विधानसभा चुनाव : सवालों में गोता लगाते मतदाता

सब कह रहे हैं कि यह चुनाव अभूतपूर्व है। राजनीतिक गठबंधनों के लिए कठिन है। मुश्किल में डालने वाला है, लेकिन सही मायनों में यह चुनाव मतदाताओं के लिए ज्यादा कठिन है। सोच-समझ कर वोट डालने वाले राज्य के वोटर्स के लिए इस चुनाव में फैसला लेना 'बड़ा कठिन' है।

By Kajal KumariEdited By: Publish:Sat, 05 Sep 2015 05:36 PM (IST) Updated:Sat, 05 Sep 2015 05:45 PM (IST)
विधानसभा चुनाव : सवालों में गोता लगाते मतदाता

पटना [विनय मिश्र]। सब कह रहे हैं कि यह चुनाव अभूतपूर्व है। राजनीतिक गठबंधनों के लिए कठिन है। मुश्किल में डालने वाला है, लेकिन सही मायनों में यह चुनाव मतदाताओं के लिए ज्यादा कठिन है। सोच-समझ कर वोट डालने वाले राज्य के वोटर्स के लिए इस चुनाव में फैसला लेना 'बड़ा कठिन' है। यू कहें कि इस बार 'कोर्स' से बाहर के 'सवाल' पूछे जा रहे। जो पाठ पढ़ा नहीं, उसके 'ऑप्शन' उसके सामने रखे जा रहे। जैसे-जैसे परीक्षा (मतदान) की तिथि नजदीक आएगी यह उलझन बढ़ती रहेगी।

सीधा-सपाट था पिछला चुनाव

पिछला चुनाव सीधा-सपाट था। नीतीश कुमार के मुकाबले लालू प्रसाद थे। भाजपा नीतीश के साथ थी। खराब शासन बनाम सुशासन के नारे थे। अब जिस शब्द से पीछा छुड़ाने की कोशिश हो रही उस 'जंगलराज' के मुकाबले सपना दिखाया जा रहा था 'न्याय के साथ विकास का'। कांग्रेस लड़ाई में थी, लेकिन खुद में सिमटी-सकुचाई हुई। लिहाजा मतदाताओं को कठिन परीक्षा नहीं देनी पड़ी। आर या पार। थोड़ा बहुत दिमाग लगाना पड़ा स्थानीय उम्मीदवारों के नाम, चेहरे, जाति और धर्म को लेकर, लेकिन न्याय के साथ विकास का 'सपना' पिछले अनुभव के आधार पर अच्छा लगा। मतदाताओं ने तत्कालीन शासन को स्वीकार कर लिया।

परीक्षा के समय बदल गया 'कोर्स'

लगभग चार साल तक सब ठीक रहा। लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की आंधी क्या बही, बिहार की राजनीति 'बालू के टीलों' जैसी स्थान और परिचय बदलने लगी। जीतनराम मांझी के मुख्यमंत्री बनने तक भी सब ठीक था। तीन गठबंधन दिख रहे थे। नरेंद्र मोदी के 'करिश्माई' नेतृत्व पर भरोसा करने वाली भाजपा, नीतीश कुमार को बतौर नेता सामने रखकर लडऩे का संकल्प ले चुका जदयू और लालू प्रसाद का राजद। मांझी के विद्रोह ने सब गड़बड़ कर दिया। नीतीश और लालू साथ हो गए। एक महीने पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था। फिर पुरानी कहावत दोहराई गई - राजनीति में कुछ भी हो सकता है। राजनीति में कोई स्थाई दुश्मन और दोस्त नहीं होता। बात निकली तो महागठबंधन तक पहुंच गई। गांव-गांव में स्वाभाविक 'दुश्मन' रहे राजद और जदयू के लोग अब एक तरह की बात करने लगे। इसी के साथ मतदाताओं के 'कन्फ्यूजन' का समय शुरू हो गया।

कन्फ्यूजन अभी और भी हैं

राज्य में चुनाव को लेकर बहस चल रही। खेतों की मेड़ से लेकर चाय दुकान की बेंच तक। स्कूलों के टीचर्स रूम में, बैंकों के रिक्रिएशन रूम में, खुलने का इंतजार कर रहीं बसों में, ट्रेन के आरक्षित-अनारक्षित, एसी-नॉन एसी बोगियों में, सचिवालय के गलियारे में, बाजार में, खेल के मैदान में। जहां चार लोग सुस्ताते-बतियाते नजर आते हैं, कई सवाल उछलते हैं। इन सवालों के साफ जवाब अभी नहीं मिल पाए हैं। लिहाजा कन्फ्यूजन बढ़ता जा रहा।

सवाल कई हैं, जवाब नहीं

क्या हैं सवाल? पहला सवाल यह है कि जो लालू के मुकाबले नीतीश को पसंद करते थे, वे अब किस उम्मीदवार को वोट देंगे? जो नीतीश के मुकाबले लालू को पसंद करते थे, वे क्या करेंगे। क्योंकि अब लॉटरी जैसा मामला है। पता नहीं कौन सी सीट का नंबर किसके नाम से लग जाए।

दूसरा सवाल यह है कि विकास की राह को ही चुनना है, तो किसका विकास चुनें? मुख्यमंत्री नीतीश का, या प्रधानमंत्री मोदी का। 'नया बिहार' बनाने के लिए दोनों ही खजाना खोल रहे। सपने दिखा रहे। लाखों-करोड़ों का हिसाब है। फुल पेज विज्ञापन जारी हो रहे।

मेरा पैसा असली है। मेरी योजना सही है। मतदाता क्या करे? कैलकुलेटर लेकर जोड़े? और कुछ कन्फ्यूजन हैं। बात हो रही विकास की और टिकट बांट रहे जाति वाले को। फैसला किस आधार पर हो? इधर का मुख्यमंत्री तो तय है, उधर का कौन होगा? वोट तक गठबंधन रहेंगे कि नहीं? राजद को ज्यादा सीटें आ गईं, तो? सवाल बहुत हैं। जवाब अपने ढंग से दिया जा रहा। वे जवाब और कन्फ्यूज कर रहे। मतदाता के लिए कठिन समय है। वह जानता है कि सही फैसला नहीं हुआ, तो नया बिहार नहीं बन पाएगा। असली घाटा उसे ही होगा।

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