Covid-19, Lockdown: जीवन की आपाधापी में वक्त गुजारे एक साथ, तब जाना क्या है परिवार

जीवन की आपाधापी में पीछे छूटतीं भावनाएं। बच्चों की गुम होतीं किलकारियां और मां-दादी की लोरियां। लेकिन अब कुछ वक्त गुजारे एक साथ तब जाना क्या है परिवार।

By Murari KumarEdited By: Publish:Mon, 30 Mar 2020 09:10 PM (IST) Updated:Mon, 30 Mar 2020 09:10 PM (IST)
Covid-19, Lockdown: जीवन की आपाधापी में वक्त गुजारे एक साथ, तब जाना क्या है परिवार
Covid-19, Lockdown: जीवन की आपाधापी में वक्त गुजारे एक साथ, तब जाना क्या है परिवार

समस्तीपुर, अजय पांडेय। जीवन की आपाधापी में पीछे छूटतीं भावनाएं। बच्चों की गुम होतीं किलकारियां और मां-दादी की लोरियां। नाश्ते की टेबल से लेकर शाम की चाय और चूल्हा-चौके तक पसरा सन्नाटा। दुनियादारी की समझ तले सब खत्म..हर ओर एकांगी और एकसूत्री जीवन। लेकिन, अब कुछ वक्त गुजारे एक साथ, तब जाना क्या है परिवार।

 कोरोना वायरस के संक्रमण की आशंका के दौर में पुराने दिन लौट रहे, जिसे हमारा समाज संयुक्त परिवार की संज्ञा देता है। आज घरों में सुकून के पल हैं, जब परिवार के सदस्य सुबह की चाय के साथ रात के भोजन तक एक पंगत में बैठते। जीवन के सुख-दुख और बीते पलों को याद करते। रात में बच्चे दादा-दादी की कहानी सुनते तो बहुएं रसोई में सासू मां की रेसिपी बनातीं।

आपदा की घड़ी जोड़ती है हमें

महिला कॉलेज, समस्तीपुर की समाजशास्त्र की विभागाध्यक्ष डॉ. नीता मेहता इस दौर को दार्शनिक और सामाजिक, दोनों ढंग से देखती हैं। इस समय वे बेटे, बहू और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ हैं। उनका कहना है कि बेशक समाज कोरोना संकट के दौर में है। लेकिन, इसकी सामाजिकता को भी समङों। आपदा की घड़ी हमें जोड़ती है।

 यह सकारात्मक असर डालनेवाला है। उन बच्चों की मनोदशा समङिाए, जब कामकाजी मां-बाप के बीच कैसे वे एकांगी हो रहे थे। बोङिाल बस्ता और टीवी की मायावी दुनिया, उनकी मनोस्थिति को कैसे झकझोरती थी। अब यही बच्चे माता-पिता के बीच हैं। दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां और लोरियां मानसिक रूप से मजबूत करनेवाली हैं।

रिश्ते हो रहे मजबूत

डॉ. नीता कहती हैं कि पिछले कुछ वर्षो में परिवार की परिभाषा ही बदल गई थी। लेकिन, इस संकट ने सबको जोड़ दिया है। बहुएं सासू मां से घरों को जोड़ना सीख रहीं। बेटे बूढ़े हो चुके पिता से जीवन का ज्ञान ले रहे। बच्चे जीवन का सबक समझ रहे। इन छोटी-छोटी बातों को सहेज लेने का वक्त है। यह ऐसा पल है जो लॉकडाउन के दायरे से भी बड़ा है। इसके लिए समय-सीमा की बंदिश नहीं।

एक दिन लौटना उसी परिवार में है

हम कितना भी विकास कर लें, अर्थ के पीछे भागें, एक दिन लौटना परिवार में है। आज आपदा की इस घड़ी में जो लोग सैकड़ों किलोमीटर दूर से पैदल आने को विवश हो रहे, क्यों? इसके पीछे का तर्क यही है कि संकट के दौर में परिवार ही सहारा होता। महिला कॉलेज के ही अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. विजय कुमार इस दौर की व्याख्या सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण से करते हैं। उनका कहना है कि आज कई परिवार संयुक्त हो गए हैं। उनके खर्चे संयुक्त हैं। यह हमें जोड़ रहा।

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