बिहार में 3 साल से रुकी है विवाह की अनूठी परंपरा, जिसमें 13 रुपये में बन जाती हैं जोड़ियां, 6600 रह गए कुंवारे

बिहार में विवाह की अनूठी परंपरा पर कोरोना का ग्रहण लगा हुआ है। आदिवासी युवाओं की जिंदगी में कोरोना विलेन बन गया है। तीन साल में बिहार के करीब 6600 युवक-युवतियों का मिलन नहीं हो पाया। वे कुंवारे रह गए।

By Abhishek KumarEdited By: Publish:Sat, 15 Jan 2022 04:59 AM (IST) Updated:Sat, 15 Jan 2022 09:01 PM (IST)
बिहार में 3 साल से रुकी है विवाह की अनूठी परंपरा, जिसमें 13 रुपये में बन जाती हैं जोड़ियां, 6600 रह गए कुंवारे
छह हजार छह सौ युवक-युवतियां रह गए कुंवारे।

भागलपुर [संजय सिंह]। विवाह कीअनूठी परंपराआदिवासी समाज में प्राचीन काल से चल रही है। वर, अपने लिए योग्य कन्या ढूंढने का काम मेले में करते हैं। यह मेला मंदार (बांका) और देवघरा (मुंगेर) में मकर संक्रांति के मौके पर लगता है। इस मेले में मुंगेर, बांका, लखीसराय, जमुई और झारखंड़ के सीमावर्ती जिलों से शादी योग्य युवक एवं युवतियां अपने स्वजनों के साथ पहुंचते हैं। लेकिन कोरोना की वजह से पिछले दो वर्षों और इस साल भी यह मेला नहीं लगा। परिणाम स्वरूप तकरीबन 6600 युवक-युवतियां कुंवारे रह गए।

इन जिलों के लगभग 534 छोटे-बड़े गांव के ग्रामीण इस मेले में अपने स्वजनों के साथ आते हैं। जब युवक और युवती आपस में शादी की बात तय कर लेते हैं तो दोनों ग्राम प्रधान (मडड़़) के सामने उपस्थित होते हैं। ग्राम प्रधान दोनों से शादी के संदर्भ में कुछ सवाल पूछते हैं। इसके बाद शादी की स्वीकृति दे देते हैं। ग्राम प्रधान की स्वीकृति के बाद ही वर और कन्य पक्ष के लोग शादी की तैयारी में जुट जाते हैं। मेले में वर और कन्या को पसंद करने की यह परंपरा शदियों से कायम है। लेकिन कोरोना की वजह से कुछ नौकरी-पेशे वाले आदिवासी अब इस परंपरा से हटकर आधुनिक परंपरा के आधार पर अपने बच्चे और बच्चियों की शादी तय करने लगे हैं। पर, ऐसे लोगों की संख्या अब भी उंगली पर ही गिनने लायक है।

13 रुपये में होती है शादी

आदिवासी परंपरा के अनुसार मात्र 13 रुपये में शादी तय होती है। प्रधान की स्वीकृति के बाद कन्य पक्ष के लोगों को वर पक्ष के लोगों को उपहार (दहेज) स्वरूप महज 13 रुपये देने होते हैं। वर पक्ष के लोग जैसे ही यह 13 रुपये स्वीकार कर लेते हैं तो यह शादी पक्की मानी जाती है। साथ ही लड़की के लिए आभूषण की खरीदारी वर पक्ष के लोग नहीं करते हैं, कन्य पक्ष के लोगों को ही इसका खर्च उठाना पड़ता है।

भोज में सबसे अहम है लाल मिर्च का पाउडर

आदिवासियों में बारात की परंपरा भी गजब है। बारातियों के लिए भोजन की व्यवस्था खुद वर पक्ष के लोगों को ही करना पड़ता है। यानी ये लोग बारात में सूखा राशन लेकर जाते हैं। कन्य पक्ष के लोग केवल भोजन बनाने का वर्तन और लकड़ी उपलब्ध कराते हैं। हैरानी की बात तो ये है कि मांसाहार की कोई व्यवस्था इस भोज में नहीं रहती है। चावल-दाल के साथ सब्जी हो या ना हो लाल मिर्च का पाउडर होना अनिवार्य है। इसके बिना भोज को अधूरा माना जाता है।

हर साल औसतन 1100 युवक-युवतियों की तय होती है शादी

आदिवासी सांस्कृतिक प्रकोष्ठ बांका के अध्यक्ष देवनारायण मरांडी बताते हैं कि अकेले बांका जिले में आदिवासियों के छोटे-बड़े 200 गांव हैं। इन गांवों के युवक-युवतियों की शादी मंदार और देवघरा मेले में ही तय होती है। इन मेले में औसतन हर साल 1100 से अधिक शादियां तय होती है। पिछले दो सालों से कोरोना के कारण मेला का आयोजन नहीं हो रहा है। ऐसे में 2200 से अधिक आदिवासी युवक-युवतियों की शादी नहीं हो सकी है।

आदिवासियों की शादी मेले में तय होने की परंपरा प्राचीन है। आदिवासी समाज के लोग इसका आज भी पालन कर रहे हैं। हालांकि कुछ नौकरी-पेशे वाले लोग मेले का आयोजन नहीं होने के कारण इधर-उधर शादियां कर रहे हैं। लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है। -बिरसा सोरेन, प्रखंड प्रमुख, बौंसी, बांका।

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