जाड़ों की नर्म धूप में याद आते हैं वो गुड़, गजक और गाजर के दिन
सर्दी का मौसम न सिर्फ आलस्य भरी सुबहें लेकर आता है बल्कि साथ लाता है स्वाद के उपहार और मंगल कार्यों की झंकार। इन दिनों जहां एक तरफ सेहत के नाम पर भांति-भांति के पकवान खाए जाते हैं तो वहीं आयुर्वेद में भी शीत ऋतु का विशिष्ट स्थान है।
मालिनी अवस्थी।
सुबह-सुबह क्षितिज पर कुहासे की चादर, मानो शरद पूर्णिमा का चांद जाते-जाते अपने पीछे श्वेत चादर छोड़ गया हो। ओस की बूंदों का टपकता अमृत, कुहासे का गहराता धुंधलापन, नरम पड़ती सूर्य की दमक, घर-घर में हल्की आंच पर भुनते तिलों की उठती खुशबू, गन्ने की पेराई, कढ़ाव में पकता सोंधा-सोंधा गुड़, गुड़ से बनने वाली मिठाइयां और चाशनी में पगे लोकगीत। मंगलकार्यों के लिए सजते तोरण, ढोलकों से उठती हुई थाप और सुबह बिस्तर छोड़ने को प्रलय का दर्जा देने वाला अधीर मन...यही है शरद-हेमंत ऋतु। ऐसे ही नहीं, हमारे यहां ‘जीवेत शरद: शतम्’ की अवधारणा मानी गई है। लगभग सबका प्रिय मौसम है सर्दी। सबको सालभर प्रतीक्षा रहती है इस मौसम की। गरम रजाई में बैठकर एक कप चाय का गिलास थामे और दुपहरी में अमरूद और संतरों जैसे खटमिट्ठे दिन! सर्दी का मौसम सदा मुझे बचपन की स्मृतियों में ले जाता है।
प्यार की अंगीठी, गप्पों का कोयला
कोहरे की भोर और उसे चीरते हुए सूर्य भगवान का अलसाया उदय, सुबह-सुबह गर्म पानी से भी कैसे नहाया जाए की भीषण चिंता, मां के हाथ के बुने स्कार्फ, मफलर और स्वेटर पहनकर ठिठुरते हुए विद्यालय जाना, शाम को रजाई में बैठकर पढ़ाई करना और सबसे सुखद स्मृति है मां की तैयार की हुई अंगीठी तापना और आग तापते हुए उसी अंगीठी में शकरकंदी, आलू और मटर भूनकर खाना। मोमो, नूडल खाने वाले आज के बच्चे उस स्वाद की कल्पना भी नहीं कर सकते क्योंकि जब अंगीठी ही नहीं बची तो उसके सहायक उत्पाद कहां तक चल पाते! माइक्रोवेव अवन की आंच अंगीठी की आग का मुकाबला कहां से करे भला! आज के सुविधाभोगी जीवन में वह सुख कहां, जो अंगीठी में था! अंगीठी सिर्फ अंगीठी ही नहीं थी। आग तापते हुए यही अंगीठी घर-परिवार खेल, देश-दुनिया के अनगिनत प्रसंगों के विमर्श का केंद्र बन जाती थी। आज भी जाड़े के मौसम में गांव में अलाव तापना, आग तापना सुख-दुख की साझेदारी का बहुत बड़ा प्रतीक है। अंगीठी के चारों ओर बैठकर गप्पें मारने में कब घंटों बीत जाते, पता ही नहीं चलता था। इसी अंगीठी पर गाजर की खीर बनती थी, पकते हुए दूध में मोटी मलाई पड़ती और बातें भी उसी रफ्तार से हुआ करतीं।
छह ऋतुओं की मणिमाला
प्रत्येक देश अपने भूगोल, इतिहास और जलवायु के वैशिष्ट्य से सजा होता है। इस मामले में हम भारतीय ईश्वर द्वारा कुछ अधिक ही आशीर्वाद पाए हुए हैं। विश्व का यह अकेला ऐसा भूभाग है जो जलवायु चक्र में छह ऋतुओं से सजा है। ये हैं - ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर और बसंत। छह ऋतुओं में प्रत्येक का चक्र दो-दो महीने का बन जाता है। वैशाख और जेठ के महीने ग्रीष्म के होते हैं। आषाढ़ और सावन