बिहार के इस नक्सली इलाके में अब पदक के लिए चलती गोली और निकलते भाले

जहां पहले नक्सल प्रभावित जमुई इलाके में गोलियों की तड़तड़ाहट और तलवार की खनक दूसरों का खून बहाने के लिए किया जाता था। बदलते माहौल में इनका उपयोग खिलाड़ी पदक लाने में कर रहे हैं।

By Kajal KumariEdited By: Publish:Fri, 15 Dec 2017 11:17 AM (IST) Updated:Sat, 16 Dec 2017 09:19 PM (IST)
बिहार के इस नक्सली इलाके में अब पदक के लिए चलती गोली और निकलते भाले
बिहार के इस नक्सली इलाके में अब पदक के लिए चलती गोली और निकलते भाले

पटना [अरुण सिंह]। नक्सल प्रभावित जमुई का नाम आते ही गोलियों की तड़तड़ाहट, तलवार की खनक और भाले की चमक दिखाई पड़ती है, जिसका उपयोग उग्रवादी दूसरों का खून बहाने में करते हैं। परंतु बदलते माहौल में इनका उपयोग आज खिलाड़ी पदक लाने के लिए कर रहे रहे हैं।

श्रेयसी सिंह की राइफल से निकली गोलियां पदक पर निशाना साध रही हैं तो सुदामा के हाथों से फेंका जाने वाला भाला राष्ट्रीय रिकॉर्ड के पार पहुंच रहा है। रौशन की कुलांचे भरतीं टांगें और अंजनी की इच्छाशक्ति की बदौलत माहौल बदल रहा है। 

जंगल से सटे सिकंदरा, जकाई, सोन्हू, खैरा, लक्ष्मीपुर, झाझा और बरहट जैसे प्रखंड के इन खिलाडिय़ों के दम पर जमुई ही नहीं बल्कि पूरे बिहार का नाम रौशन हो रहा है।

पिता चाहते थे सुदामा खेती करे

पिछले दिनों विशाखापत्तनम में आयोजित स्कूल गेम्स फेडरेशन ऑफ इंडिया की प्रतियोगिता में 66.48  मीटर भाला फेंककर नया राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाने वाले सुदामा के पिता बालमुकुंद यादव डुमरकोला गांव में छोटे किसान हैं। उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और वे चाहते थे कि सुदामा उनका हाथ बंटाए, लेकिन उसका इसमें मन नहीं लगता था। उसकी रुचि क्रिकेट में थी और वह तेज गेंदबाज बनना चाहता था।

आखिरकार पिता ने कर्ज लेकर सुदामा को जमुई शहर में नाना के घर पढऩे के लिए भेज दिया, जहां कुमार कालिका मेमोरियल कॉलेज में उसने दाखिला लिया। एक दिन कॉलेज मैदान में वरिष्ठ एथलीट आशुतोष कुमार सूरज की नजर तेज गेंदबाजी करते सुदामा पर पड़ी।

उसकी तेजी और थ्रो से प्रभावित होकर उन्होंने उसे जेवलिन थ्रोअर बनाने की ठानी। दोस्तों से पैसे इकट्ठे कर उन्होंने सुदामा के लिए जेवलिन खरीदे, जूते दिए और सही डाइट की व्यवस्था भी की।

गुरु दक्षिणा में बिहार की झोली खाली होने से बचाया : सुदामा ने पहले राज्य स्तरीय स्कूली एथलेटिक्स में स्वर्ण जीता और इसके बाद कोलकाता में हुए एसजीएफआइ गेम्स में कांस्य पदक जीत बिहार की झोली खाली होने से बचाया।

इनका जवाब नहीं

 सुदामा की तरह छोटे से गांव बरुआरा की अंजनी कुमारी ने अंडर-18 यूथ नेशनल में रजत जीता। अंजनी के पिता जीआरपी में हैं और उसके घर के अन्य सदस्य बेरोजगार हैं। दोस्तों के सहयोग से वह पढ़ाई के साथ अपने खेल को जारी रख रही है।

इसी तरह झाझा में डाकपाल दिनेश रावत के पुत्र रौशन कुमार तमाम मुश्किलों के बावजूद राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़कर फर्राटा का बादशाह बन चुका है तो सुरेंद्र छह सौ मीटर दौड़ में गोल्ड जीतने में कामयाब रहा है। हालांकि यहीं पर अरुण मोदी जैसे नेशनल में गोल्ड मेडलिस्ट जेवलिन थ्रोअर भी हैं, जिन्हें कोई मदद न मिलने से खेल छोड़ दुकान पर आश्रित रहना पड़ रहा है।

''उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र को मुख्य धारा में लाने के लिए आपकी सरकार आपके द्वार कार्यक्रम के तहत जनप्रतिनिधियों को लेकर खेलकूद का आयोजन कराने की घोषणा हुई थी, लेकिन राशि आवंटित न होने से यह ठंडे बस्ते में पड़ा है।

शहरी क्षेत्रों में तो साल में एक बार आयोजन हो भी जाता है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में मैदान की कमी है। स्थानीय लोगों के सहयोग के बगैर यह संभव नहीं है।

- परिमल, जिला खेल पदाधिकारी, जमुई

''प्रखंड स्तर पर आयोजन नहीं होते हैं। कभी हुआ भी तो केवल खानापूर्ति की जाती है। न रहने और न खाने की व्यवस्था। प्रशासन और जिला खेल पदाधिकारी को जंगल से सटे गांवों में खेल के आयोजन नियमित करने होंगे। गांव के लोगों को जागरूक करना पड़ेगा।

राज्य सरकार को इन नेशनल चैंपियन को अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म मुहैया कराने के लिए सेंटर ऑफ एक्सीलेंस स्थापित करना चाहिए। उनके लिए नौकरी की व्यवस्था करनी पड़ेगी। तभी जाकर सही में बदलाव दिखेगा।

- आशुतोष कुमार सूरज, सीनियर एथलीट और कोच

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