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उत्कृष्ट और विश्र्व प्रसिद्ध वास्तुशिल्प का बेमिसाल नमूना है गुजरात का मोढेरा सूर्य मंदिर

पाटन से 30 किमी दक्षिण में मेहसाना जिले में पुष्पावती नदी के किनारे स्थित इस मोढेरा सूर्य मंदिर का उत्कृष्ट एवं विश्र्व प्रसिद्ध वास्तुशिल्प बेमिसाल है। चलते हैं इसके सफर पर...

By Priyanka SinghEdited By: Published: Tue, 26 Nov 2019 09:50 AM (IST)Updated: Tue, 26 Nov 2019 09:50 AM (IST)
उत्कृष्ट और विश्र्व प्रसिद्ध वास्तुशिल्प का बेमिसाल नमूना है गुजरात का मोढेरा सूर्य मंदिर
उत्कृष्ट और विश्र्व प्रसिद्ध वास्तुशिल्प का बेमिसाल नमूना है गुजरात का मोढेरा सूर्य मंदिर

अहमदाबाद से पाटन जाने के लिए100 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद जब टैक्सी रुकी तो दोपहर के तीन बज चुके थे और चिलचिलाती धूप में एक लंबा रास्ता पार करते हुए जिसके दोनों ओर हरियाली का विस्तार था, आगे बढ़ते कदम थोड़ी थकान महसूस कर रहे थे। बायीं तरफ एक पगडंडी नुमा पक्का रास्ता बना था जिसके किनारे मुंडेरों पर पत्थर की बहुत सारी कलाकृतियां सजी हुई थीं। आगे बढ़ी तो आंखों ने पत्थरों के जिस जादुई करिश्मे को देखा, तो कई क्षण लग गए उस अभूतपूर्व सौंदर्य को आत्मसात करने में। थकान की बोझिलता अचानक गायब हो गई। सामने शान से खड़ा था एक विशाल मंदिर जिसे देख कोणार्क मंदिर याद हो आया। उससे पहले विशाल कुंड था जिस तक पहुंचने के लिए ज्यामितीय आकार की असंख्य सीढि़यां थीं और चारों ओर 108 छोटे-छोटे मंदिर।

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वैज्ञानिक संरचना और परंपरा का मिश्रण

मोढेरा का अर्थ है मृत का ढेर। संभवत: अनेक सभ्यताओं की परतों से सम्बंध रखते हुए इसे मोढेरा कहा गया। एक किवदंती के अनुसार मोढेरा ग्राम, ब्राम्हणों के मोढ जाति से सम्बंधित है, जिन्होंने भगवान् राम को उनके आत्मशुद्धी यज्ञ में मदद की थी। पाटन से 30 किमी दक्षिण में मेहसाना जिले में पुष्पावती नदी के किनारे स्थित इस मोढेरा सूर्य मंदिर का उत्कृष्ट एवं विश्र्व प्रसिद्ध वास्तुशिल्प बेमिसाल है। सारी संरचना एक वैज्ञानिक आधार पर तैयार है, जिस पर उत्कीर्ण नक्काशी परंपरा व धार्मिक आस्था का नायाब समन्वय है। यह मंदिर एक समय में पूजा अर्चना, नृत्य एवं संगीत से भरपूर जाग्रत मंदिर था। पाटन के सोलंकी शासक सूर्यवंशी थे एवं सूर्यदेव को कुलदेवता के रूप में पूजते थे। इसलिए सोलंकी राजा भीमदेव ने सन 1026 ई. में इस सूर्य मंदिर की स्थापना करवाई थी। यह दक्षिण के चोल मंदिर एवं उत्तर के चंदेल मंदिर का समकालीन वास्तुशिल्प है।

सूर्य मंदिर की संरचना

सूर्य मंदिर की संरचना ऐसी की गई है कि विषयों के समय, यानी 21 मार्च और 21 सितम्बर के दिन सूर्य की प्रथम किरणें गर्भगृह के भीतर स्थित मूर्ति के ऊपर पड़ती हैं। इसका स्पष्ट अर्थ है कि हमारे पूर्वजों को प्राचीन काल में विज्ञान, तकनीक एवं खगोलशास्त्र का सम्पूर्ण ज्ञान था। माना जाता है कि यह मंदिर 23 लैटिट्यूड पर बना है। 21 मार्च व 22 सितंबर इक्विनॉक्स (विषुव) ऐसा समय-बिंदु होता है, जिसमें दिन और रात्रि लगभग बराबर होते हैं। ग्रेगोरियन वर्ष के आरंभ होते समय (जनवरी माह में) सूरज दक्षिणी गोलार्ध में होता है और वहां से उत्तरी गोलार्ध को अग्रसर होता है। वर्ष के समाप्त होने (दिसम्बर माह) तक सूरज उत्तरी गोलार्द्ध से होकर पुन: दक्षिणी गोलार्द्ध पहुंच जाता है। इस तरह से सूर्य वर्ष में दो बार भू-मध्य रेखा के ऊपर से गुजरता है। इस मंदिर के निर्माण में मूल खण्डों को आपस में गूंथ कर संरचना खड़ी की गयी है। कहा जाता है कि इस पद्धति के कारण यह भूकंप के झटकों को भी आसानी से सहन कर सकता है।

हर नक्काशी का है एक उद्देश्य

मंदिर में उकेरी हुई तीन चीजें देखने को मिलीं-हाथी, शेर व घोड़ा। शेर राजा का प्रतिनिधित्व करता है, ताकत को प्रतिनिधित्व करता है, घोड़ा क्षत्रिय, हाथी लक्ष्मी को। साथ ही उस समय अन्य वाहन नहीं थे और सारे पत्थर जो मंदिर के निर्माण में लगते थे, हाथी ही ढोकर लाते थे। उस समय माना जाता था कि मंदिर के निर्माण में केवल लोगों का ही योगदान नहीं है, हाथियों का भी है, इसलिए इन्हें भी दीवारों व स्तंभों पर उकेरा गया है। कमल पहले, फिर हाथी बनाते हैं। कमल धर्म का प्रतीक है, क्योंकि वह कीचड़ में खिलता है, पर अपने गुणों के कारण हमेशा गंदगी से दूर रहता है। कर्म करना ही है, और उसके बाद मोक्ष को उकेरा गया है। यह मंदिर धर्म, कर्म, काम मोक्ष के आधार पर ही बना हुआ है।

सुमन वाजपेयी

Pic Credit- gujarattourism


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