बालू पर लहलहाई तरबूज की फसल
सहरसा। कोसी नदी के आसपास के जिस रेतीली जमीन को कुछ वर्ष पहले तक यहां के किसानों के लिए
सहरसा। कोसी नदी के आसपास के जिस रेतीली जमीन को कुछ वर्ष पहले तक यहां के किसानों के लिए अभिशाप माना जाता था। आज उसी जमीन पर तरबूज की खेती हो रही है। यहां की तरबूज पड़ोसी देश नेपाल के अलावा बंगाल और बिहार के कई अन्य शहरों में भेजी जाती थी। लेकिन इस वर्ष कोरोना काल में किसानों को इस फसल से घाटा हुआ है। बाहर तरबूज नहीं भेजे जाने के कारण बिक्री नहीं हो रही है।
कोसी के आसपास दशकों से रेतीली सैकड़ों एकड़ जमीन पर इन दिनों तरबूज की अच्छी-खासी खेती हुई है। सैकड़ों लोगों को रोजगार भी मिलने लगा था। लेकिन इस साल इस खेती को कोरोना की नजर लग गई है। स्थानीय लोगों ने बताया कि
महिषी प्रखंड का बलुआहा गांव के समीप सैकड़ों एकड़ रेतीली जमीन यूं ही बेकार पड़ी रहती थी। बाढ़ और कटाव के भय से यहां के किसान इस बलुआही जमीन पर खेती करने से हिचकते थे। पांच वर्ष पहले यहां रहकर फेरी का काम करने वाले उत्तर प्रदेश के गाजीपुर गांव के आरिफ ने जमीन के मालिक से बात कर एक एकड़ में तरबूज की खेती शुरू की। तीन महीने में तैयार हुए तरबूज ने उसे अच्छी कमाई हुई। उसके बाद खेती का दायरा बढ़ता चला गया। किसानों ने बताया कि एक एकड़ की खेती में लगभग 30 हजार रुपये की लागत आती है और एक एकड़ से फलों की बिक्री के बाद 15 से 20 हजार रुपये का फायदा होता है। इसके बाद स्थानीय किसानों ने भी इसकी खेती शुरू कर दी। जिस कारण बालू पर तरबूज की फसल लहलहाने लगी। तरबूज पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा और बिहार के कई जिलों में ट्रकों में भरकर भेजा जाता था। नवम्बर माह में तरबूज की खेती की शुरुआत होती है, जो जून के अंतिम सप्ताह में खत्म होती है। लेकिन कोरोना संकट के बाद लागू किये गये लॉकडाउन ने किसानों को कंगाल बना दिया। किसानों को औने-पौने दाम में भी बेचने के लिए उन्हें न बाजार मिल रहा है, न खरीदार। नवहट्टा प्रखंड में भी व्यापाक पैमाने पर इस बार इसकी खेती हुई है।
यूपी से आये किसान दिनकर बताते हैं कि एक एकड़ में तरबूज से काफी मुना़फा हो जाता था। खेत पर ही बड़े बड़े व्यापारी पहुंचते थे। लेकिन इस बार लागत भी उपर नही हो पा रहा है। बागपत किसान इस्लाम ने बताया कि कर्ज लेकर खेती किये थे। परंतु कोरोना ने सब चौपट कर दिया।