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सर्दियों में घूमने के लिए बेहतरीन जगह है 'दक्षिण भारत के आगरा' नाम से मशहूर बीजापुर

बीजापुर में स्थित इब्राहिम रोजा मकबरे को देखकर ही ताजमहल बनाने की प्रेरणा ली गई थी। यहां मकर संक्राति पर भारी भीड़ जुटती है। तो आज चलते हैं इसके ऐतिहासिक-सांस्कृतिक सफर पर...

By Priyanka SinghEdited By: Published: Thu, 02 Jan 2020 12:28 PM (IST)Updated: Thu, 02 Jan 2020 12:28 PM (IST)
सर्दियों में घूमने के लिए बेहतरीन जगह है 'दक्षिण भारत के आगरा' नाम से मशहूर बीजापुर
सर्दियों में घूमने के लिए बेहतरीन जगह है 'दक्षिण भारत के आगरा' नाम से मशहूर बीजापुर

बेंगलुरु से करीब 530 किलोमीटर दूर स्थित कर्नाटक राज्य के जिला बीजापुर का प्राचीन नाम विजयपुर है। आदिल वंश की राजधानी रहे इस शहर का इतिहास अपने स्वर्णिम अतीत की याद दिलाता है। कन्नड़ भाषा बोलता यह शहर पर्यटकों का भरपूर स्वागत करता है। साफ-सुथरी सड़कों और मुगलकालीन स्थापत्य कला वाले इस शहर में नवंबर से फरवरी के बीच र्यटन के मद्देनजर मौसम खुशगवार रहता है।

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क्यों है दक्षिण भारत का आगरा?

बीजापुर को 'दक्षिण भारत का आगरा' इसलिए कहा जाता है, क्योंकि माना जाता है कि यहां पर बनी इमारत इब्राहिम रोजा से ही शाहजहां ने ताजमहल के डिजाइन की प्रेरणा ली थी। इब्राहिम रोजा आदिल शाह द्वितीय और उनकी रानी का मकबरा है। इसकी संरचना फारसी-मुस्लिम वास्तुकला का अनूठा चमत्कार है, जो चट्टान के एक स्लैब पर बनाई गई है। 360 फीट ऊंची इस इमारत में महीन नक्काशी का काम है। छतों और दीवारों पर अनगिनत कंगूरे और बेलबूटे बने हैं। कमल के फूल की पंखुडिय़ां बनी हुई हैं। इसकी स्थापत्य कला अचंभित करती है। नक्काशी का जालीदार काम तो ऐसा है जैसे पत्थर की जगह कपड़े पर कशीदाकारी की गई हो। खिड़की-दरवाजों की लकड़ी और इमारत के पत्थरों पर किए काम में जैसे होड़ लगी हो। पत्थर ही लकड़ी और लकड़ी पत्थर होने का भ्रम देती है। मेहराब-आले-रोशनदान से सजी इस कलात्मक इमारत के दरवाजों और खिड़कियों पर लिखी आयतें फूल-पत्तियों जैसी लगती हैं। इसकी मीनार पर डायमंड कट पैटर्न बने हुए हैं। यह इमारत अगर सफेद संगमरमर से बनी होती तो शायद ताजमहल की खूबसूरती के मुकाबले बीस ठहरती।

शहर की सड़कें और स्त्रियां: कर्नाटक की सड़कें बेदाग हैं। ढूंढने से भी एक गढ्डा नहीं दिखेगा इन सड़कों पर। रात के काले आकाश-सी ये सड़कें धरती पर ऐसे बिछी हैं, जैसे रात का नशा धरती की आंखों में बाकी रह गया हो। हालांकि देश के दूसरे शहरों की तरह यहां भी आज सड़कों पर तिल रखने की जगह नहीं होती। यहां स्त्रियां या तो नकाब में मिलती हैं या बालों में वेणी लगाए हुए। बालों में वेणी और गजरा स्त्रियां इसलिए लगाती हैं जिससे फूलों की नमी और सुगंध बालों को मिल जाए।

मालिक-ए-मैदान: गोल गुंबद के सामने मालिक-ए-मैदान इमारत अब संग्रहालय में तब्दील हो गई है। इसके द्वार पर 55 टन की विशाल तोप रखी है, जिसके मुंह को शेर के सिर का आकार दिया गया है। इसके दांतों में हाथी फंसा है। कुछ भग्न मूर्तियां और अवशेष इस संग्रहालय में रखे हैं, जो आठवीं से सोलहवीं शताब्दी तक की कथा सुनाते हैं। आठवीं शताब्दी में पत्थर से बना हैंडिल वाला डंबल बताता है कि लोग स्वास्थ्य और सौष्ठव के लिए तब भी कितने सजग थे। शिवलिंग, गणपति, महावीर-बुद्ध की मूर्तियां आस्था के प्रतीक-सी वहां सुसज्जित हैं। इस संग्रहालय का आकर्षण एक विशाल शिलापट्ट है, जहां अरबी-फारसी और कन्नड़ में लिखा गया है। इबारत के ऊपर शिवलिंग और चांद एक साथ हैं, जो धार्मिक सौहार्द का संदेश देते हैं। आदिलशाही सल्तनत के क्रियाकलाप, जीवन शैली, उनका योगदान संग्रहालय के साजो-सामान के रूप में सदियों से सुरक्षित रखा हुआ है। आदिलशाही सल्तनत के सिक्के आज भी उस संग्रहालय में बीते दिनों को याद करके खनक उठते हैं।

कैसे और कब जाएं

सोलापुर एयरपोर्ट बीजापुर से 98 किलोमीटर की दूरी पर है। रेल और सड़क मार्ग से यह पूरे देश से जुड़ा हुआ है। शहर में घूमने के लिए ऑटो, रिक्शा, बस, टैक्सी, तांगा हर तरह के यातायात के साधन मिलते हैं। यूं तो पूरे साल यह शहर पर्यटकों का स्वागत करता है, लेकिन यहां आने का सबसे सही समय सितंबर से फरवरी महीने के मध्य है, जब शहर का पारा 20 से 30 डिग्री के बीच रहता है। जनवरी महीने में सिद्धेश्र्वर टेंपल में फेस्टिवल का आयोजन होता है। इस समय पूरे शहर में उत्सव का माहौल बन जाता है।

रूचि भल्ला


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