के महीनों में वर्षा होती है। भाद्रपद और आश्विन के दो महीने शरद के होते हैं। हेमंत का समय कार्तिक और अगहन के महीनों का होता है। शिशिर ऋतु पूस और माघ के महीने में उतर आती है, जबकि बसंत का साम्राज्य फाल्गुन और चैत्र के महीनों में होता है। कार्तिक-अगहन का महीना किसानों के लिए व्यस्त समय होता है। धन-धान्य की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण! नया अनाज घर आता है, अगले की तैयारी होने लगती है और रबी की तैयारी आरंभ हो जाती है। आलू और गेंहू की बुवाई शुरू हो जाती है। खेतों में जमीन से फूटते अंकुरों पर ओस की बूंदें मानो मोतियों सी चमकती हैं। जैसे किसी कुशल किसान ने खेतों में मोती ही बो दिए हों। जहां अन्य ऋतुएं यथा ग्रीष्म मात्र अन्न देती हैं, वर्षा बुवाई करवाती है, शिशिर फसलों को बड़ा करती है, बसंत पुष्प देती है और हेमंत फसल पकाती है, वहीं शरद काल में सारे इंतजार का फल मिलता है जब खेतों में अन्न (धान) तैयार होता है, बुवाई (तिलहन, दलहन और गेहूं) भी होती है, कास के पुष्पों से धरा ढक जाती है।
चतुर्दिक आनंद की गूंज
चातुर्मास की लंबी प्रतीक्षा के बाद मनुष्य ही नहीं, प्रकृति भी शरद ऋतु का स्वागत धूमधाम से करती है। चार माह से रुके शुभ कार्य देवोत्थानी एकादशी से पुन: प्रारंभ हो जाते हैं। जगतपालक विष्णु सृष्टि के पालन में पुन: व्यस्त हो जाते है। मांगलिक कार्य आरंभ हो जाते हैं और हर तरफ आनंद ही आनंद होता है। आनंद की आहट तो करवाचौथ से ही आने लगती है। अपने यहां कहा जाता है कि करवाचौथ का त्योहार अपने साथ करवा भर जाड़ा ले आता है। इसी बदलते मौसम में दीपावली जैसा सबसे बड़ा पर्व मनाया जाता है। वास्तव में कार्तिक-अगहन का महीना सुख, समृद्धि, आनंद तथा कर्म का प्रतीक है। उत्सवों का आंगन है, देहरी है और असंख्य मंगलकार्यों की एक ऐसी चौखट है, जिसमें से निकलकर देव शुभकार्यों के लिए प्रस्तुत होते हैं। इन्हीं दिनों में पितरों, देवों तथा मनुष्यों सबको तृप्त करने हेतु पितृपक्ष, देवपक्ष और दीपोत्सव मनाए जाते हैं।
स्वाद के रंग हजार
शीत ऋतु अपने साथ ठंड ही नहीं, धरती के सर्वश्रेष्ठ भोज्य पदार्थ भी लाती है। कुछ भी कहिए, खाने-पीने का असली आनंद इसी मौसम में है और शाकाहारी भोजनप्रेमी तो वर्षभर सर्दियों की प्रतीक्षा करते हैं। आप इस समय सब्जियों का कोई भी ठेला या दुकान देख लें। वहां इतने रंग होंगे कि तबीयत जुड़ा जाए। लाल टमाटर, हरी पालक और गुलाबी गाजर देखकर भला किसका मन न आ जाएगा उन पर। सब्जियों का गुणकारी सूप हो या स्वाद का हिमालय गाजर का हलवा...सब सर्दियों की ही देन हैं। ताजा गुड़, भुनी मूंगफली, अमरूद, संतरा और शकरकंदी, मटर-गोभी, गाजर, मूली का स्वाद और अमृत जैसा मलाई मक्खन जिसे नैमिष या मलैया भी कहा जाता है। अवध में इन दिनों गली-गली उबले सिंघाड़े मिलते हैं। चटनी के साथ ये अपने आप में भरपूर व्यंजन और भोजन होते हैं। बचपन में इस मौसम में स्कूल के बाहर लगने वाले ठेलों में गुड़ के मीठे सेव और खटाई वाली इमली मिलती थी। क्या ही स्वाद हुआ करता था उनका! हमारे पिताजी डाक्टर थे, तो गांव से जब भी कोई आता, घर का बना रसियावर जरूर ले आता। मिट्टी की बड़ी हंडिया में गन्ने के रस में पकी चावल की खीर मतलब रसियावर का स्वर्गिक स्वाद लेने के लिए हम सालभर बाट जोहते थे।
