पुरातात्विक धरोहरों का नहीं हो रहा है संरक्षण

सहरसा। इलाके के पुरातात्विक धरोहरों का संरक्षण नहीं हो रहा है। पुरात्वविदों की माने

By JagranEdited By: Publish:Sun, 10 Feb 2019 07:50 PM (IST) Updated:Sun, 10 Feb 2019 07:50 PM (IST)
पुरातात्विक धरोहरों का  नहीं हो रहा है संरक्षण
पुरातात्विक धरोहरों का नहीं हो रहा है संरक्षण

सहरसा। इलाके के पुरातात्विक धरोहरों का संरक्षण नहीं हो रहा है। पुरात्वविदों की मानें तो किसी प्राचीन नगर की पहचान के लिए उस क्षेत्र के प्राचीन टीलों की संख्या,टीलों पर मिलने वाले मृदभंड, प्राचीन इमारत में प्रयुक्त होने वाली ईंट,क्षेत्र से मिलने वाले प्राचीन मूर्तियों की शिल्पकला,क्षेत्र में मिलने वाले प्राचीन छल्लेदार कूप महत्वपूर्ण माने जाते हैं। महिषी से सटे गोरहोडीह के उत्खनन में मिली सामग्री की जांच के बाद उसे मौर्यकालीन बतलाया गया था। जबकि महिषी, उग्रतारा स्थान व नाकुच से प्राप्त प्राचीन मूर्ति,प्राचीन ईंट एवं मृद भांडों को पुरातत्वविदों ने गुप्तकाल एवं पालकाल का बतलाया। भगवान बुद्ध के भी इस क्षेत्र में आगमन की चर्चा इतिहासकारों द्वारा विभिन्न पुस्तकों में की गई है।

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कौन कौन से है ऐतिहासिक स्थल

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महिषी का उग्रतारा स्थान,मंडनधाम,आचार्य वन,नाकुच,कन्दाहा,कचनारी टीला आरापट्टी,बख्तियारपुर का काठो,कहरा का गोरहोडीह,बनगांव भगवती स्थान का टीला,चौनपुर का प्राचीन टीला सहित अन्य। गोरहोडीह के टीलों पर 1984 तक पुरातात्विक संरक्षण का सरकारी बोर्ड लगा था जो अब नहीं। वहीं बिहार कला संस्कृति विभाग द्वारा कंदाहा सूर्य मंदिर व आसपास के साढ़े पन्द्रह कट्ठा जमीन को 1980 में ही पुरातत्विक संरक्षण प्रदान किया गया है। जबकि वर्ष 2015 में बिहार कला संस्कृति विभाग द्वारा उग्रतारा स्थान व मंडनधाम के संरक्षण के लिए जिला प्रशासन से उपरोक्त दोनों स्थलों से संबंधित रिपोर्ट मांगी गई है जो तीन वर्ष बाद भी जिला प्रशासन द्वारा कला संस्कृति विभाग को नहीं भेजी जा सकी है। देखरेख के अभाव में कन्दाहा और महिषी में मिले प्राचीन शिलालेख में अब क्षरण होने लगा है। जिससे आनेवाले समय में इस क्षेत्र के ऐतिहासिक साक्ष्य के नष्ट होने का खतरा मंडरा रहा है।

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