किशनगंज में दिखती है बंग संस्कृति की झलक

किशनगंज । किशनगंज जिले में बंग अंग मिथलांचल और सुरजापूरी संस्कृति के मिश्रित संस्कृति के

By JagranEdited By: Publish:Sat, 24 Oct 2020 09:15 PM (IST) Updated:Sun, 25 Oct 2020 05:04 AM (IST)
किशनगंज में दिखती है बंग संस्कृति की झलक
किशनगंज में दिखती है बंग संस्कृति की झलक

किशनगंज । किशनगंज जिले में बंग, अंग, मिथलांचल और सुरजापूरी संस्कृति के मिश्रित संस्कृति के रचे बसे होने के कारण किशनगंज की पूजा के चर्चे दूर दूर तक होती है। समाज के सामूहिक प्रयास का नतीजा है कि दुर्गा पूजा का रंग हर साल गहराता जा रहा है। बंगाल की सीमा से सटे होने के कारण जिले में अधिकांश स्थानों पर बंग संस्कृति के आधार पर दुर्गोत्सव मनाया जाता है। बांग्ला संस्कृति में ऐसी मान्यता है कि मां दुर्गा अपनी संतानों के साथ पांच दिनों के लिए अपनी मायके आती हैं। मां के आगमन की सुखद अनुभूति भक्तों में नई उर्जा का संचार कर देती है और वे पराशक्ति देवी मां दुर्गा की आराधाना में लीन हो जाते हैं। यूं तो पूरे शहर में 22 स्थानों पर धूमधाम के साथ दुर्गा पूजा मनाया जा रहा है। लेकिन शहर के सुभाषपल्ली, मिलनपल्ली, लाइन, डेमार्केट आदि स्थानों पर बंग संस्कृति की झलक देखने को मिलती है।

जिस प्रकार बंगाल के लोग सर्वशक्ति स्वरूपा महिषासुरमर्दिनी मां दुर्गा पर अपना अधिकार समझते हैं और यह स्वीकार करते हैं कि बंगाल मां का नैहर है, ठीक वही उत्साह व विश्वास यहां के निवासियों में भी है। षष्ठी के दिन पट खुलते ही मां की दर्शन के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ने लगती है। बंग संस्कृति में प्रतिपदा के स्थान पर षष्ठी से मां की पूजा अर्चना की जाती है। पुजारी के द्वारा बोधन कर मां का आह्वान किया जाता है। सप्तमी को पूरे विधि विधान के साथ अधिवास कर मां को आमंत्रित किया जाता है और चक्षुदान किया जाता है। अष्टमी तिथि को संधि पूजा की जाती है और महाअष्टमी और महानवमी के संधि काल में शांति पूजा की जाती है। इस शांति पूजा में 108 कमल फूल, 108 नीलकंठ फूल मां की चरणों में समर्पित किया जाता है और 108 दीये भी जलाये जाते हैं।

विसर्जन से पूर्व मां का दर्शन सीधे नहीं किया जाता है। प्रतिमा के सामने एक कठौती में पानी भरकर उसमें आईना डुबो दिया जाता है। पानी और आईने में मां की चरण का प्रतिबिब देखा जाता है। मां दुर्गा की विदाई के वक्त सुहागिन महिलाएं मां को खुशी खुशी सुहागन विदा करती हैं। महिलाएं मां की मांग में सिदूर लगाती हैं और उनका मुंह मीठा कराकर पानी पिलाती हैं। फिर अपने आंचल से मां के मुंह को साफ कर मीठा पान खिलाकर उन्हें विदा किया जाता है। मां की मांग भरने के बाद महिलाएं एक दूसरे की मांग में सिदूर लगाती हैं और सिदूर की होली खेलती हैं। बंग संस्कृति वाले पूजा पंडालों में धुनुची नृतय का भी विशेष महत्व है। सप्तमी से लेकर नौंवीं पूजा तक आरती के समय मां को प्रसन्न करने के लिए भक्त ढ़ाक की ताल से ताल मिलाकर भावविभोर होकर नृत्य करते हैं।

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