..जब लक्ष्मीबाई की भतीजी रानी तपस्विनी ने अध्यात्म से फूंका था क्रांति का बिगुल
लाल कमल देकर रानी तपस्विनी ने क्रांतिकारी साधुओं का एक बड़ा दल तैयार कर लिया। ये साधु जगह-जगह घूमकर क्रांति का संदेश देते कि धर्म को बचाने के लिए अंग्रेजों को देश से निकालना ही एकमात्र उपाय है।
नई दिल्ली, जेएनएन। रानी तपस्विनी (1842-1907) झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की भतीजी और उनके एक सरदार पेशवा नारायण राव की पुत्री थीं। जन-क्रांति के लिए पूर्व-पीठिका तैयार करने में तपस्विनी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने स्वयं संन्यासी बनकर साधु-संन्यासियों और फकीरों को अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति युद्ध करने के लिए संगठित व प्रेरित किया। पेशवा खानदान का प्रभाव उन्हें विरासत में मिला था। बचपन में ही वह शस्त्र विद्या में निपुण हो गईं। लेकिन पिता की मृत्यु के बाद कम उम्र में जागीर की देखभाल का काम उनके कंधों पर आ गया। उन्होंने अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए सैनिकों की नई भर्ती करनी शुरू कर दी। पर अंग्रेजों को उनकी गतिविधियों की भनक मिल गई। उन्होंने रानी को पकड़कर त्रिचिनापल्ली के किले में नजरबंद कर दिया।
वहां से छूटते ही रानी ने नई युक्ति निकाली। वह सीतापुर के पास नैमिषारण्य तीर्थ में रहने चली गईं और संत गौरीशंकर की शिष्या बन गईं। अंग्रेज भी यह समझकर चुप बैठ गए कि रानी ने वैराग्य धारण कर लिया है, अब उनसे कोई खतरा नहीं है। लेकिन रानी अध्यात्म के मार्ग से क्रांति का शंखनाद करने वाली थीं। वे माता तपस्विनी के नाम से आसपास के गांव के लोगों के लिए श्रद्धा का पात्र बन गईं। उनके दर्शन के लिए लोग आने लगे। वे भक्तों को अध्यात्म के साथ देशभक्ति व क्रांति का पाठ भी पढ़ाने लगीं। उन्होंने विद्रोह के प्रतीक 'लाल कमल' को बनाया। वे माता तपस्विनी की सौगंध देते कि जाग जाओ और क्रांति के लिए तैयार हो जाओ। माता तपस्विनी भी गांव-गांव घूमकर अपने भक्तों को प्रेरित करने लगीं। धनी लोग श्रद्धावश उन्हें जो धन देते, उससे हथियार गढ़े जाने लगे। माता तपस्विनी साधु-संत क्रांतिकारियों के दल के साथ घोड़े पर सवार होकर अंग्रेजों के फौजी ठिकानों पर हमले करतीं, लेकिन अंग्रेजों की सुसंगठित शक्ति के आगे इन छापामार साधुओं का विद्रोह विफल रहा। उन्हें पकड़कर तोप से उड़ाया जाने लगा। गांव वालों की श्रद्धा के कारण माता तपस्विनी बची रहीं। वे हर बार उन्हें छुपा लेते।
फिर नाना साहब के साथ वह नेपाल चली गईं। नेपाल में उन्होंने कई देवालय बनवाए, जो दरअसल धर्म चर्चा के साथ क्रांति संदेश के स्थल बन गए थे। अंग्रेजों को पता चला तो वह वहां से छिपते-छिपाते दरभंगा होते हुए कलकत्ता (अब कोलकाता) पहुंच गईं। 1901 में वह बाल गंगाधर तिलक से मिलीं और नेपाल में शस्त्र कारखाना खोलकर वहीं से पुन: क्रांति का शंख फूंकने की गुप्त योजना उनके सामने रखी। तिलक द्वारा भेजे गए मराठी युवक खाडिलकर को नेपाल में कारखाना खोलने भेजा गया। उसने वहां जर्मन फर्म क्रुप्स की सहायता से टाइल्स बनाने का कारखाना खोला, पर वास्तव में वहां हथियार बनते थे। अंग्रेजों को इसकी सूचना भी पहुंच गई। अंग्रेजों ने खाडिलकर को पकड़कर बहुत यातनाएं दीं, पर उन्होंने तपस्विनी का नाम नहीं लिया। अंतिम समय तक तपस्विनी को इस क्रांति की विफलता का मलाल रहा।
'आजादी के अनोखे एवं रोमांचक प्रसंग' से साभार संपादित अंश