अब बड़ों के लिए भी लाइलाज नहीं थैलेसीमिया की बीमारी, आसान हुई राह

बड़ों में बोन मैरा प्रत्यारोपण मुश्किल होता है। क्योंकि उसके सफल होने की संभावना कम होती है। इसका कारण यह है कि थैलेसीमिया के मरीज को बार-बार ब्लड चढ़ाना पड़ता है।

By Ramesh MishraEdited By: Publish:Sat, 05 May 2018 12:10 PM (IST) Updated:Tue, 08 May 2018 09:44 AM (IST)
अब बड़ों के लिए भी लाइलाज नहीं थैलेसीमिया की बीमारी, आसान हुई राह
अब बड़ों के लिए भी लाइलाज नहीं थैलेसीमिया की बीमारी, आसान हुई राह

नई दिल्ली [ जेएनएन ]। दिल्ली के रहने वाले निखिल नामक युवक को 25 साल की उम्र में थैलेसीमिया की बीमारी से छुटकारा मिला। उसकी बीमारी के बारे में तीन की उम्र में ही उसके माता-पिता को पता चल गया था। तब से उसे नियमित ब्लड चढ़ाना पड़ता था।

इसलिए उनके जीवन का बड़ा हिस्सा अस्पतालों के चक्कर काटने में बीत रहा था। बीएलके सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में बोन मैरो प्रत्यारोपण के बाद अब वह ठीक हैं। डॉक्टर कहते हैं कि वह सामान्य जीवन व्यतीत कर सकेंगे।

अस्पताल के स्टेम सेल प्रत्यारोपण विशेषज्ञ डॉ. धर्मा चौधरी ने कहा कि निखिल थैलेसीमिया मेजर बीमारी से पीडि़त था। अभी तक इस बीमारी का स्थायी इलाज सिर्फ बोन मैरो प्रत्यारोपण है। दो से पांच साल की उम्र में बोन प्रत्यारोपण होने पर इलाज के परिणाम बेहतर होता है और करीब 90 फीसद बच्चे ठीक हो जाते हैं।

बड़ों में बोन मैरा प्रत्यारोपण मुश्किल होता है। क्योंकि उसके सफल होने की संभावना कम होती है। इसका कारण यह है कि थैलेसीमिया के मरीज को बार-बार ब्लड चढ़ाना पड़ता है। इस वजह से शरीर में कई परेशानियां होने लगती है। लिवर खराब होने लगता है। अत्यधिक ब्लड चढ़ाने से कई मरीजों के हृदय में आयरन की मात्रा बढ़ जाती है।

उन्होंने कहा कि बोन मैरो प्रत्यारोपण के लिए बड़ी दिक्कत यह है कि जल्द डोनर नहीं मिलते। निखिल के मामले में अच्छी बात यह है कि उसे आसानी से डोनर मिल गया। उसके भाई ने अपना बोन मैरो दान किया, जिसे निखिल को जून 2017 में प्रत्यारोपित किया गया था।

करीब एक साल तक उसका नियमित फालोअप किया गया। अब हम कह सकते हैं कि वह थैलेसीमिया से मुक्त हो गए हैं। बहरहाल उन्होंने तीन साल की अवस्था से उन्हें नियमित ब्लड चढ़ाया जाता था। शादी होने के बाद वह स्थायी इलाज के लिए वह प्रयास करने लगे। इस क्रम में वह इलाज के लिए बीएलके अस्पताल पहुंचे।

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