधन हैं, परंतु किसी के लालच को पूरा करने के नहीं है। गांधीजी के जाने के बाद विश्व में कहीं न कहीं कोई न कोई उनके आदशरें पर चलकर वह लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है, जो गांधीजी को प्रिय थे। मार्टिन लूथर किंग जूनियर गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन से प्रभावित थे, उन्हें गांधीजी के सिद्धांतों पर विश्वास था, उन्होंने प्रेम और अंहिसा पर गांधी के विश्वास को अपनाया और काले-गोरे के अमानवीय भेद को अमेरिका में समाप्त किया। मार्टिन लूथर किंग ने अपना सपना इन शब्दों में व्यक्त किया-'एक दिन ऐसा आएगा जब एक काला बच्चा एक गोरे बच्चे के हाथ में हाथ डालकर एक ही बस में, एक ही स्कूल में, एक ही छत के नीचे बैठेगा।'

अच्छी शिक्षा तथा उद्यम-कौशल हर बच्चे को मिले, यह सदा ही गांधीजी के विचारों और चिंतन में प्रमुखता पाता रहा। बुनियादी शिक्षा की संकल्पना को उन्होंने देश को अपनी ओर से दिया गया सबसे बड़ा उपहार बताया था। अमेरिका की तरह भारत की बड़ी सामाजिक समस्या थी छुआछूत। रंगभेद या छुआछूत या जाति प्रथा का निवारण तो शिक्षा के प्रचार-प्रसार तथा योग्य नेतृत्व के द्वारा ही हो सकता था। इसे गांधीजी ने जाना और कहा कि शिक्षा का हर व्यक्ति तक पहुंचना ही आशा की एकमात्र किरण है। भारत में समान स्कूल व्यवस्था में संकल्पना यही थी। बच्चा किसी जाति या धर्म का हो, गरीब हो या अमीर घर से आया हो, सभी स्कूल में साथ-साथ सीखेंगे, साथ खेलेंगे। मिलकर काम करना, सर्जन करना प्रतिदिन उन्हें भविष्य के लिए तैयार करेगा। ऐसा अभी तक हो नहीं पाया है। सरकारी स्कूलों की दशा लगातार गिरती ही जा रही है। सरकारी आंकड़े कुछ भी कहें, इन स्कूलों की साख को व‌र्ल्ड बैंक या यूनेस्को की सहायता भी बचा नहीं पाई है। गांधीजी जिस पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के बारे में चाहते थे कि सभी उसका ख्याल करें उसके बच्चे या तो स्कूल जाते नहीं हैं या कुछ वर्ष बाद स्कूल छोड़ देते हैं और निरक्षरता में शामिल हो जाते हैं। वह निजी 'पब्लिक स्कूल' के दरवाजे के अंदर दाखिल नहीं हो सकता है। उसके बच्चों के स्कूल में हर प्रकार की कमियां आज भी विद्यमान हैं। भ्रष्ट तथा संवेदनहीन व्यवस्था में इसमें सुधार की संभावना क्षीण ही रहती है।

आज भारत युवाओं का देश कहा जाता है। बूढ़ी हो रही बड़ी आबादी से आशंकित अनेक देश कार्यशील युवाओं की कमी की चिंता कर रहे हैं। वे भारत की ओर देख रहे हैं। यहां 60 करोड़ लोग 35 वर्ष के नीचे के आयुवर्ग में हैं तथा आधी आबादी 25 वर्ष से कम आयु की है। इनके लिए विदेशों में अभूतपूर्व अवसर हैं। यहां भी गांधी प्रासंगिक हैं। यदि प्रत्येक बालक कौशल सीखने से शाला प्रारंभ करे तो उसकी सीखने की नैसर्गिक रुचि स्वत: ही बढ़ जाएगी। उसे सीखने में, अक्षर ज्ञान तथा गणित में वे कठिनाइयां नहीं होंगी जो बड़े-बड़े बस्ते लादकर प्राथमिक शाला जाने वाले बच्चों को होती हैं। 1920 में गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में टॉल्सटॉय आश्रम की स्थापना की। बच्चों को स्वयं पढ़ाने का निश्चय किया। वहां अन्य प्रबंध संभव न था। बच्चे अलग वातावरण तथा धमरें के थे। यहां पर गांधीजी ने जो सोचा उसे अपनी आत्मकथा में शिक्षक के रूप में नामक अध्याय में विस्तार से लिखा है। इसमें लिखा गया है, 'मैंने चरित्र को बच्चों की शिक्षा की बुनियाद माना था। यदि बुनियाद पक्की हो तो अवसर मिलने पर दूसरी बातें बालक मदद लेकर या अपनी ताकत से खुद जान समझ सकते हैं।' आश्रम में सभी काम आश्रमवासी स्वयं करते थे। बगीचे के काम में बच्चे बड़ा हिस्सा बंटाते थे।

आश्रम में अच्छी जलवायु तथा अच्छे और नियमित आहार के कारण बीमारी मुश्किल से ही आती थी। देश में मिडडे मील योजना को चलाने वालों को अगर यह समझ चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में आ गई होती तो भारत में कुपोषण के आंकड़े चौंकाने वाले नहीं होते। गांधीजी ने 'धंधे की शिक्षा' की कभी अनदेखी नहीं की। इसी आश्रम में सबको कोई न कोई उपयोगी धंधा सिखाया गया। इसके लिए उनके सहयोगी कालेनबैक ट्रेपिस्ट मठ में जाकर चप्पल बनाना सीख आए, बच्चों को सिखाने के लिए। एक आश्रमवासी ने बढ़ई का काम भी सिखाया। यहां बच्चे जो भी काम करते थे उसमें एक 'शिक्षक' भी आवश्यक रूप से भागीदारी करता था। आज ऐसा दृश्य भारत के अधिकांश स्कूलों में देखने को नहीं मिलेगा। आज देश के सामने बड़ी-बड़ी योजनाएं हैं, पचास करोड़ युवाओं को 2022 तक कौशल सिखाना। यह आवश्यक है। प्रशिक्षित युवाओं की आवश्यकता देश में भी है और विदेश में भी उनकी मांग लगातार बढ़ेगी। यह भी आवश्यक है कि इसका आधार दृढ़ बनाने के लिए सभी स्कूलों में हाथ से काम करना अनिवार्य रूप से प्रारंभ किया जाए। सफाई का कौशल घर से सीखना प्रारंभ हो और उसके लिए जन शिक्षा का कार्यक्रम आयोजित हो। इसे आगे चलकर स्कूलों में लागू किया जाए। केवल बच्चे ही नहीं, बल्कि अध्यापक भी उनके साथ मिलकर प्रतिदिन आधा घंटा स्कूल को न केवल साफ-सुथरा रखें, बल्कि उसे सुंदर बनाकर अपने श्रम का आनंददायक प्रभाव देखें। स्वच्छ भारत अभियान की राष्ट्रव्यापी नींव बन सकते हैं 'स्वच्छ स्कूल, सुंदर स्कूल'। स्वच्छता और सौंदर्यीकरण स्कूल के वातावरण में एक दूसरे के पूरक बन जाएंगे। जो बच्चे इसमें हिस्सा लेंगे वे स्वयं स्वस्थ भी रहेंगे, अपने उदाहरण से बड़ों को भी प्रभावित करेंगे।

[लेखक जगमोहन सिंह राजपूत, एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं]

chat bot
आपका साथी