लौटना होगा परंपरा की ओर
प्रकृति भी अद्भुत है। जिस ऋतु में जो खान-पान सेहत के लिए अनुकूल हो, वही प्रदान करती है। जाड़े में शरीर को गर्म रखने के लिए इस समय गुड़-सोंठ और बाजरा-मक्खन का खूब प्रयोग किया जाता है। भारतीय ज्ञान परंपरा अद्भुत है, हमारे पूर्वजों ने हर मौसम के अनुकूल आहार एवं नियम परंपरा में ढाल दिए। मुझे आज भी स्मरण है कि हमारी दादी खौलते दूध में सोंठ डालकर हमें जाड़े भर प्रतिदिन पिलाती थीं। उनका सबसे प्रिय शगल था जाड़े की धूप में बैठकर सरसों के तेल से बच्चों की मालिश करना। धूप की सिंकाई और तेल की मालिश सेहत के लिए कितनी जरूरी थी, ये हमारे बड़े-बुजुर्ग जानते थे। आज तेल की महक पर बिदकने वाले, सूर्य की रोशनी के सुख से वंचित विटामिन डी और कैल्शियम की खुराक पर आश्रित आधुनिक समाज को यह याद दिलाना आवश्यक है कि यदि वे अच्छा जीवन चाहते हैं तो उन्हें वापस उसी ज्ञान परंपरा की ओर लौटना होगा, उसी जीवनशैली की ओर लौटना होगा।
आयुर्वेद से साहित्य तक गुणगान
आयुर्वेद में हेमंत को सेहत बनाने की ऋतु कहा गया है। हेमंत में शरीर के दोष शांत स्थिति में होते हैं। अग्नि उच्च होती है इसलिए वर्ष का यह सबसे स्वास्थ्यप्रद मौसम होता है जिसमें भरपूर ऊर्जा, शरीर की उच्च प्रतिरक्षा शक्ति रहती है। इस मौसम में शरीर की तेल मालिश, कसरत और अच्छी मात्रा में खट्ठा-मीठा और नमकीन खाद्य शरीर की अग्नि को बढ़ाते हैं। तभी तो चरक ने कहा है- ‘शीते शीतानिलस्पर्शसंरुद्घो बलिनां बली:। ’
अर्थात- शीत ऋतु में शीत वायु के लगने से अग्नि में वृद्घि होती है।
ऋतुसंहार में महाकवि कालिदास ने हेमंत ऋतु का वर्णन कुछ यूं किया है-
‘नवप्रवालोद्रमसस्यरम्य: प्रफुल्लोध्र: परिपक्वशालि:।
विलीनपद्म प्रपतत्तुषारो: हेमंतकाल: समुपागता-यम॥’
अर्थात- बीज अंकुरित हो जाते हैं, लोध्र पर फूल आ चुके हैं, धान पक गया और कटने को तैयार है, लेकिन कमल नहीं दिखाई देते हैं और स्त्रियों को सजने के लिए अन्य पुष्पों का उपयोग करना पड़ता है। ओस की बूंदें गिरने लगी हैं और यह समय पूर्व शीतकाल है। महिलाएं चंदन का उबटन और सुगंध उपयोग करती हैं। खेत और सरोवर देख लोगों के हृदय हर्षित हो जाते हैं।
तो वहीं मलिक मुहम्मद जायसी ने षट् ऋतु वर्णन खंड में कुछ यूं कहा है-
ऋतु हेमंत संग पिएउ पियाला।
अगहन पूस सीत सुख-काला॥
धनि औ पिउ महं सीउ सोहागा।
दुहुंन्ह अंग एकै मिलि लागा।
तो आपके तन-मन को हरषाने वाली सर्दियां आ गई हैं। इनका स्वागत करें लेकिन बुजुर्गों का भी ध्यान रखें क्योंकि जाड़ा बुढ़ापे का शत्रु है। उन्हें पहना-ओढ़ाकर रखें और खुद भी थोड़ी सी सावधानी बरत लें क्योंकि जाड़ा मौसम का राजा होता है और राजा है तो थोड़े नखरे करेगा ही!
(लेखिका प्रख्यात लोकगायिका हैं)