कुछ इस तरह वक्त के साथ बदलता गया चाय बनाने और पीने का अंदाज
चाय का सफर की कहानी बहुत ही रोमांचक है। समय बदलने के साथ कैसे इसके स्वाद और रंग-रुप में बदलाव होते गए। आज इसी के बारे में जानेंगे...
पुष्पेश पंत
कुछ दिन पहले एक भूला-सा जुमला बहुत दिन बाद सुनने को मिला। एक सरकारी दफ्तर में काम निबटाने के बाद बड़े बाबू ने गुजारिश की कि कुछ बंदोबस्त हमारे चाय-पानी का भी कर दिया जाए! आजकल चाय-पानी का अर्थ चाय से कहीं अधिक समझा जाता है। इसमें नाश्ते के बहुत सारे आइटम जोड़ लें, तब भी मेहनताना या बख्शीश की भरपाई नहीं हो सकती, बहरहाल, विषयांतर से बचने की जरूरत है। चाय के साथ खास तरह की पारंपरिक दावत की यादें जुड़ी हैं। अंग्रेजी राज में दस्तूर 'हाई टी' का था। इसमें नाजुक-नफीस सैंडविच, पेस्ट्रियां , मफिन, स्कोन, पैटी वगैरह पेश किए जाते थे। इस नाश्ते के बाद लोग क्लब चले जाते, वहां पीते ज्यादा खाते कम थे। बंगले पर लौटने तक न तो भूख बचती थी, न प्यास। यह रूटीन था फौजी अफसरों से लेकर 'सिविलियनों' तक का।
चाय सिर्फ दार्जिलिंग की कबूल की जाती थी, जिसमें दूध नाममात्र का भी चाहने-मांगने पर मिलता था। चीनी डालना चाय के स्वाद को नष्ट करने वाला गुनाह था। यह खुशबूदार चाय खौलाई नहीं जाती थी, हल्के उबलते पानी को केतली में पत्तियों के ऊपर उडेल कर ब्रू की जाती थी। भपके में खिंची इस चाय का तामझाम निराला था- चानी मिट्टी के लगभग पारदर्शी प्यालों में इसका आनंद लिया जाता था। जापानी टी उत्सव से कम यह अनुष्ठान नहीं होता था।
क्या स्वाद और क्या बात!
फिरंगी शासकों के आचरण को अनुकरणीय समझ कर अपनाने में भूरे साहबों ने देर नहीं लगाई। पर हाई टी के व्यंजन उन्हें रास नहीं आए, सो चाय की किस्म और नाश्ते के आइटम सब बदलते चले गए। हिंदुस्तानी 'टी-पार्टी/पाल्टी' में गर्मागर्म पकौड़ों-समोसों ने सैंडविचों को विस्थापित कर दिया। बर्फियों, लड्डुओं ने पेस्ट्रियों और बेकरी की दूसरी चीजों का जगह ले ली। जो लोग अंग्रेजियत के दबाव में ज्यादा थे, उन्होंने नाममात्र के लिए चीज सैंडविच और नमकीन और मीठे बिस्कुट मेनू में शामिल कर लिए। दार्जिलिंग की चाय काफी मंहगी होती है, सो रेड लेबल या येलो लेबल सीटीसी चाय अपनाना सुविधाजनक साबित हुआ। इस तरह की चाय में न तो कुदरती सुगंध होती है, न अपना जायका, अत: इसका रंग निखारने के लिए खौलाना पड़ता है। स्वादिष्ट बनाने के लिए कूटकर इलायची, अदरक, दालचीनी आदि डाले जाने लगे।
कुछ दशक पहले शादी मौके पर नवदंपती को मिलने वाले उपहारों में 'टी सेट' की संख्या सबसे ज्यादा होती थी। देशी खानपान की परंपरा में सवेरे के नाश्ते की तरह शाम की चाय पार्टी वाले समारोह का ज्रिक भी नदारद है। इनकी लोकप्रियता इनकी उपयोगिता से जुड़ी थी। जिन मेहमानों से रिश्ते सिर्फ औपचारिक हों, जिन्हें अपने साथ पंगत पर घर में परिवार वालों के साथ नहीं खिलाया जा सकता था, बतर्ज फिल्मी गाने 'उन्हें चाय पे बुलाया' जा सकता था। पास-पड़ोस, परिवार या दफ्तर के सहकर्मी पिकनिकनुमा सामूहिक टी-पार्टी का आयोजन भी कर लेते थे। आज कहां चली गई वह टी-पार्टी? चाय-पानी पर तैयार किए जाने वाले जायकेदार व्यंजन। वास्तव में बड़े बाबू ने दुखती रग छेड़ दी। चाय-पानी का वास घर की मेहमाननवाजी के क्रमश: अंत की करुण व्यथा-कथा है।