भारत के खानपान को अनोखा स्वाद देने में ईस्ट इंडियन बॉटल मसालों का रोल है बेहद खास, ऐसे होता है तैयार
हिंदुस्तान में उपयोग किए जाने वाले पिसे हुए मसाला मिश्रणों की सूची खासी लंबी है। जो खान-पान को अद्भुत स्वाद और विविधता प्रदान करते हैं। इन्हीं में ईस्ट इंडियन बॉटल मसाला खास है।
पुष्पेश पंत
जब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने पैर पसारे तो रोजगार के बेहतर मौकों की तलाश में कोंकणी नए शासकों के साथ जुड़ गए। खुद को गोवा वालों तथा मुंबई के ईसाइयों से फर्क करने के लिए कंपनी बहादुर के आदमियों ने 'ईस्ट इंडियन' विशेषण इस्तेमाल करना आरंभ किया! हालांकि नक्शे पर जो इलाका पूर्वी भारत का हिस्सा है उससे ईस्ट इंडिया बॉटल मसाले का कोई नाता नहीं। इसका जन्म गोवा से जुड़े कोंकण प्रदेश में हुआ, जहां के निवासी पुर्तगाली प्रभाव में ईसाई बने थे। यह मसाला एक बार तैयार कर सालभर इस्तेमाल होने के लिए पारंपरिक रूप से बियर की खाली बोतलों में भरकर रखा जाता था इसलिए इसके नाम के साथ 'बॉटल' शब्द भी जुड़ गया।
गर्म दिनों में होती तैयारी
इस मिश्रण में बीस से तीस मसाले मिलाए जाते हैं जिन्हें साल के सबसे गर्म दिनों में धूप में सुखाकर पीसे जाने की परंपरा थी। आजकल कुछ मसाले सूखे तवे पर भी भूने जाते हैं। आम मसालों में धनिया, हल्दी, खसखस, जावित्री तो मौजूद रहते ही हैं पर इसकी खास पहचान पत्थर फूल और नागकेसर समझे जाते हैं। इसमें मिले माई पत्री नामक मसाले का जिक्र कहीं और सुनने को नहीं मिलता। हालांकि इसके लिए अनिवार्य और वैकल्पिक मसालों के बारे में चाहे जितना मतभेद हो पर इस बारे में सभी एंग्लो इंडियन परिवार एकमत हैं कि सूखी लाल मिर्च के लिए सिर्फ रेशमपत्ती (रसमपत्ती) ही इस्तेमाल की जानी चाहिए हालांकि कुछ शौकीन सुझाते हैं कि कश्मीरी लाल मिर्च का सुगंधित रंगीन पुट इस मसाले को और भी जानदार बना देता है।
कम तीखी है तासीर
कोल्हापुरी या मुलिगा पोडी जैसे दूसरे मसाला मिश्रणों की तुलना में ईस्ट इंडियन बॉटल मसाला कम तीखा होता है और अनेक सूखे व रसदार व्यंजनों में गरम मसाले की जगह बेखटके काम में लाया जा सकता है। खान-पान की जानकार चित्रिता बनर्जी का मानना है कि इस मसाले से पता चलता है कि पड़ोसियों के भोजन में छोटी-छोटी बातें कितना बड़ा फर्क पैदा कर देती हैं। मसलन गुजरात में (जो सागर मार्ग से तटवर्ती कोंकण से जुड़ा रहा है) मसाले ताजा पीसे जाते हैं, पहले से पीसकर रखे नहीं जाते तो वहीं गोआ में मसाले पहले से सुखाकर-भून और पीसकर रसोई में अलग-अलग रखे रहते है। खाना पकाने वाला इनको अपनी पसंद और सहूलियत के अनुसार अनुपात बदल-बदलकर इस्तेमाल करता है।
सांस्कृतिक विरासत का पुनर्जन्म
हालांकि मुंबई में रहने वाले खाने-पीने के शौकीनों को छोड़कर आज भी बहुत कम लोग इस जबरदस्त स्वाद वाले मसाला मिश्रण से परिचित हैं। हाल में एंग्लो इंडियन मूल के माइकेल स्वामी जैसे शेफ ने इसको पुनर्जन्म दिया और देश के दूसरे हिस्सों मे रहने वालों का परिचय इससे कराया। अंग्रेजी राज की यादों के सहारे इस 'अतीत के गौरव' को जैसे-तैसे जिंदा रखने में जुटे लुप्तप्राय एंग्लो इंडियन समुदाय के वंशज इसे अपनी सांस्कृतिक विरासत समझते हैं। यह संतोष का विषय है कि कभी घर-घर तैयार किए जाने वाले इस मसाले का उत्पादन आज पनपता कुटीर उद्योग है जिससे मेहनतकश महिलाएं जीविकोपार्जन करती हैं। हां, रंगीन बोतलों का स्थान कागज के डिब्बों ने जरूर ले लिया है!
(लेखक प्रख्यात खान-पान विशेषज्ञ हैं)